भारतीय परम्परागत अर्थशास्त्र और आधुनिक सोच वाले इकॉनमिक्स में क्या फ़र्क है?

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश

उपनिवेशी भड़िहाई – 3

जिस तरह धर्म का शास्त्र, काम का शास्त्र और मोक्ष का शास्त्र होता है, वैसे ही हमारी भारतीय परम्परा में अर्थ का शास्त्र भी रहा है। धर्म, काम और मोक्ष के साथ अर्थ को मानव जन्म का पुरुषार्थ कहा गया है। लेकिन आधुनिक मानव चित्त, उपनिवेशवाद की सफलता और दुरभिसंधियों की उपज है। इस युगतंत्र या विश्वव्यवस्था की ताक़त इकॉनमिक्स कहे जाने वाले नीतिरहित अर्थतंत्र और तकनीकी प्रगति में है। और इस बाबत इन दिनों चर्चा जोरों पर है कि प्रगति से हुआ विकास गड़बड़ा गया है। कोई कहता है ‘पगला गया’ है। सो, इसी सन्दर्भ को लेते हुए पारम्परिक अर्थशास्त्र और आधुनिक इकॉनमिक का विश्लेषण करती एक नज़र … 

पहले  आधुनिक इकॉनमिक्स : 

आधुनिक इकानॉमिक्स का वास्तविक उत्स उपनिवेशी अधिशेष में है। भड़िहाई (चोरी) कर पेट पालने वाले उपनिवेशकारी एक अलग सांस्कृतिक बोध से आते हैं। लूटतंत्र आधारित उनके सियासी, सामाजिक और मज़हबी ख़्यालात के लिए भारतीय संस्कृति की लोकोत्तर नैतिकता आश्चर्य का विषय रही है। उदाहरण – टॉलेमी, मेगेस्थनीज़, अलेक्ज़ेंडर से लेकर इब्नबतूता, बाबर और क्लाईव तक हर किसी ने ऐसी घटनाओं को देखा। अचरज किया।

आधुनिक मानवता मूलत: नीतिरहित भोगवाद का नाच है। यहाँ प्रकृति के अनावश्यक विनाश का कोई दंड नहीं। इसलिए भी नहीं कि उपनिवेशी मज़हब सारी क़ायनात को जाइज़ भोग मानते हैं, जिसे किसी आसमानी हस्ती ने अपने संविधान में क़ायम कर दिया है। यह दर्शन उनके प्रचार-प्रसार का सबसे बड़ा हथकंडा बनता है।

समसामयिक विश्वव्यस्था और इकॉनमिक्स की उपज उपनिवेशी साम्राज्य की लूट से नवसम्पन्न और मदांध हुए यूरोप के राज्यों के संघर्षों में थी। इसे विश्वयुद्ध का एक सम्मानजनक नाम नवाजा गया। नैतिक विभ्रम का आलम यह कि मेनस्ट्रीम नैरेटिव एक तरफ उपनिवेशकारियों को महान योद्धा, रणनीतिकार या प्रशासक समझता है, तो दूसरी तरफ उन्हीं लोगों को बर्बर, निर्दय लुटेरों की हरक़तों को भी दबे स्वर में स्वीकार करता है।

उपनिवेशी लूट से उपजी सम्पन्नता के कारण मुद्राओं के विनिमय के लिए स्वर्ण की भूमिका कमज़ोर थी। किन्तु फिर भी सोने सहित प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न कई देश थे और उनके साथ थी उपनिवेशी काल में हासिल की गई ताक़त के आधार पर गुलाम रहे देशों पर वर्चस्व बनाए रखने की कामना। यह ठीक गुलामी प्रथा जैसी थी, जो किसी परजीवी की तरह बिना श्रम किए पोषित होना चाहती थी। परिणामस्वरूप ब्रेटन वुड्स सन्धि ने डॉलर को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में मान्य कर उसके संगी साथी देशों को अन्य गुलाम देशों पर अप्रत्याशित बढ़त दे दी।

भड़िहा (चोर) उपनिवेशकारियों की छिपी ताक़त उनके शैक्षणिक संस्थान भी रहे। वे स्थानीय देशज भाषा, संस्कृति और पारम्परिक मूल्य आधारित ज्ञानतंत्रों की जड़ें खोदने में लगे रहे। उन्हें ग़ुलाम देशों से ही चयनित एक लाेलुप संकरित वर्ग तैयार कर उसे इन देशों में नेतृत्त्व शीर्ष पर स्थापित करना था, जो किया भी। इस तरह, अभाव, उपनिवेशी भोगों की चकाचौंध, ताक़त और मानसिक विभ्रम की स्थिति में यह दुभाषिए और दलाल पेशा सबसे लोकप्रिय हो गए। ग़ुलाम देशों में यही वर्ग मध्यवर्ग का जनक हुआ। इसलिए उपनिवेशक और उपनिवेशित देशों के मध्यवर्ग पहचान और चरित्र के स्तर पर नितान्त अलग और विरोधी मूल्यों के प्रतीक हैं।

अब बात भारतीय पारम्परिक अर्थशास्त्र की :

भारतीय पारम्परिक अवधारणा कहती है कि अर्थ यदि मानव जीवन का पुरुषार्थ है तो अर्थशास्त्र यथार्थ में अर्थ प्राप्ति के नैतिक नियमन हैं। यह नियमन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र से बनी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के चतुराश्रम की सीमाओं में रेखांकित होता है।

हर मनुष्य देव, ऋषि, पितृ और जीवों के अवदानों के ऋण से बद्ध है। आप्तजन इस कृतज्ञता को ही धर्म का मूल बताते हैं। अपने वर्णाश्रम प्रदत्त कर्त्तव्य कर्म का पालन कर वह इन ऋणों से मुक्त हो सकता है। सनातन परम्परा के प्राचीनतम पूजा विधान इन्हीं भावों को लेकर किए जाने वाले कर्मकांड है।

हर जीव कर्त्तव्य और ऋण की कड़ी से दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है। इस कड़ी का एक छोर जीव तो दूसरा ब्रह्म है। उत्तर मीमांसा, योग और सांख्य जीव की अहन्ता और उससे परे अस्तित्त्वपरक और परम तत्त्व ब्रह्म की दृष्टि से इसे समझने का प्रयास करते हैं। तो पूर्व मीमांसा यथार्थ को कर्म सम्बन्धों की दृष्टि से देखता है। यह कर्म की कड़ियों का सम्बन्ध और प्रभाव में उनकी कर्म प्रधानता की समझ है।

भारतीय अर्थशास्त्र के प्राचीन संकलक और अप्रतिम टीकाकार आचार्य कौटिल्य प्रणीत अर्थशास्त्र पढ़ने लायक है। उसमें यह बात स्पष्ट है कि धर्मशास्त्र वर्णित आचार-विचार, काम और मोक्ष शास्त्र के चिन्तन से परिपक्व हुई अर्थनीति किस तरह व्यक्ति और समाज के साथ समग्र सृष्टि के जीव-जन्तुओं के सन्तुलित और न्यायपूर्ण अस्तित्त्व के लिए अपरिहार्य है। आचार्य ने अपनी नीति में जीव, जन्तु, वृक्ष, नदी, पर्वतों को अनावश्यक हानि पहुँचाने के लिए कठोर दंड का विधान किया है। उदाहरण के लिए गाय के बछड़े को यथा आवश्यक दूध न पिलाने वाले गोपालक के अँगूठे छाँट देने का विधान दिया गया है।

दुनिया के किसी भूभाग पर ऐसी उन्नत और उदात्त व्यवस्था देखने को नहीं मिलती। भारत और उसके नीति मूल्यों के प्रभाव काल में रहे भूभागों की उत्पादकता आर्थिक समृद्धि, और सम्पन्नता इस बात की साक्षी है। 

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अब इस पृष्ठभूमि में समझें कि प्रगति का छोरा विकास पगला गया है, तो क्यों। वैसे, कोई अन्दरख़ाने से ख़बर लाया है कि प्रगति भी पगली ही थी और उसका छोरा विकास जन्म से ही बौराया हुआ है। हरक़तें शायद अब दिखने लगी हैं। अभी हर शख्स प्रगति के चक्कर में है। और कोई विकास को भी छोड़ने को तैयार नहीं। 

और यह विकास क्या? जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद), जो अब वीभत्स मज़ाक बन गया है। यह ऐसा इन्द्रजाल है, जिसमें आधुनिक इकॉनमिक्स के नज़रिए से सब जाइज़ बताया जाता है। यहाँ हर स्थिति में लाभ ही लाभ दिखाया जाता है। हानि यहाँ दु:ख का लेशमात्र भी आस-पास फटकने नहीं दिया जाता।

कैसे? इस उदाहरण से समझिए कि एक सरकारी महकमे में कोई अफ़सर अपने बच्चों की अमेरिकी विश्वविद्यालय में मुफ्त महँगी शिक्षा दिलाना चाहता है। तो बदले में वह अस्पतालों में ऐसी मशीनों की ख़रीद के आदेश देता है, जिनकी ज़रूरत ही नहीं। लेकिन इसके बावजूद इसमें नुक़सान देखने के बजाय आधुनिक पढ़ा लिखा आदमी कहेगा यह तो आर्थिक विकास का ही हिस्सा है। क्योंकि सरकारी अधिकारी का बेटा उच्च शिक्षा, बड़ा पद और बड़ी आय पाएगा, तो देश की प्रगति में योगदान देगा। मशीन ख़रीदी से उस कम्पनी और उसके फ्रेंचाइजी को और उसके साथ काम करने वाले श्रमिकों को लाभ होगा। सरकार को टैक्स का लाभ होगा। मशीन आने के बाद उसके चलाने और रखरखाव के लिए किसी को नौकरी मिलेगी, उसके परिवार को लाभ होगा। यदि मशीन बन्द हो जाती है, तो वह सुधारी जाएगी। यदि कबाड़ी में बिक जाती है तो उसे रिसाइकिल किया जाएगा। तब भी बहुतों को लाभ ही होगा।

ऐसे ही, यदि कोई अपमिश्रित खाद्य पदार्थ या नकली और घटिया दवा बेचता है, तो जीडीपी की दृष्टि से यह भी फ़ायदेमन्द ही है। क्योंकि उत्पादन में कर्मचारी, शेयर होल्डर्स व विभिन्न हितधारकों को लाभ मिलता है। बिकने पर दुकानदार को लाभ मिलता है। पदार्थ या दवा खाने से भी अर्थव्यवस्था को लाभ है। न खाकर फेंकने पर उसका खाद बनेगा, इसमें भी लाभ है। उसकी जगह कोई दूसरी दवा या सामान खरीदे, तो भी जीडीपी का लाभ है। यदि उस दवा को खाने से लाभ न मिलने पर दूसरे डॉक्टर को कंसल्ट करते हैं, नई दवा लेता है तो भी लाभ।

यही कारण है कि सरकारें शराब, सिगरेट आदि धड़ल्ले से बेचती है। क्योंकि वह हर लिहाज से फ़ायदेमन्द है। शराब पर टैक्स, चखने पर टैक्स, शराब पीने वाले के स्वास्थ्य बिगड़ने पर नए डॉक्टर, अस्पतालों, बीमा कम्पनी को लाभ, दवाओं की ख़रीद पर जीडीपी की वृद्धि। सब जीडीपी के लिहाज़ से फ़ायदेमन्द है।

यानि नीतिविहीन इकॉनमिक्स कह लें, पगलाई प्रगति या बौराया विकास कह लें, जब तक मनुष्य इनके द्वारा प्रदत्त सुविधाओं में रस लेता रहेगा, वह इस भड़ैती को सहने के लिए अभिशप्त होगा। 

शेष, फिर कभी…। 
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(नोट: समीर #अपनीडिजिटलडायरी के साथ शुरुआत से जुड़े हुए हैं। लगातार डायरी के पन्नों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं और भोपाल में नौकरी करते हैं। पढ़ने-लिखने में स्वाभाविक रुचि है।) 
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उपनिवेशी भड़िहाई की पिछली कड़ी  

2-  आज की ‘अहिंसा’ क्या है? और ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ का क्या अर्थ है?
1. चारित्रिक रूप से हर किस्म का उपनिवेशवाद भड़िहाई ही है!

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