देवांशी वशिष्ठ, दिल्ली से, 14/7/2021
प्रिय मानसून,
कहाँ हो तुम? तुम्हें मालूम भी है, कब से यहाँ सब तुम्हारी राह देख रहे हैं? अब और देर मत करो आ जाओ। मैंने अख़बारों में तो पढ़ा था कि तुम इस बार जल्दी आ रहे हो। जून तक आ जाओगे। लेकिन यहाँ तो जुलाई भी एक-एक दिन बीतता जा रहा है और तुम्हारी कोई खोज ख़बर ही नहीं।
कल मैंने एक छोटी-सी गुहार लगाई तो तुम एक फुहार देकर लौट गए। फिर ढाक के वही तीन पात।
ओ मानसून! तुम बिल्कुल भी लोकतांत्रिक नहीं हो। देश के किसी हिस्से में तो तुम जमकर बरस रहे हो और किसी हिस्से में दर्शन भी नहीं दे रहे। जबकि हमें तो पढ़ाया गया है कि हम लोकतांत्रिक देश हैं। तुम भी लोकतंत्र का ख़याल करो। लिहाज़ रखो उसका।
और तुम शायद भूल रहे हो कि देश की 70 फीसदी आबादी आज भी खेती पर ही निर्भर है। तुम आओगे तो ही मेरे देश के लोगों के चेहरों पर मुस्कान आएगी, खेत लहलहाएँगे। पंछी सुर में गाएँगे। अब और देर मत करो। हम सबको निराश मत करो। आ जाओ मेरे दोस्त।
और सुनो! अबकी बार आते हुए उमस को कहीं समन्दर किनारे ही छोड़ आना। अबकी अगर आना तो ख़ूब शीतल पवन लेकर आना। मैं तो अपने घर के एसी से थक गई हूँ। मुझे अब कुदरत के एसी का इन्तज़ार है। प्लीज़ आ जाओ।
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(देवांशी, दिल्ली में रहती हैं। वहाँ द्वारका के सचदेवा ग्लोबल स्कूल में कक्षा नौवीं में पढ़ती हैं। पठन-पाठन और कला के क्षेत्र में उनकी विशेष रुचि है। खाली समय में वे या तो कोई उपन्यास पढ़ती हैं, या चित्र बनाया करती हैं। कभी-कभार लिखती हैं। मानसून को यह पाती भी उन्होंने ही लिखी है, मूल रूप से अंग्रेजी में। अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड कर #अपनीडिजिटलडायरी को वॉट्सएप के ज़रिए भेजी है। ऊपर दी गई पंक्तियाँ उसी का सारांश हैं। और सुना है, मानसून का दिल दिल्ली के लिए अभी-अभी कुछ पिघलना शुरू हुआ है। पर आगे मानसून का मन क्या चाहेगा, क्या करेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि देश के कई हिस्सों में तय समय से पहले पहुँचने के बाद भी बीच-बीच में इसी मानसून के पाँव दिनों-महीनों तक ठिठके रहे हैं।)