वैश्विक महामारी ‘कोरोना’ के इस दौर में देशव्यापी तालाबन्दी है। इसलिए शादी-ब्याह भी नहीं हो रहे हैं। वरना अप्रैल, मई, जून के महीनों में तो जैसे हर तरफ़ शादियों की बहार होती है। हालाँकि आज से 20-25 बरस पहले की शादियों जैसी शादियाँ अब कहाँ होती हैं?
याद है? किसी एक घर में शादी होती थी और पूरा गाँव उसमें शरीक होता था। आस-पड़ाेस की सारी महिलाएँ एक महीना पहले से तैयारियों में लग जाती थीं। याद है? जब गाँव के सारे लड़के बारातियों को खाना खिलाने से लेकर सत्कार तक में जी-जान से लग जाते थे।
मुझे याद है। मंगलू चाचा की लड़की की शादी 25 साल पहले हुई थी। तब गाँव असल में ‘गाँव’ ही थे। कस्बा, शहर नहीं बने थे। हमारी सोच बंजर नहीं हुई थी। आपसी भाईचारा था। सहयोग की भावना थी। रिश्तों के प्रति समर्पण था। कुल जमा, हम सामाजिक थे।
तो मंगलू चाचा के घर शादी की तैयारियाँ हो रही थीं। शाम को बारात आनी थी। हलवाई सुबह से खाना बनाने में लगे थे। गाँव के कुछ बच्चे आलू छील रहे थे। कुछ नाश्ते के पैकेट तैयार कर रहे थे। कलाकार किस्म के लड़के जयमाला मंच और मंडप सजाने में व्यस्त थे।
गॉंव के लगभग सारे लोग मंगलू चाचा के घर पर थे। हँसी-ठिठोली का रंग अलग से जमा हुआ था। हिरामन चाचा बहुत लम्बी-लम्बी फेंक रहे थे। लोग खूब हँस रहे थे। सब मस्ती कर रहे थे। मर्द घर से बाहर और औरतें घर के अन्दर। आलू छील रहे बच्चे भी चुस्की ले रहे थे।
सुधीर, मंगलू चाचा का लड़का, फूल-पनीर लाने पटना गया हुआ था। कुछ दोस्तों के साथ। उसे अपने जीजाजी के लिए उपहार और दीदी के लिए सैंडल भी लेना था, वहाँ से। बहुत काम था उसके पास। सुधीर ने उसी साल दसवीं का इम्तिहान पास किया था।
मई का महीना था। लेकिन अचानक आँधी-पानी का माहौल बन आया था। इससे मंगलू चाचा की चिन्ता बढ़ गई थी। साधरण किसान थे। लड़का नादान। शादी का खर्च। कर्ज का बोझ। तिस पर मौसम। फिर बारात ज़मींदार के घर से आ रही थी। पूरे 200 बाराती आने थे।
तमाम चिन्ताएँ मुँह बाए खड़ी थीं। हाथी, घोड़े का इन्तज़ाम कैसे होगा? शादी के शामियाने को कहीं मौसम की वज़ह से नुकसान न हो जाए? बारातियों का स्वागत-सत्कार कैसे होगा? कहीं कोई कमी रह गई ताे क्या होगा? लेकिन गाँववालों ने उन्हें हौसला बँधाया।
शाम के करीब आठ बजे बारात आई तो जनवासे पर स्वागत के लिए 50 से ज्यादा लोग मौज़ूद थे। ज्यादातर युवा। बारातियों के बैठने की व्यवस्था, नाश्ता-पानी की सुविधा। ठंडी हवा। बारातियों के कपड़ों में इस्त्री। नाई, मोची, पान वाले की व्यवस्था। सब कुछ दुरुस्त।
बारातियों को शिकायत का कोई मौका नहीं था। सब बारात में खूब नाचे। जमकर भाँगड़ा और नागिन डान्स हुआ। मौसम ने भी साथ दिया। हालाँकि उमस ज़रूर हो गई थी। इससे द्वारपूजा और जयमाला के समय पर थोड़ी दिक्कत हुई। दरवाजे पर भीड़ बहुत बढ़ गई थी।
पंडाल का पंखा हाँफने लगा था। सराती (लड़की वाले) एक पाँव पर खड़े थे। बाराती उतावले हो रहे थे। लिहाज़ा उन्हें तुरन्त ठंडा शर्बत पेश किया गया। रूह आफ़ज़ा। हलक के नीचे थोड़ी ठंडक उतरी तो गर्म होते तेवर भी अपने आप ठंडे होने लगे। माहौल फिर सामान्य।
तभी कन्या का आगमन हो गया। पूरे पंडाल में सब शान्त। सभी की नज़रें अब वर-वधू पर थीं। उस ज़माने में स्मार्ट फोन या मोबाइल का आगमन तो हुआ नहीं था। इसलिए तस्वीरें वग़ैरह लेने के कार्यक्रम में वर-कन्या को ज्यादा कष्ट नहीं हुआ। सब जल्दी निपट गया।
अब तक भोजन का समय हो चला था। रात के 11 बज रहे होंगे। बारातियों ने खाना शुरू किया। व्यंजन कम थे, पर लजीज़। गरम-गरम पूरी, आलू दम, मटर-पनीर, चटनी। सब स्वादिष्ट। गाँव के लड़के मन से, पूछ-पूछकर खिला रहे थे। मंगलू चाचा खुश। बाराती संतुष्ट।
इसके बाद रात को विवाह के पारम्परिक विधि-विधान हुए। सुबह-सबेरे नाश्ते के बाद बारात की खुशी-खुशी विदाई। पूरा आयोजन हर किसी के लिए यादगार रहा। किसी को न शिकायत का मौका मिला और न मंगलू चाचा काे अपनी चिन्ताओं से फिक्रमन्द होने का।
पूरा गाँव जो उनके साथ खड़ा था। परिवार की तरह। वहीं आजकल? शादी ब्याह में भीड़ तो खूब जुटती है। लेकिन वर-वधू पक्ष के नाते-रिश्तेदार तक मेहमान से बन आते हैं और चले जाते हैं। इसी बदलाव की बिना पर कई सवाल हैं, जो जायज़ तो हैं ही और जरूरी भी हैं।
क्या आज वैसी शादियाँ नहीं हो सकतीं? क्या आज हम मेहमाननवाज़ी भूल गए हैं? क्या अब हम वैसे सामाजिक नहीं रहे, जैसे पहले होते थे? आज क्या हमारे पास इस सबके लिए समय नहीं रहा? ऐसे सवालों पर हमें विचार करना चाहिए। हो सके तो ज़वाब खोजने चाहिए।
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