ऋषु मिश्रा, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश
मैं मम्मी से मिलने गई थी। नवरात्रि में अपनी माँ से मिलना ज़रूरी होता है। चलते वक़्त वो कहती हैं, “तुम्हारा रंग दबता जा रहा है। साँवली होती जा रही हो।”
मैंने कहा हो सकता है, रोज गाँवों में जाना होता है। धूप भी रहती है। वो पूछती हैं कि रोज़ गाँव में क्यों जाती हो? मैंने उत्तर दिया, “नामांकन के लिए, अभिभावकों को समझाने-बुझाने के लिए।” ऐसा कहते हुए मैं अपनी सैन्डल पहन रही थी। सोच रही थी कि अभी मम्मी कहेंगी, “मत जाया करो इतनी धूप में।” लेकिन मुझे उनसे स्नेहिल जवाब मिला, “कोई बात नहीं, मेहनत का फल मिलता है। ईश्वर सबको देखता है।”🌻
माँ ग़लत कहाँ सिखा सकती है। और यहाँ उनकी सीख बहुत स्पष्ट थी, “आपका रंग जैसा भी हो, काम का रंग पक्का होना चाहिए।”❤️
सो अब देखिए काम का रंग। अभी गेहूँ की कटाई का मौसम है l घर-घर जाकर नामांकन कराने का प्रयास किया जा रहा है। गाँव की महिलाएँ गेहूँ काटने अक्सर अपने मायके चली जाती हैं। साथ में बच्चों को भी ले जाती हैं। फिर एक लम्बी अवधि तक बच्चा विद्यालय में अनुपस्थित रहता है।
गत वर्ष भी यही हो रहा था। कुछ बच्चे अप्रैल माह में नामांकन करवाने के बाद सीधे सोलह-सत्रह मई तक वापस लौटे। तब मैंने अभिभावकों के साथ सख्ती शुरू की। मेरी नीयत में कोई खोट नहीं था। यह सब मैं बच्चों के हित के लिए कर रही थी l परिणाम अत्यधिक सुखद प्राप्त हुए।
इस बार भी वो माएँ अपने मायके जा रहीं हैं। किन्तु बच्चों को दादी के पास छोड़कर जा रहीं हैं। उनका कहना है कि गर्मी की छुट्टियों में ही बच्चों को कहीं लेकर जाएँगे। एक वर्ष के निरन्तर प्रयास ने यही परिणाम दिया है कि आज भी कक्षा की उपस्थिति निन्यानबे प्रतिशत रही।
बेहतर परिणाम के लिए सख्त होना पड़ता है। आलोचनाओं की अवहेलना करनी पड़ती है। और सबसे मुख्य बात…निरन्तर प्रयास करने पड़ते हैं।🌻
—–
(ऋषु मिश्रा जी उत्तर प्रदेश में प्रयागराज के एक शासकीय विद्यालय में शिक्षिका हैं। #अपनीडिजिटलडायरी की सबसे पुरानी और सुधी पाठकों में से एक। वे निरन्तर डायरी के साथ हैं, उसका सम्बल बनकर। वे लगातार फेसबुक पर अपने स्कूल के अनुभवों के बारे में ऐसी पोस्ट लिखती रहती हैं। उनकी सहमति लेकर वहीं से #डायरी के लिए उनका यह लेख लिया गया है। ताकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने-पढ़ाने वालों का एक धवल पहलू भी सामने आ सके।)
——
ऋषु जी के पिछले लेख
9- मदद का हाथ बढ़ाना ही होगा, जीवन की गाड़ी ऐसे ही चलती रहनी चाहिए
8- यात्रा, मित्रता और ज्ञानवर्धन : कुछ मामलों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट वाकई अच्छा है
7- जब भी कोई अच्छा कार्य करोगे, 90% लोग तुम्हारे खिलाफ़ होंगे
6- देशराज वर्मा जी से मिलिए, शायद ऐसे लोगों को ही ‘कर्मयोगी’ कहा जाता है
5- हो सके तो इस साल सरकारी प्राथमिक स्कूल के बच्चों संग वेलेंटाइन-डे मना लें, अच्छा लगेगा
4- सबसे ज़्यादा परेशान भावनाएँ करतीं हैं, उनके साथ सहज रहो, खुश रहो
3- ऐसे बहुत से बच्चों की टीचर उन्हें ढूँढ रहीं होगीं
2- अनुभवी व्यक्ति अपने आप में एक सम्पूर्ण पुस्तक होता है
1- “मैडम, हम तो इसे गिराकर यह समझा रहे थे कि देखो स्ट्रेट एंगल ऐसे बनता है”।