टीम डायरी
बात समझ नहीं आती। हम इंसान जानवरों से भी स्नेह का व्यवहार रखने की बातें खूब किया करते हैं। कुछ ख़ास-ओ-आम जन तो जानवरों के साथ अपने स्नेहिल सम्बन्धों के वीडियो बना-बनाकर भी मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रसारित करते रहते हैं। इसके बावज़ूद जानवरों को ‘क्रूर’ प्रयोगों का माध्यम भी हमारी ही नस्ल बनाती है। क्यों? प्रयोगों को ‘क्रूर’ लिखने की वजह ये है कि जब उन पर प्रयोग शुरू होते हैं, तो शुरुआती तौर पर तय की गई सीमाएँ जल्द ही टूटने लगती हैं। उन सीमाओं पर इंसानों का लोभ-मोह हावी होने लगता है। अब मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान में चल रहे प्रयोग को ही ले लीजिए। चीता को हिन्दुस्तान में फिर से बसाने का यहाँ प्रयोग चल रहा है। शुरू अच्छे मक़सद से हुआ। लेकिन इसके नतीज़े अब चिन्ताजनक सामने आने लगे हैं।
अभी दो दिन पहले, नौ मई को कूनो से ख़बर आई कि वहाँ ‘दक्षा’ नाम की एक मादा चीता की मौत हो गई। क्योंकि उसे दो नर चीतों के साथ बड़े बाड़े में छोड़ा गया था। ताकि उनके साथ प्रजनन कर वह प्रजाति को बढ़ा सके। लेकिन वहाँ वह आपसी संघर्ष का शिकार हो गई। हालाँकि यह पहली मौत नहीं है। इससे पहले कूनो में ही एक नर और एक अन्य मादा चीता संक्रमण का शिकार होकर जान गँवा चुकी हैं। यही नहीं, बीते दिनों मीडिया और सोशल मीडिया में, कुछ बेहद सीमित जगहों पर, एक वीडियो आया था। हालाँकि किन्हीं-किन्हीं कारणों से वह वीडियो बहुत जल्द ग़ायब भी हो गया। उसमें फिल्मी अन्दाज़ में हैलीकॉप्टर पर बैठे निशानेबाज़ भागते हुए नर चीते ‘पवन’ का पीछा करते दिखे थे। निशाना साधे हुए। ताकि उसे बेहोश कर वापस कूनो की सीमा में ले आया जाए।
कूनो के खुले जंगल में छोड़ा गया ‘पवन’ लगातार दूसरी बार वहाँ की सीमा से बाहर निकला था। और दोनों ही बार उसे इसी तरह दौड़ा-दौड़ाकर बेहोश किया गया। फिर वापस लाया गया। दूसरी बार तो फिर उसे बड़े बाड़े में बन्द ही कर दिया गया। यहाँ विशेषज्ञों ने यह भी ध्यान नहीं रखा कि बेहोश करने की ऐसी प्रक्रिया के दौरान नई आब-ओ-हवा, नए वातावरण, नए मौसम में ढलने की कोशिश कर रहे पवन की सेहत को ख़तरा हो सकता था। उसकी जान पर भी बन आ सकती थी। बहरहाल, इन्हीं घटनाओं के बीच कुछ अख़बारों ने तस्वीर का एक दूसरा चिन्ताजनक पहलू दिखाया। उसके मुताबिक, कूनो में नामीबिया और दक्षिण अफ्रीका से 20 चीते लाकर रख दिए गए हैं। जबकि वहाँ 750 वर्गकिलोमीटर के जंगली इलाक़े में अधिकतम आठ चीते रह सकते हैं। एक चीते को लगभग 100 वर्गकिलोमीटर के सघन घास वाले इलाक़े की ज़रूरत होती है, ऐसा बताते हैं।
इनमें तीन चीतों की मौत के बाद भी अभी वहाँ चार नवजातों को मिलाकर 21 चीते हैं। यहाँ उल्लेख करना होगा कि ‘सियाया’ नाम की एक मादा चीता ने कूनो में ही चार बच्चों को जन्म भी दिया है। हालाँकि जन्म के बाद की एक तस्वीर के बाद उनके बारे में अब तक कोई नई जानकारी सामने नहीं आई है। वन्यप्राणी विशेषज्ञों ने ख़बरों में बताया है कि मध्यप्रदेश के ही नौरादेही और गाँधीसागर तथा राजस्थान के मुकुन्दरा में भी चीतों को बसाने के लिए उपयुक्त माना गया है। मगर उन तीनों जगहों पर अब तक तैयारियाँ ही पूरी नहीं हुई हैं। तो फिर सवाल अब ये है कि क्या तब तक इन निरीह जानवरों को यूँ ही भगवान भरोसे रखा जाएगा? ऐसे कि बच गए तो ठीक नहीं तो…?
वैसे, निरीह जानवरों के साथ प्रयोगों का यह कोई इक़लौता मसला नहीं है। बरसों-बरस से हम ये सुनते ही आए हैं कि कभी चूहों पर प्रयोग किए जा रहे हैं। तो कभी सुअरों, कुत्तों, बन्दरों, आदि पर। मिसाल के तौर पर नवम्बर 1957 का एक मामला है। ख़ूब चर्चित हुआ था। तब ‘लाइका’ नाम की एक कुतिया को सोवियत संघ के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने चाँद पर भेजने की कोशिश की। बेचारी बीच रास्ते में ही अंतरिक्ष की बढ़ती गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पाई और दम तोड़ दिया। जानवरों पर हुए ऐसे ‘अमानवीय, संवेदनहीन प्रयोगों’ के अनगिनत मामले हैं। अनगिनत मामले ऐसे भी हैं जब कुछ ‘इंसानों’ की भीड़ ने किसी निरीह जानवर को पीट-पीटकर मार डाला।
यक़ीन जानिए, इन मामलों को देख-सुनकर हर एक संवदेनशील मन यही कामना करता होगा कि “भगवान किसी निरीह जानवर पर इंसानों के ऐसे प्रयोग न कराएँ। या फिर ऐसे भी कह लें कि किसी निरीह जानवर के साथ ऐसा इंसानों जैसा बर्ताव न कराएँ।” और हाँ, ध्यान रखिएगा कि इंसानों की तुलना में जानवर निरीह ही होता है। भले वह कथित हिंसक जानवर ही क्यों न हो? क्योंकि कोई भी जानवर इंसानों की तरह बेवजह हिंसा नहीं करता। सिर्फ़ भूख लगने पर पेट भरने के लिए ही किसी को मारता है। या फिर कभी भय या असुरक्षा के भाव से, बस। सो, विचारणीय तथ्य ये है कि क्या हम इंसान ऐसे कई मायनों में जानवरों से भी बदतर हो चुके हैं?
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