क्यों आज हमें लाखों सावित्री बाई फुले चाहिए

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 3/1/2022

सावित्री बाई फुले का आज जन्मदिवस है। तत्कालीन समाज में जिस तरह से संघर्ष करके उन्होंने लड़कियों की पढ़ाई के महत्व को समझा और लड़कियों की शिक्षा के लिए काम किया, वह सराहनीय है। इतिहास में यह सब सफलता के रूप में दर्ज है।

सावित्री बाई के दिखाए मार्ग से लड़कियों ने पढ़ाई की। संघर्ष किया और इस बात को रेखांकित किया कि पढ़ने-लिखने में वे सक्षम हैं और घर, परिवार, समाज के साथ निर्णय-प्रक्रिया में भागीदारी करके वे भी विकास में हिस्सेदार बन सकती हैं। आज इसका असर दिखता है, जमीन से लेकर अंतरिक्ष तक। सावित्री बाई के पहले भी स्त्रियों ने शिक्षा हासिल करके इस तरह के काम किए हैं। गार्गी, रमाबाई से लेकर तमाम उदाहरण मिलते हैं। कालांतर में सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर अनेक महिलाओं को हम देखते हैं। महादेवी वर्मा हों, अन्य महिला प्राध्यापक, एसएनडीटी विश्वविद्यालय हो या राजस्थान का वनस्थली। हर जगह महिला शिक्षा की बेमिसाल अलख जगी है। आज़ादी के आन्दोलन में महिलाओं को जागृत और संगठित करने का काम अनेक महिलाओं ने किया। वर्ष 1990 के आते-आते, जो कि अंतरराष्ट्रीय साक्षरता वर्ष घोषित हुआ था, में जिस तरह से केरल के कोट्टयम और अर्नाकुलम से महिलाओं ने शिक्षा की ज्योत को थामा तो आज दूर दराज के गांवों में शिक्षित बेटियाँ, सायकिल पर झुंड में जाती लड़कियाँ या विभिन्न स्थानों पर नौकरियों में जाती लड़कियाँ बहुतायत नजर आती हैं। सड़कों पर ट्रैफिक में जूझती लड़कियाँ और ताज़ा सर्वेक्षण में लिंगानुपात में बढ़ी हुई लड़कियाँ भी दिखती हैं।

परन्तु सावित्री बाई को प्रताड़ना ज्यादा झेलनी पड़ी, यह भी सच है। शायद इसीलिए उनके काम को भी ज़्यादा सराहना मिली। समाज के नकारात्मक व्यवहार के कारण इतिहास में इसे पुख्ता तरीके से दर्ज भी किया गया। तत्कालीन परिस्थियों के चलते जो भी सामाजिक समीकरण रहे हों, सामंती शोषक समाज में महिलाओं के अधिकार रहे हों, राज्य की व्यवस्था रही हो। जनपदीय ढाँचों में शिक्षा, स्वास्थ्य या सुशासन में भागीदारी के प्रश्न रहे हों। लेकिन उन पर बात करने का अब कोई अर्थ नही हैं। 

आज बात वर्तमान की ही ज़्यादा प्रासंगिक होगी। और इसमें ख़ास ये है कि शासन की त्रिस्तरीय व्यवस्था में ज्यादातर बहुजन वर्ग की महिलाएँ संविधानिक पदों पर काबिज़ हैं। पंचायतों से लेकर संसद में भी। इसके साथ यह कहना भी समीचीन होगा कि सरकारों ने इस सबमें बहुत योगदान दिया। निशुल्क पुस्तक से लेकर सायकिल, लैपटॉप या नौकरी में आरक्षण आदि को भुलाया नहीं जा सकता। जिस तरह के कानून पारित किए वे महिलाओं के हित में हैं। कुछेक राज्य सरकारों ने तो जेंडर बजटिंग तक का काम किया। इसके बावजूद असर अब भी उतना दिख नहीं रहा है, जितना होना चाहिए। लेने के लिए दो चार नाम ही हैं, जो महिलाओं की सफलता के नित नए आयाम गढ़ते नजर आते हैं। इन गिने-चुने नामों को छोड़ दें, तो कोई बताए कि कितनी सावित्री बाई फुले सामने आईं हैं वर्तमान में? 

दरअसल, हमारे साथ दिक्कत यही है कि हम सदियों से अपने नायकों को पूजते रहे हें। उनकी जयन्तियाँ, पुण्यतिथियाँ मनाते रहे हैं। और हर उत्सव मनाकर शाम को भूल जाते हैं। अगली किसी पुण्यात्मा के प्रकट दिन का इंतज़ार करते हैं। उनके आचरण से, उनके कर्मों से हम कुछ सीखते नहीं। शायद सीखना चाहते भी नहीं। जबकि होना ये चाहिए कि हम अपने इन नायकों के व्यक्तित्व और कृतित्व से कुछ सीखें और आगे इस सीख का इस्तेमाल करें। क्योंकि जयन्ती, पुण्यतिथि जैसे अवसर, असल में होते ही उनके स्मरण के लिए हैं। इसीलिए आज इस सावित्री बाई के जन्मदिवस पर हम यह सीख गाँठ बाँध सकते हैं कि उनके कामों को याद करते हुए उनसे आगे निकलकर हमें लड़कियों की शिक्षा को नए तरीके से देखने-समझने और अमल में लाने की ज़रूरत है। तभी तो सावित्री बाई फुले के योगदान की बात सार्थक हो सकेगी। 
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। उन्होंने वॉट्ए ऐप सन्देश के रूप में यह लेख #अपनीडिजिटलडायरी को भेजा है। डायरी पर वे #एकांतकीअकुलाहट नाम की श्रृंखला भी लिख रहे हैं) 

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