एक पल का यूँ आना और ढाढ़स बँधाते हुए उसी में विलीन हो जाना, कितना विचित्र है न?

संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 12/2/2022

एक पल स्थिर हो जाना, एक पल ठहर जाना। एक पल की खुशी, एक पल के दुख में जीवन खपा देना। एक पल के इंतज़ार की पीड़ा, एक पल की मुलाकात। एक पल ठिठुरना, एक पल की मुस्कुराहट। एक पल का साथ, एक पल में सब कुछ छोड़कर गुजर जाना। एक पल में विलोपित हो जाना और एक पल में ख़त्म हो जाना। और इस एक पल का यूँ आना और ढाढ़स बँधाते हुए उसी पल में विलीन हो जाना कितना विचित्र है न? 

एक दिन पानी आता है और एक दिन नहीं। जिस दिन नहीं आता, उस दिन नींद जल्दी टूट जाती है। लगता है, अब क्या करूँ? पानी नहीं आएगा आज तो? कुछ दोस्त रोज मिलते हैं, कुछ हफ्तों में, कुछ महीनों में, कुछ बरसों में और कुछ एक बार ही मिले और कुछ सम्भवतः मिल भी नही पाएँगे। और हम पानी आने के इन्तज़ार की तरह जल्दी जाग जाएँगे और पूछेंगे अपने आप से कि अब क्या करना है? 

पपीते के कितनी बार पौधे लगाए। फल नहीं आए। मीठी नीम का पौधा पनप ही नहीं पाया। तुलसी दल नहीं पनपा। गुलाब फूल आने के पहले ही काँटों में घिर गया। महुआ नहीं लगा, मधुमालती, रातरानी, चम्पा, शिउली, मोगरा, सप्तवर्णी या गेंदा भी नहीं पनप पाया। एक बरगद को बोनसाई बनाकर रखा है। जकड़ रखा है, एक गमले में। पिछले 10 बरसों से जड़ें फ़ैली हैं। तना मोटा हो गया है पर “द लास्ट लीफ” की तरह दो से ज्यादा पत्तियाँ कभी नहीं टिकतीं। लगता है, ठीक जीवन की तरह हैं ये सब भी। सुखाधिकार से वंचित और मन बहलाने को सिर्फ़ दो पत्तियाँ कृत्रिम सी, जो जीवित होने का हौसला देती हैं। 

जो हरा भरा है, वह गुलमोहर है, जो अब सड़ांध का दर्द भुगत रहा है। नीचे से दीमक लग गई है। अन्दर ही अन्दर खोखला हो गया है और अपने सामने से अनगिनत यात्राओं को ख़त्म होते देख रहा है। जब भी राम धुन में कोई आप्त स्वरों में अंतिम यात्रा गुजरती है, तो अदब से झुककर अपनी सारी पत्तियाँ बिखेर देता है। कि जाने वाले की आत्मा के पैरों में पत्थरों के दर्द न उभरें, छाले न पड़ें और फिर कई दिनों तक इसकी शाख पर कोई चिड़िया या धनराज, दुबराज या कोई तितली नहीं फटकती। 

आसमान में अब भी कारे बादल आ जाते हैं। खूब भरे-भरे से। लगता है, सब कुछ बहा देंगे और सब कुछ तर कर देंगे। पर नहीं होता कुछ भी। उद्दाम वेग से भरे मेघ हों, समुद्र की प्रचण्ड गर्जना या जीवन की उद्दंड आशाएँ। सब कुछ अपने पीछे एक सघन नैराश्य छोड़कर जाती हैं। जैसे बवंडर के बाद धूल आँखों में किर्ची बनकर चुभती है, वैसे ही हर पल गुजर जाने के बाद जीवन बोझ लगने लगता है। किसी को जीने का मक़सद ही मौत लगने लगे और स्वार्थ और अभिलाषाएँ छोड़कर विमुक्त हो जाए कोई। उद्देश्यहीन सा भटकाव और मशीनीकृत हो जाएँ रोज के निर्वाह तो कैसे जिए? मुझे नर्मदा आन्दोलन में महाराष्ट्र में गाए जाने वाला गीत याद आता है “बाई मी धरणं-धरणं बाँधते, माझं मरण-मरण काढ़ते” कितना सुरीला गीत था। पर वह जीवन के इस उत्तरार्ध में हक़ीक़त बनकर चौबीसों घंटे गुंजायमान होगा कानों में, सोचा नहीं था। 

कुछ करने और कुछ नहीं करने से भी कुछ नहीं होता और सब कुछ हो जाता है। एक पीला ज़र्द पत्ता, एक सूखी हुई बूँद और जले हुए तिनके की राख सब कुछ कह देती है। हम सब अभिशप्त हैं जीने को। मरने का जानते हैं और मर-मर कर ही जीते हैं रोज। सोते समय बेसुध होकर भूल जाते हैं कि वो शायद नींद में दबोच ले या कल भोर के सूरज के साथ सात घोड़ों पर सवार होकर आए लेने। और दिन के किसी प्रहर कोई कहे अभी तो ठीक थे, यहीं थे, साथ थे और उफ़्फ़! 
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 46वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं : 
45.मौत तुझसे वादा है…. एक दिन मिलूँगा जल्द ही
44.‘अड़सठ तीरथ इस घट भीतर’
43. ठन, ठन, ठन, ठन, ठन – थक गया हूँ और शोर बढ़ रहा है
42. अपने हिस्से न आसमान है और न धरती
41. …पर क्या इससे उकताकर जीना छोड़ देंगे?
40. अपनी लड़ाई की हार जीत हमें ही स्वर्ण अक्षरों में लिखनी है
39. हम सब बेहद तकलीफ में है ज़रूर, पर रास्ते खुल रहे हैं
38 जीवन इसी का नाम है, ख़तरों और सुरक्षित घेरे के बीच से निकलकर पार हो जाना
37. जीवन में हमें ग़लत साबित करने वाले बहुत मिलेंगे, पर हम हमेशा ग़लत नहीं होते
36 : ऊँचाईयाँ नीचे देखने से मना करती हैं
35.: स्मृतियों के जंगल मे यादें कभी नहीं मरतीं
34 : विचित्र हैं हम.. जाना भीतर है और चलते बाहर हैं, दबे पाँव
33 : किसी के भी अतीत में जाएँगे तो कीचड़ के सिवा कुछ नहीं मिलेगा
32 : आधा-अधूरा रह जाना एक सच्चाई है, वह भी दर्शनीय हो सकती है
31 : लगातार भारहीन होते जाना ही जीवन है
30 : महामारी सिर्फ वह नहीं जो दिखाई दे रही है!
29 : देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…
28 : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27 :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26 : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25 : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24 : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23 : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22 : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21 : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20 : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19 : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18 : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17 : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16 : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15 : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14 : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13 : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12 : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11 : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10 : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
9 : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
8 : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
7 : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
6. आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
5. ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
4. रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
3. काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
2. जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
1. किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला! 

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