आद्या दीक्षित, ग्वालियर, मध्य प्रदेश से, 8/3/2021
जिस विषय में बहुत लिखा गया हो, उसके बारे में लिखना कठिन होता है। जिस सम्बन्ध में सबको खूब ज्ञान हो, उस बारे कुछ समझाना बेहद कठिन होता है। और अगर ‘गंगाराम’ तोते ने ये रट लिया हो कि ‘नल के नीचे नहीं नहाना’, तो उसे कुछ और बताना लगभग नामुमकिन हो जाता है। महिलाओं के मामले में हमारे समाज की यही स्थिति है। इतना ज्ञान, इतनी बातें, इतने आदर्श, इतने नैतिक नियम, लुभावने उदाहरण और इतना कुछ लिखा, पढ़ा, सुना हुआ है कि हमें तोते की तरह रट गया है, सब। अब उससे इतर कुछ देखने में हमें मुश्किल होने लगी है ।
सच कहूँ, तो अब मेरा मन भी नहीं होता कुछ कहने, लिखने का।
हो भी कैसे? ज़रा सोचकर देखें, हम विश्व की सबसे समृद्ध, सुसंस्कृत और प्राचीन सभ्यता के लोग कहे जाते हैं। आज हम सफलताओं के नए शिखर बना रहे हैं। इसके बावज़ूद हमारे समाज को सीखना- सिखाना पड़े कि अपनी बहनों, बेटियों, बीवियों की इज़्ज़त करें, तो यह अफ़सोस की बात है न? एक विचित्र विरोधाभास। पर ये हुआ कैसे? यह भी सोचने वाली बात है।
कोई तो वज़ह रही होगी। हमें वो वजह ढूँढ़नी होगी। हाँ! ढूँढनी है। कहीं से उठाकर वज़ह बना नहीं देनी है। और न ही किसी बताई हुई वज़ह को ‘शाश्वत सत्य’ मान लेना है। निरन्तर खोजना है। ताकि पता लग सके कि हम आख़िर कहाँ गलती कर रहे हैं? कहाँ पिछली गलतियों को दोहराए जा रहे हैं? और क्यों? कितने ही मुद्दे हैं- समानता का, शिक्षा का, अपराध का, विवाह का। बलात्कार का, असमान वेतन का, कुपोषण का, गर्भपात का। संस्कृति का, खेलकूद का, सम्पत्ति का, घूँघट से बाहर आने का। घर की दहलीज़ से बहार निकलने का, शारीरक सम्प्रभुता का, आत्मिक सन्तुष्टि का।
और न जाने कितने। जिन्हें मैं लिखूँ न लिखूँ, पर जानते सब हैं। हाँ, सब जानते हैं। बस, मानते नहीं हैं। मानना चाहते नहीं हैं। परम्पराएँ, अहम्, परवरिश, और खुद भी। ऐसे न जाने कितने रोड़े आ जाते हैं, हमारे और सभ्य समाज के बीच। हम लोगों कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है कि क्या करें, कैसे करें। सब को सब पता है। सभी तो देखते हैं सिनेमा। अख़बार भी पढ़ते ही हैं। टीवी देखते हैं और बुद्धिजीवी बनने के शौक में अच्छी-अच्छी बातें भी करते ही हैं। दो चार किताबें भी याद होंगी, जो महिलाओं कि मनःस्थिति को विवेचित करती हैं। कविताएँ भी। ज़्यादा नहीं तो शायरियाँ तो पक्के तौर पर पढ़ी होंगी। सोशल मीडिया पर भी होंगे ही।
सब ने देखा होगा कि कैसे हर जगह दो समूह बराबर अपनी सक्रियता बढ़ाए हुए हैं। एक वो, जो स्त्री विषयक पारम्परिक सोच को बदलने की कोशिश में लगा है। कभी मुख्य नायिका की भूमिका में उसे दिखाकर, तो कभी समाज को संवेदनशील बनाने का हर सम्भव प्रयास कर। कभी लिखकर, कभी उदाहरण पेश कर। कभी अदालत के माध्यम से, कभी पत्रकारिता से और कभी तीव्र आन्दोलनकारिता से। फिर यहीं दूसरा समूह भी है जो महिलाओं को आज भी दूसरे पायदान पर ही देखना चाहता है। एक अच्छी सहगामिनी, अनुयायी, आज्ञाकारी, धर्मपरायण, सती-सावित्री भारतीय नारी, जो उपभोग की वस्तु है। उसे सुन्दर गहने, कपड़े, घर-आराम की सुविधाएँ दी जाएँ और वह उनमें खुश रहे, ऐसी इस वर्ग की अपेक्षा होती है। यह अपेक्षा अगर वह पूरी न करे तो घरेलू हिंसा का पात्र बने। ताकि पुरुषत्व की श्रेष्ठता बनी रहे।
इन दो के अलावा एक और वर्ग है, जो दोनों समूहों को लगातार देख रहा होता है। दृष्टिहीन दर्शक की तरह। इन समूहों की बातों को सुन रहा होता है, बधिर की तरह। कभी-कभी इन पर कोई प्रतिक्रिया भी कर रहा होता है, पर मूक की तरह। क्यों? क्योंकि यह वर्ग निश्चित नहीं कर पाता कि आख़िर जाए कहाँ, किसकी तरफ़। उसकी आत्मा कहीं और जाना चाहती है। सामाजिक ताना-बाना उसे कहीं और ले जाता है। ये लोग होते कहीं और हैं और इनका मन कुछ और गवाही देता है। इसलिए क्योंकि ये डरते हैं। सच को सच कहने से डरते हैं। “ऐसा हुआ तो फिर क्या होगा? वैसा हुआ तो कैसे निपटेंगे?” इस तरह के न जाने कितने सवालों के ज़वाब में उलझा रहता है, यह तीसरा वर्ग है। दरअसल, यही सोच सारे फसाद की जड़ बन जाती है।
किसी ने क्या खूब कहा है, “प्राचीन काल ने स्त्री को दैवीय गरिमा में सजाकर रखा। मध्यकाल ने उसे नुमाईशी पर्दों में कैद कर दिया। फिर आधुनिक काल ने उसे मुक्ति के नाम पर सरे बाज़ार तार-तार कर दिया है।” हमारे समाज की आज ये सबसे बड़ी सच्चाई है। कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई इसे मानता है या नहीं, पर है सोलह आने का सच।
कैसे निपटें इससे? मुझे लगता है, इन तीन के अलावा एक और समूह होना चाहिए, समाज में। ऐसा, जो न आगे बढ़ाने की बात करे, न महिला को पीछे ही रखना चाहे। बल्कि वह उसके साथ मिलकर चलने की इच्छा रखता हो। इरादा रखता हो। इसके लिए कभी ख़ुद एक कदम पीछे आना पड़े तो हिचके नहीं। अगर कदम आगे बढ़ाकर किसी का हाथ थामना पड़े, तो खुद को छोटा महसूस न करे। स्त्री को अपने से आगे बढ़ते देख कर ईर्ष्या न करे, बल्कि गौरव का भान हो उसे और उससे बराबरी करने की कोशिश करे वह। ऐसा एक समतामूलक वर्ग।
बहुत मुश्किल नहीं है यह परिवर्तन। इनमें ऐसा कुछ नहीं जो किया न सके। समाज अपनी समझदारी का परिचय देते हुए ‘बड़े आराम से’ यह कर सकता है। अन्यथा फ्रांस की, रूस की अमेरिका की, सऊदी की, चिली की क्रान्तियाँ तो उदाहरण हैं ही।
अपना हिस्सा तो सब लेकर ही रहते हैं।
अन्त में दो लाइनें…
“हम अमन माँगते हैं…
मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही!
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(आद्या दीक्षित, छोटी उम्र से ही समाजसेवा जैसे बड़े कार्य में जुटी हैं। ऐसे कि उनके योगदान को अब राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर ख़ासी पहचान मिल चुकी है। मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें ‘बेटी बचाओ अभियान’ के लिए अपना प्रतिनिधि चेहरा (Brand Ambassador) बनाया है। जबकि भारत सरकार ने उन्हें 2015 में ‘बालश्री’ पुरस्कार से सम्मानित किया है। )
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