संस्कृति, मुम्बई से
एक कविता अपनी
छोड़ आई हूँ मैं उसके घर,
चार नज़रों में जब
दो नाकों जितनी दूरी थी,
ग़र कहीं नहीं मिली मैं
तो मिलूँगी वहीं
जहाँ पहुँचने के लिए
अपने घर को बार-बार
लाँघकर जाना पड़ता था
जहाँ जाने की शर्त थी
छिपे रहना
जहाँ जाने के मानी थे
सच से कोसों दूर होना
ज़िन्दगी ने एक-एक कर अंग काटे मेरे
पर मेरा दिल तोड़ने की हिम्मत
उसकी भी नहीं हुई,
सो, जाती रही मैं उस तक
तो, पहुँचती रही मैं उस तक
उसकी उदार आँखों में
जब पहली बार ख़ुद को देखा
तो उदार बनकर देखा
उसकी आँखों में घर की तस्वीर देखी
ख़ुद को देखा
ख़ुद को बिना आवरणों के देखा
तो ये ज़िन्दगी का सच पाया,
जो मैं होना चाहती थी
उसके लिए,
उसने मुझे ज़मीन दी
वो जो बन सकता था
उन रास्तों पर मैंने पहरेदारी की
हमने एक-दूसरे की धरती बचा ली
और आसमान तले
एक दूसरे की छत हो गए
हमनें कसमें खाई
कि नहीं माँगेंगे हम अपने लिए एक और दुनिया
कि इस दुनिया को न झेल पाए
इतना भी कमज़ोर नहीं है
हमारा प्रेम,
अपने चरम साक्षात्कार के क्षणों के बाद
हमनें ईश्वर से
एक दूसरे के अलावा और कुछ नहीं माँगा
हमनें बिस्तर, दीवार, खिड़की और छत को साक्षी मान
एक दूसरे का माथा चूमा
और भीष्म-प्रतिज्ञा सी आलिंगन में बँधते हुए
कहा
ईश्वर सच में क्रूर है!
एक उम्र में मिलने वाला समय
कम है हमारे लिए
कि हाँ कम ही पड़े ये
असीम आसमान
और छोटी पड़ जाए, ये धरती
पर हमें तो चाहिए थी
अपनी चार आँखों के लिए
दो नाकों जितनी दूरी
जिसमें अपनी एक कविता
छोड़ आई हूँ,
ग़र कहीं नहीं मिली मैं
तो मिलूँगी वहीं…
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(नोट : के.सी. कॉलेज, मुम्बई से हिन्दी साहित्य में एमए द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं संस्कृति, जिन्होंने कविता लिखी। जोगेश्वरी, मुम्बई में रहती हैं। फिलहाल हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड के राजभाषा विभाग में अनुवाद का काम करती हैं। उनकी कविता को आवाज़ दी है पल्लवी जायसवाल ने। पल्लवी भी के.सी. कॉलेज से ही हिन्दी में स्नातकोत्तर हैं। मुम्बई की भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में अपने और किताबों के लिए समय चुरा लेने की कला सीख रही हैं।)