Auranzeb-Shivaji

शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

अपमानों की परिसीमा हुई और महाराज ऐन दरबार में भड़क उठे। यही जसवन्त सिंह मराठा सैनिकों से मात खाकर, उन्हें पीठ दिखाकर भाग खड़ा हुआ था। और महाराज को उससे भी बहुत पीछे किसी कोने में खड़ा कर दिया गया था। इस अपमान से वह तिलमिला उठे। उनके मुँह से अंगार बरसने लगे। रामसिंह से बोले, “आप, आपके पिता और आपके बादशाह अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं कौन हूँ। अव्वल तो मुझे खड़ा ही नहीं करना था और करना था तो इतने निचले दर्जे में? आपको चाहिए था कि मेरो हैसियत का खयाल रखते।” और बादशाह की तरफ पीठ कर महाराज फौरन मुड़ गए। तेजी से चलने लगे। गुस्से से उनके माथे की नस फूली हुई थी।

दरबार में ही एक तरफ जाकर वह बैठ गए। इस घटना से सारा दरबार अवाक् रह गया। पुश्त-दर-पुश्त, गर्दन झुकाकर लाचारी से पेश आने वाले उन सरदारों ने, तीखे स्वाभिमान का ऐसा तीव्र उफान पहली बार देखा था। बेचैन हो गए थे सब के सब। बादशाह से भी ज्यादा बेचैन। दिल्ली की भीगी बिल्लियों और दक्खन के पठार के गबरू शेर में क्या फर्क है, यह उसी समय जाहिर हो गया। औरंगजेब ने चुपचाप कुर्निसात बजाने वाले अनगिनत ‘सिंह’ पाल रखे थे। लेकिन गुस्से से दहाड़ते शेर से पहली बार पाला पड़ा था उसका। रामसिंह ने महाराज से बहुत मिन्नतें कीं। लेकिन इस तरह अपमानित होकर महाराज अब बादशाह का मुँह भी नहीं देखना चाहते थे। “चाहे तो आप मेरी गर्दन ही काट दीजिए,पर मैं बादशाह के सामने अब हरगिज नहीं आऊँगा”, उन्होंने साफ-साफ कह दिया।

तब बादशाह ने हुक्म फरमाया कि महाराज को उनके डेरे पर ले जाया जाए। हुक्म के अनुसार रामसिंह उन पिता-पुत्र को वहाँ से ले गया। बाद में कई सरदारों ने बादशाह को मशवरा दिया कि “बेअदब से पेश आने वाले उस उद्दण्ड शिवाजी को मौत के घाट उतार दीजिए।” सुनकर बादशाह चुप ही रहा। पर मन ही मन वह उबल रहा था (दिनांक 12 मई 1666)। सभी सरदार शिवाजी को मार डालने के लिए बादशाह को उकसा रहे थे। चार दिन तक बादशाह उनकी सलाह चुपचाप सुनता रहा। पाँचवें दिन भी सरदारों ने और जहाँआरा ने उस पर जोर डाला। तब बादशाह ने गुप्त यंत्रणा में शिवाजी को मार डालने का फैसला सुनाया। यह काम उसने रादअंदाज खान को सौंपा। क्रूरकर्मा रादअंदाज खान को शिवाजी राजे को सजा देने का काम सौंपा गया, यह सुनकर रामसिंह के कान खड़े हो गए।

महाराज को जान से मार डालने का हुक्म हुआ है, यह बात रामसिंह के कानों पर आई। बहुत ही बैचैन हो उठा वह। मिर्जा राजा ने बेटे राम सिंह को ताकीद की थी कि, “मेरे और तुम्हारे वचन के ऐतबार पर शिवाजी राजे आगरा आ रहे हैं। उनका बाल भी बाँका न होने पाए।” यह राजपूत का वचन था। सो, राम सिंह ने बादशाह को अर्जी दी, “हुजूर मैंने और मेरे पिता ने राजे को सुरक्षा का वचन दिया है। अगर आप राजे को मार डालेंगे तो राजपूत का वचन झूठा पड़ेगा। सो पहले मुझे मेरे बाल-बच्चों के साथ मार डालिए और तब शिवाजी राजे की मौत के घाट उतारिए (दिनांक 16 मई 1666)।” राम सिंह की यह अर्जी औरंगजेब को पेश की मुहम्मद अमीर खान मीर बक्षी ने।

अर्जी का मतलब यह भी था कि जब तक “रामसिंह की जान में जान है, तब तक शिवाजी राजे को आप मार नहीं सकते।” सोच में पड़ गया बादशाह। कहीं इसी वजह से राजपूतों से बखेड़ा हो गया तो? उसने सोचा कि शिवाजी राजे को किसी और तरीके से चुपचाप ही मारना पड़ेगा। एक बार महाराज को काबुल की मुहिम पर भेजने की भी सोची उसने। पर बाद में यह ख्याल भी छोड़ दिया। इसी समय आगरे में सूबेदार फिदाई हुसैन खान की कोठी बन रही थी। औरंगजेब ने तय किया कि इस कोठी का काम पूरा होने पर राजे का रहने का स्थान बदल देंगे। बाद में वहाँ पर उन्हें कैद कर चुपके से उनका काम तमाम करेंगे। औरंगजेब ने सावधानी के तौर पर राम सिंह से जमानत लिखवा ली (दिनांक 17 मई 1666) महाराज, रामसिंह की कोठी के सामने, मैदान में खेमे डालकर रह रहे थे।

हालाँकि रामसिंह से जमानत लिखवा लेने पर भी औरंगजेब को तसल्ली न हुई। सो, उसने आगरे के दरोगा सिद्दी फौलाद खान को हुक्म दिया कि शिवाजी “राजे के शिविर को सैनिकों से घेर लो। उसे नजरकैद रखो।” हुक्म होते ही तुरन्त फौज लेकर फौलाद खान ने शिविर को घेर लिया। महाराज अब कैद में थे (मई आखिर 1666)। वह समझ गए कि इस धोखेबाज कैद से छूटना मौत के जबड़े से जिन्दा निकलने जैसा दुरुह है। वह चिन्तित थे। शेर जाल में फँस गया। उधर, औरंगजेब की खास सूचनाओं के कारण फिदाई हुसेन की कोठी का काम तेज हो गया था। इधर, शिवाजी महाराज की रक्षा का वचन राम सिंह ने राजपूत की आन-बान से निभाया। इसके लिए उसने अपने मालिक बादशाह औरंगजेब की नाराजगी तक मोल लो। राम सिंह की वचनप्रियता ने शिवाजी महाराज के दिल को छू लिया। पर उसकी जमानत वाली बात से वे गहरी सोच में भी पड़ गए थे। 
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ 
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?
34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए
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