‘संस्कृत की संस्कृति’ : मिलते-जुलते शब्दों का अर्थ महज उच्चारण भेद से कैसे बदलता है!

अनुज राज पाठक, दिल्ली

उच्चारण के महत्त्व को दर्शाता उदाहरण हमने पिछली कड़ी में देखा था कि एक अच्छे पाठक, वक्ता को उसी तरह शब्दों का उच्चारण करना चाहिए जैसे कोई बाघिन अपने शावक को दाँतों में दबाकर चलती है। अब आगे।

हम सामान्यत: बोलते हैं, लेकिन अपने उच्चारण पर ध्यान नहीं देते शुद्ध-अशुद्ध जैसा भी उच्चारण हो जाए, कर लेते हैं। लेकिन आचार्यों ने पाठ करते समय होने वाले दोषों को संख्या 20 बताई है। है न आश्चर्य की बात? कितना विशद् अनुसन्धान किया होगा! और हमारे आचार्य प्रत्येक दोष के निवारण के लिए प्रयास करते भी दिखाई देते हैं। इसी प्रयास में वे उत्तम पाठक और अधम पाठक का विभाजन कर देते हैं। जिससे कि प्रत्येक पाठक उत्तम पाठक बन सके।

आचार्यों के इन प्रयासों को हमने वेदों के भाग वेदांगो में ‘शिक्षा’ नामक वेदांग के वैशिष्ट्य के माध्यम से जानने का प्रयास किया। निश्चित रूप से ‘शिक्षा’ वेदांग शिशु के प्रारम्भिक भाषा सीखने में उसके उच्चारण कौशल को बेहतर बनाने में सहायक है। जब बालक उच्चारण के महत्त्व को समझ और सीख जाएगा, तब वह वेद पढ़ने में कुशलता प्राप्त करने के लिए सक्षम होगा। अन्यथा जैसा पहले बताया गया कि स्वर दोष के अपराध से वृत्रासुर स्वयं इन्द्र के हाथों मारा गया, वैसे ही अशुद्ध उच्चारण व्यक्ति के अहित का कारण बनता रहेगा।

यही नहीं, ‘शिक्षा’ वेदांग ‘व्याकरण’ नामक वेदांग के पूर्व पाठ्यक्रम की तरह भी व्यवहार करता दिखाई देता है। इस सम्बन्ध में एक सुन्दर श्लोक है। इसमें व्याकरण पढ़ने के महत्त्व को बताया गया है। श्लोक के अनुसार व्याकरण पढ़ने से लाभ यह है कि व्यक्ति अशुद्ध अक्षर के उच्चारण से अर्थ में होने वाले परिवर्तन को समझ पाए। वास्तव में यहाँ केवल शुद्ध-अशुद्ध उच्चारण नहीं, अपितु सन्दर्भ अनुकूल अर्थ को समझ सकने की सामर्थ्य विकसित करने की बात है।

इस श्लोक में लेखक अपने पुत्र से कहता है, “यद्यपि बहुत नहीं पढ़ सकते हो तो व्याकरण तो पढ़ ही लो”- 

“यद्यपि बहुनाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनः श्वजनः मा भूत् सकलः शकलः सकृत्छकृत्।।’ 

अब इस श्लोक में दिए शब्दों के अर्थ देखिए। जैसे –

स्वजन – सम्बन्धी
श्वजन – कुत्ता

सकल – सम्पूर्ण
शकल – खण्ड

सकृत् – एक बार
शकृत् – विष्ठा

इस प्रकार शब्दों का अर्थ स्पष्ट हो सके, इसलिए व्याकरण पढ़ने का निर्देश दिया जा रहा है। यहाँ शिक्षा और व्याकरण दोनों अपनी अपनी पद्धति से भाषा की शुद्धता के लिए प्रयास करते दिखाई देते हैं। दोनों का एक प्रयास है कि पाठक, अध्येता में शुद्ध भाषा की समझ विकसित हो।

सो, अब आगे हम भाषा विकास के क्रम में ‘व्याकरण’ नामक वेदांग के योगदान के विषय में जानेंगे।
—— 
(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ 

6- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘अच्छा पाठक’ और ‘अधम पाठक’ किसे कहा गया है और क्यों?
5- संस्कृत की संस्कृति : वर्ण यानी अक्षर आखिर पैदा कैसे होते हैं, कभी सोचा है? ज़वाब पढ़िए!
4- दूषित वाणी वक्ता का विनाश कर देती है….., समझिए कैसे!
3- ‘शिक्षा’ वेदांग की नाक होती है, और नाक न हो तो?
2- संस्कृत एक तकनीक है, एक पद्धति है, एक प्रक्रिया है…!
1. श्रावणी पूर्णिमा को ही ‘विश्व संस्कृत दिवस’ क्यों?

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