‘अड़सठ तीरथ इस घट भीतर’

संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 29/1/2022

वहाँ इतना अँधेरा था कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। इतना कि न नीचे ज़मीन दिख रही थी और न आसमान ऊपर। जब गर्दन घुमाई टेढ़ी करके, एक मौन हर तरफ व्याप्त था। दूर कहीं उजाला था तो कुछ चिंगारियाँ फुनगीनुमा थीं जो उस राख में से फुदक कर उछल पड़ती थीं। यह सब उस भीड़ से बहुत दूर था, जिसके पास हमेशा इस राख और इन चिंगारियों का भय व्याप्त रहता था। इस कटु सत्य को जानते सब थे, मानना कोई नहीं चाहता था। 

रात में पेड़ आसमान की ओर दौड़ने को बेताब रहते। छोटे पौधे इन विशाल वृक्षों के सायों से लिपटकर शरण पाते और झींगुर ख़ौफ़ में भिनभिनाते हुए घूमते रहते। पक्षी पेड़ों की डालियों पर बेसुध पड़े रहते और रेंगने वाले कीड़े-मकोड़े इतने स्तब्ध रहते कि एक हलचल समूची पृथ्वी को ख़त्म कर देगी। हर तरफ एक उद्दंड किस्म की व्यग्रता भरी बेचैनी थी। 

नदियों का बहना रुक जाता। प्रचंड गर्जना करने वाला समुन्दर कोलाहल अपनी छाती में छुपा लेता। कुएँ, तालाब, बावड़ियाँ और पनघट रीत जाते। और इनके किनारे बैठे प्यासे मुसाफ़िर पथराई आँखों से सब देखा करते। पर जीभ को जैसे लकवा मार गया हो। जड़ हो चुकी मेधा की गठरी का बोझ लिए अपने ही अस्तित्व पर वे सवाल करते। जीवन इतना निस्पृह हो चुका था कि अब वाक् शक्ति का कभी कोई अर्थ रहा होगा, विश्वास नहीं होता था। श्रवण और घ्राण शक्ति कभी सभ्यता में रही हो, यह मुद्दा शक के निशाने पर होता। 

यह वो जगह थी, जहाँ सब शीश झुकाकर आते हैं। एक गहरे अवसाद, सन्ताप और पीड़ा में। धू-धू जलती काया को देख अपने होने या न होने की और वैराग्य की प्रबल भावना जितने उद्दाम वेग से चढ़ती है, उससे दुगुने वेग से उतरती है। और क्षणभर में इससे निकली भीड़ पुनः मधुमक्खी के छत्तों से बिखरी मधुमक्खियों की तरह संसार में अमृत की एक बून्द समेटने में लग जाती है। 

मैं हर रोज यहाँ आता हूँ। सगुण को निर्गुण में बदलने में देखने के लिए। देर रात तक यहीं रहता हूँ। ज़र्द उदास चेहरों की भंगिमाओं को बाँचने का कुत्सित प्रयास करता हूँ। फिर लगता है, इन मुखौटों के पीछे की गहराई क्या है? सच्चाई क्या है? शुभिताएँ क्या हैं? शुचिताएँ क्या हैं? सुन्न हो जाता है शरीर, यह सोचकर कि ये सब न सगुण है, न निर्गुण और जो है वह घृणास्पद है। 

भीड़ से भागकर अपने एकांत की अकुलाहट में मैं यहाँ आता हूँ। पर इस श्मशान में जो अवागर्द भीड़ हर रोज हुज़ूम में आती है। मौत की अन्तिम रस्म अदायगी का पाखंड भिन्न-भिन्न तरीकों से करके लौटती है। उसे देखकर लगता है, ये सब मौन हैं और भीड़ में रहकर सब भूल गए हैं। इन्हें पता ही नहीं है कि ये हर बार यहाँ आते हैं। 

इन्हें मैं अपना एकांत नहीं समझा सकता। क्योंकि मेरा एकांत, मेरी अकुलाहट, एक श्रम साध्य और जटिल परिस्थिति से उपजा है। कठोर परिश्रम से इसे मैंने किसी सुख की तरह हासिल किया है। और आप कहें कि मैं भीड़ में इसे वर्णित कर समझाने का प्रयास करूँ तो वह शव साधना की कसौटी के भी ऊपर की बात है, जो किसी अघोरी के लिए भी सम्भव न होगा। 

हम सब अकेले हैं पर अपने एकांत को दूसरे को नहीं समझा सकते और न ही एक-दूसरे से वरण कर सकते हैं। एकांत एक भोग भी है, जो यहीं भोगना है। 

अपने एकांत को जतन से सम्हालकर रखना ही सच्ची साधना है जो अंततः सुयश की ओर अग्रसर करेगा। 

मछन्दरनाथ कहते है, ‘अड़सठ तीरथ, इस घट भीतर।’
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 44वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं : 
43. ठन, ठन, ठन, ठन, ठन – थक गया हूँ और शोर बढ़ रहा है
42. अपने हिस्से न आसमान है और न धरती
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला! 

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