शिवाजी ‘महाराज’ : आदिलशाही फौज ने पुणे को रौंद डाला था, पर अब भाग्य ने करवट ली थी

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

शिवाजी राजे शुक्ल पक्ष की चन्द्रलेखा की तरह बढ़ रहे थे। रामायण, महाभारत, शास्त्र-पुराण वह एकतानता से सुन रहे थे। महारुद्र हनुमानजी की शक्ति और युक्ति तथा शकुनि मामा की दुर्बुद्धि का बल भी अब उनकी समझ में आने लगा था। अचूक निशाना लगाने वाला अर्जुन और दशरथि-राम राजे के चौड़े सीने पर सान चढ़ा रहे थे। लक्ष्यबेध की विद्या सिखाने वाले विश्वामित्रजी की नई दृष्टि राजे को नजर आ रही थी। वह नजर देख रही थी कि रावण के सिर आकाश में उड़ गए हैं और चौदह परकोटों में सुरक्षित लंका को वानरों ने देखते ही देखते जीत लिया है।

बचपन से राजे का रुझान प्राचीन ग्रन्थों की तरफ भी था। बाद में तो उनके आश्रय से आए केशव पंडित नामक विद्वान् ब्राह्मण उनके लिए प्रवचन भी करते थे। राजे का चारित्रिक निर्माण इन्हीं ग्रन्थों के अक्षरों ने किया। राजे को इन पौराणिक कथाओं में मराठों को मुर्गों की तरह लड़ाकर राज करने वाले सुल्तानों की तस्वीरें नजर आने लगी। उनके हृदय में आसनस्थ हुई महिषासुरमर्दिनी, अम्बिका चण्डमुण्डभण्डासुरखण्डिनी जगदम्बा। सुल्तानी जंजीरों में जकड़े किले मानो आक्रोश से कह रहे थे, “जगदम्बे, दरवाजा खोल, माते! दरवाजा खोल।”

शिवाजी राजे निशानेबाजी तथा विभिन्न हथियारों का इस्तेमाल सीख थे। तीव्र मेधा और सीखने की उत्सुकता के कारण कोई भी बात वह बड़ी जल्दी सीख लेते। वर्जिश के सभी प्रकारों में वह पारंगत हो गए। हरिण की सहजता से वह छलाँग लगाने लगे। सबसे अधिक निपुण थे वह आदमी परखने की और उसे अपनाने की कला में। राजे सबसे प्यार से बात करते। सबसे अपनापा जताते। इसलिए सभी को लगता कि यह मेरा राजा है। मन प्यार के कच्चे धागों में बँधने लगे। इस तरह एक हुए मन पहाड़ को भी चीर सकते हैं। फिर उन्मत्त बैरी की तो बात ही क्या।

राजे मातृभक्त थे। जिजाऊसाहब उन्हें अत्यधिक प्रिय थीं। माँ का कहना टालना उनके लिए लक्ष्मण रेखा पार करने जैसा ही आत्मघात था। श्रद्धा, प्रीति, नीति का राजे सम्मान करते थे। इसीलिए सुल्तान की रावणी वृत्ति को निर्मूल करने के लिए उनका हाथ तलवार की तरफ बढ़ रहा था। इस वृत्ति की पौराणिक और वर्तमानयुगीन कथाएँ सुनकर उनके दिल में आग सी लगती। पुणे की किस्मत खुल गई थी। जिजाऊसाहब और शिवाजीराजे पुणे पधारे। मानो गौरी और गणपति के पदस्पर्श से पुणे पावन हुआ। कस्बा गणपति सुन्दर, सुघड़ मन्दिर में विराजमान हुए। इस गणेश मन्दिर में उध्वस्त हेमाडपन्ती मन्दिर के पत्थर के कलात्मक खम्भों का उपयोग किया गया था। पूजा-अर्चना तथा अक्षयदीप का प्रबन्ध जिजाऊसाहब ने कर दिया था। कल जहाँ उल्लू बोलते थे, वहाँ आरती के समवेश स्वर गूँजने लगे। धूप-दीप की गन्ध आने लगी। दूर्वा के, तृणांकुरों के हरे गुच्छे श्रीमस्तक पर शोभा पाने लगे।

दादाजी पन्त ने गणेश मन्दिर की नैऋत्य में, माँ-बेटे के रहने के लिए भव्य, सुन्दर कोठी बनाई थी। नाम दिया गया था लालमहाल। गणेशजी की छात्रा में माँ-बेटे रहने लगे। पुणे के आस-पास के देवी-देवताओं का भी प्रबन्ध जिजाऊसाहब ने कर दिया। त्योहार मनाए जाने लगे। विद्यावन्त, कलावन्तों के लिए आश्रयस्थान का निर्माण हुआ। उस वक्त पुणे में एक मुसलमान गायिका रहती थी। उम्र की ढलान पर थी। लालमहाल ने गुजारे के लिए उसे हर माह कुछ रकम बाँध दी। इस गायिका का नाम था मना नायकण। जिजाऊसाहब ने चमड़ी वाले कारीगरों को ज्यादा अच्छी जगह दे दी। पुणे के पास के अम्बीले नाले पर उन्होंने बाँध बनाए। गर्मी में सभी को सुभीता हो गया। उजड़ा पुणे फिर से आबाद हुआ। चौपाल पर चहल-पहल शुरू हुई। बाजार भरने लगे। लुहार, सुनार, चमार आदि काम के बदले अनाज पाने वाले देहाती पेशेवरों का जीवन सुख से बीतने लगा।

दादाजी कोंडदेव के हौसले बुलन्द थे। पुणे के दक्षिण में सात कोस पर खेड़ के पास उन्होंने एक नया ही गाँव बसाया। नाम दिया शिवापुर। पुणे के पास के पाषण गाँव का नाम बदलकर रखा जिजापुर। पन्तजी ने शिवापुर में फलों का बढ़िया बाग लगाया। वहाँ की अमराई बहुत बेहतरीन थी। बाग को नाम दिया शहाबाग। लालमहाल में गुणीजनों की आव-भगत होने लगी। आलन्दी-मोरगाँव, सासवड़, पाषण आदि जगह देवस्थानों की देखभाल और दुर्गों की व्यवस्था भी आस्था और ममता से होने लगी। उपद्रव कम हो गया और चोर-लुटेरों का भय खत्म हुआ। न्यायदान भी समुचित ढंग से होने लगा।

आदिलशाही फौज ने पुणे परिसर को रौंद डाला था। पर अब भाग्य ने करवट ली थी। जिजाऊसाहब के सुघड़ हाथ उसे सँवारने लगे थे। इस छोटी सी जागीर का कारोबार शिवाजी राजे के नाम से शुरू हुआ। सहायक थे पन्त दादाजी कोंडदेव। उजड़े हुए परिसर को फिर से बसाने के लिए उन्होंने लोगों का हौसला बढ़ाया। खेती की पैदावार बढ़ाने के लिए जरूरतमन्दों को हल, बैल, बीज आदि सभी तरह की सहायता की। पर पैसा वह किसी को नहीं देते। उन्हें मालूम था कि पैसा हाथ में आने पर काश्तकार उन्हें व्यर्थ की बातों पर खर्च कर देते हैं। किसान जिद से, शौक से काम में लग गए। शुरुआत पुणे में ही बड़ी शान से हुई। जहाँ बादशाही ने गधे का हल चलाया था, वहीं पर। शिवाजी राजे ने सोने के फाल वाले हल से चार गज जमीन जोती। खेतिहर किसानों का हौसला बढ़ाने का कितना बेमिसाल तरीका। सबके मन में यह विश्वास समा गया कि राजे के राज्य में सब को रोजी-रोटी मिलेगी। मिट्टी सोना उगलेगी।

पुणे जिले में बाघ, लोमड़ी, सियार आदि जंगली जानवरों ने उत्पात मचाया था। लोगों ने स्वयंफूर्ति से उन्हें मार डाला। छोटे-मोटे बाँध बँध गए। इंसाफ का काम खुद जिजाऊसाहब ने हाथ में लिया। चोर-डाकुओं का खतरा कम होने लगा। गाँव आबाद हुए। खेतों में फसलें उगने लगीं। पहले भूखे, नंगे किसान को शाही फौजों की लातें खानी पड़ती थीं। पर अब उसे शिवाजी राजे का वत्सल सहारा मिला था। मेहनत से उसका पेट भरने लगा। मन्दिरों में अक्षयदीप जलने लगे। घरों में बहू-बेटियों, गो-शालाओं में गाय-बछड़े और गाँव के आँचल में खेती निर्भय थी। सभी को स्वराज्य की सुख-सुविधाएँ मिलने लगीं। शिवाजी राजे के हाथ में पुणे जागीर का लगान वसूलने के अधिकार थे। लेकिन उन्होंने सहृदयता से उसे सजाया, सँवारा। इस काम में सभी ने उनका साथ दिया। क्या स्वराज्य और क्या गृहस्थी, दोनों शौक से ही सँवारी जाती है। जिसे यह शौक न हो, उसे न राज्य करना चाहिए, न गृहस्थी ही बसानी चाहिए।

शिवाजी राजे ने भक्तिभाव से धरतीमाता की पूजा की। किसान ने मन लगाकर उसकी सेवा की और धरतीमाता प्रसन्न हो उठी। मिट्टी सोना उगलने लगी। सालों-साल भूखे पेट बेगार करने वाला किसान शान्ति के साथ रोटी खाने लगा। चोर, लुटेरों, डाकुओं से प्रजा की रक्षा करने के लिए दादाजी ने हथियारबन्द पलटन तैयार की। दुःखों की मारी जनता जिजाऊसाहब एवं पन्त की छत्रछाया में हुलस पड़ी।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ 
9- शिवाजी ‘महाराज’ : “करे खाने को मोहताज… कहे तुका, भगवन्! अब तो नींद से जागो”
8- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवबा ने सूरज, सूरज ने शिवबा को देखा…पता नहीं कौन चकाचौंध हुआ
7- शिवाजी ‘महाराज’ : रात के अंधियारे में शिवाजी का जन्म…. क्रान्ति हमेशा अँधेरे से अंकुरित होती है
6- शिवाजी ‘महाराज’ : मन की सनक और सुल्तान ने जिजाऊ साहब का मायका उजाड़ डाला
5- शिवाजी ‘महाराज’ : …जब एक हाथी के कारण रिश्तों में कभी न पटने वाली दरार आ गई
4- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठाओं को ख्याल भी नहीं था कि उनकी बगावत से सल्तनतें ढह जाएँगी
3- शिवाजी ‘महाराज’ : महज पखवाड़े भर की लड़ाई और मराठों का सूरमा राजा, पठाणों का मातहत हुआ
2- शिवाजी ‘महाराज’ : आक्रान्ताओं से पहले….. दुग्धधवल चाँदनी में नहाती थी महाराष्ट्र की राज्यश्री!
1- शिवाजी ‘महाराज’ : किहाँ किहाँ का प्रथम मधुर स्वर….

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Neelesh Dwivedi

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