बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 12/6/2021

देवास के जवाहर चौक में एक ही बड़ी सी दुकान थी झँवर सुपारी सेंटर। मंगरोली सुपारी वहीं मिलती थी, जिसे काटो तो नारियल जैसी लगती थी। घर में एक सरोता था जिसकी धार कुन्द हो चुकी थी। माँ को आदत थी, सुपारी खाने की। एक बैठक में आधी सुपारी खा जाती थीं। एक बार उसी सरोते से मैं भी सुपारी काटने लगा। उंगली कट गई, खून बहने लगा। घबराए तो सब थे, मैं भी, पर डरा नहीं था। 

शिमला में था। एक सम्मेलन में गया था, वैज्ञानिकों के। सड़कों पर चलते-चलते थक गया था। पत्थर से टकरा गया, अपनी धुन में चलते हुए। एक दोस्त वहीं बना था, जो मेडिकल के पहले साल में था। उसने मुझे उठाया। घुटने से बहते खून को रोकने के लिए मिट्टी लगाई। बोला, “हमारी मिट्टी में सेवफ़ल का रस है। घाव जल्दी ठीक हो जाएगा।” अमन डबीर नाम था। उससे वादा किया था कि उसकी डिग्री मिलने का जब कन्वोकेशन (दीक्षान्त समारोह) होगा तो आऊँगा ज़रूर। यह बात 1996 की होगी सम्भवतः, पर गया नहीं फिर कभी। न जाने क्यों, पर आज लगता है, अमन डॉक्टर बन गया होगा कभी का और 40-45 का होगा अब। अगर अचानक चला गया उसके सामने तो क्या वह पहचानेगा? आज भी सेवफ़ल के रस वाली मिट्टी से इलाज करता होगा। उसे याद दिलाऊँगा तो हँसेगा वो। कितनी गोरी थी उसकी माशूका और वह भी। अपने ही साँवले रंग से पहली बार नफरत हुई थी मुझे। 

मसूरी गया था, धनौल्टी भी। वहाँ एक जीप से टकरा गई थी ठोड़ी। सब लोग बादल, बरसात और पहाड़ देख रहे थे और मैं खून की धार जो मुँह के भीतर बह रही थी, उसे रोकने के लिए बार-बार कुल्ला करता। पर खून रुक नहीं रहा था। वैसे ही फोटो खिंचवाई थी। पर उनमें खून नहीं दिखता आज कहीं। 

सन् 1978 की बात होगी। स्काउट का कैम्प था। देपालपुर के पास बनेडिया में। किसी तालाब किनारे था शिविर, 15 दिन का। वहीं एक जैन मन्दिर था। शाम को चला जाता था। उन लोगों ने अपरिग्रह और अहिंसा सिखाई और बाद में सचिन ने सम्यक दर्शन। शिविर के दौरान जंगल मे नित नए अभ्यास, काम और तकनीकें सिखाई जाती थीं। एक दिन कैम्प में देर रात लौटते समय किसी कीड़े ने काट लिया। दाईं आँख के ठीक ऊपर। आँख सूज गई। फिर अगले दो दिन में पका घाव, मवाद और खूब खून निकला। मैंने ही मोटा सुआ घुसा लिया था। दर्द सहन नहीं हो रहा था। आखिरी दिन आईना देखा तो लगा सब ठीक है। लौट आया घर पर। उस जैन मन्दिर के एक नागा भिक्षु की बात याद आती है, “अपने हाथ से अपनी आँख में सुआ घुसाने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए। तुम कुछ अलग करोगे। सबके जैसे मत हो जाना।”

ग्यारहवीं में था तो बगल में गाँठ पड़ गई। दर्द देने लगी थी। एक दिन चाकू से फोड़ ली। अभी पिछली बरसात में भी पाँव का घाव ठीक नहीं हो रहा था तो गर्म चाकू से काटकर साफ कर दिया सब। आठ दिन में चलने लगा ज़मीन पर। 

कबीरधाम जिले के पंडरिया ब्लॉक में जमीन से 1,400 फीट ऊपर बैगाओं की बस्ती। आठ दिन तक सिर्फ कोदो, कुटकी, महुआ और इमली का पानी। शरीर की क्षमता दम भरने लगी। एक दिन दोपहर में जब एक आदिवासी लड़की निमरानी के साथ उसके गाँव से लौट रहा था, तो अचानक डिंडोरी और कबीरधाम जिले के बीचों-बीच वाले गाँव में आँखों के सामने अंधेरा छा गया। निमरानी जोर से चिल्लाई, “आपको भूत आया है शरीर में”। आंखें लाल हो गईं थीं और मैं गिर गया था, नीचे। उसने लोगों को बुलाया और पता नहीं उन लोगों ने क्या खिलाया कि दो घंटे बाद ठीक हो गया। बाद में मुझे भौरमदेव के मन्दिर ले गए और वह आदिवासी पुजारी मेरे रक्त को देर तक शुद्ध करता रहा। आखिर में आते समय बोला, “बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है। इंसानों का खून नहीं है। आज तो खुद बाबा भौरमदेव को मूर्ति से निकलकर आना पड़ा, तुम्हारी आँखों मे उतर आए खून को पीने के लिए। मैं 20-30 साल और जिऊँगा। तब तक मत चढ़ना इस मन्दिर की देहरी। वरना, सब भस्म हो जाएगा।” 

पिताजी मनावर में थे। गर्मी की और दीवाली की छुट्टियों में माँ हम तीनों भाइयों को लेकर देवास से वहाँ चली जाती थी। निमाड़ की गर्मी तब और भयावह होती थी। मंगला देवी का मन्दिर मनावर शहर से तब बाहर हुआ करता था, एक टेकड़ी पर। एक दिन पीतल के स्टोव पर चाय उबल रही थी। छोटा भाई मज़ाक में लोहे का कड़छा लेकर उसे गर्म करने लगा। जब खूब गर्म हुआ, तो उसने मुझसे पूछा लगा दूँ पाँव पर। मैंने हाँ कह दिया। उसने वो भभकता हुआ लाल लोहे का गर्म कड़छा मेरे दाएँ पैर की जाँघ पर लगा दिया। मैं देखता रहा। कड़छा चिपक गया था। चमड़ी जल गई थी। माँ ने देखा तो चिल्लाई। जोर से रोने लगी। फिर होश आया तो पानी से भरी गगरी उड़ेल दी, पाँव पर। खींचकर कड़छे को अलग किया। शाम को डॉक्टर के यहाँ से पिताजी साइकिल पर बैठाकर मंगला देवी के मन्दिर ले गए। पुजारी हैरान था, “साहब, यह लड़का बहुत जीवट है। इसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। बस सनकी है। धूनी रमाए बैठेगा तो सब कुछ ठीक। नहीं तो आपके बाप के भी बस नहीं आएगा। घाव पाँव पर आज भी है। दुर्योधन की जंघाएँ कमज़ोर रह गई थी न। मेरे छोटे भाई ने मेरी जंघाएँ मजबूत की हैं। जो खून उसने उस गर्म कड़छे से जमाया था, वो संसार के ताप से आज तक नहीं पिघला है। भाई, अलबत्ता संसार छोड़कर चला गया कभी से। 

ये अपने भीतर से स्मृतियों के वे चन्द क़तरे हैं, जो रह-रहकर अपनी मज़बूती की याद दिलाते हैं। पिताजी को छैगांव माखन में सन 1974 में किसी ज्योतिषी ने पुखराज बेचा था। तब 3,500 रुपयों में। सोचिए 1974 के 3,500 रुपए। ज्योतिषी ने कहा था, “आपके तीनों में से एक लड़का आप पर भारी पड़ेगा। यह पहने रहिए। कुछ नहीं होगा और लड़का भी इससे मजबूत रहेगा।” 

मरने तक लड़ते रहे वे। जब 1989 में मरे तो लाश को जलाते समय किसी ने उनकी उँगली से अँगूठी उतारकर मुझे पहना दी। पीला ज़र्द सोने से जड़ा हुआ चमकता पुखराज मेरी धरोहर है। बड़े सालों तक उसे पहना। फिर अचानक क्यों उतारा, याद नहीं। कहीं सम्हालकर रख दिया था।

अभी जब सब सामान बाँटने बैठा तो पुखराज दिखा उसमें। इधर कहीं रखा मिल गया था। तब सोचा दे दूँ या बेच दूँ। आभूषणों से मोह नहीं रहा अब। जब सुनार के पास ले गया तो बोला, “यह असर खो चुका है और खंडित भी हो गया है। अब इसका न प्रभाव शेष है और न ही यह किसी को कुछ दे सकता है। बेहतर है कि आप किसी विधि-विधान से इसे नर्मदा या गंगा में खमा (विसर्जित करना) दें। पर बगैर पूजा के न खमाना, अन्यथा अनर्थ हो जाएगा।” मैं हँस पड़ा, मुझसे बड़ा पंडित कौन? ज्ञान, जाति, कर्म और विधान से। पर जल्दी ही जब सार्वजनिक जीवन में आया, तो ये सारे मोहपाश तोड़ दिए। और अब जाति से भले पंडित होऊँ जो मेरे बस में नहीं था, पर कर्म से मनुष्य बना रहूँ, यही पर्याप्त है। 

आज वो पुखराज क्षीण हो गया है। चमक और आभा में। मज़ेदार यह है कि सुनार के कहने के अगले ही दिन शुगर की जाँच कराई थी तो 740 निकली थी। मेरे डॉक्टर्स मेरे पीछे पड़े रहते हैं कि अस्पताल में भर्ती हो जाओ और मैं यायावरी करता रहता हूँ। 

खून ख़त्म हो गया है। घर के सामने 1979 में लगाया गुलमोहर का तना सड़ गया है। दीमक लग गई है। जो मेरी ताकत था, पुखराज का पीलापन गायब है। पहले पिता, फिर माँ, फिर छोटा भाई। एक-एक कर सब चले गए हैं। अब खून में ताकत भी शेष नहीं।

मैंने लिखा था न शुरुआत में ही कि अशुद्ध खून गाढ़ा नीला होता है और शरीर की उभरी और ऊपरी सतह पर शिराओं में चलता दिखाई देता है। 

अपनी शिराओं को खाली आँखों से देख रहा हूँ। एक बार फिर आँखों में खून उतर आया है और मैं पुखराज के टूटे हिस्से को देखता हूँ। गुलमोहर के सूखे पेड़ से लौटती छोटी नीली चिड़िया को देखता हूँ। फिर कबीर याद आते हैं…

धन रे, जोबन, माया
अमर तेरी काया
भोला मन जाने रे

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 14वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली  कड़ियाँ  ये रहीं : 

13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा

12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं

11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है

10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!

नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…

आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…

सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे

छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो 

पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!

चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा

तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!

दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…

पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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