टीम डायरी, 3/3/2020
बड़े बुज़ुर्ग पहले जो बातें कहावतों में कह जाया करते थे, उनकी मार दूर तक होती थी। सटीक निशाने पर लगती थी। शायद इसीलिए किसी ने दो पंक्तियों में लिखा है, ‘पुराने लोग अच्छे थे, बाण मारते थे’। ये एक तरह का रूपक है। इस ‘बाण’ में वे तीर तो हैं ही, जो कमान से छूटते थे। वे तीखी कवाहतें भी हैं, जो ज़ुबान से निकलती थीं। हालाँकि वक्त के साथ हमने बुज़ुर्गों को वृद्धाश्रम भेज दिया और उनकी कही बातों को ‘मार्गदर्शक मंडल’ में। यानि वे जगहें, जो होने के बावज़ूद हमारे लिए न होने जैसी हैं। और जिनकी तरफ़ हम बेपरवाह हो चुके हैं।
इसके बावज़ूद, एक ‘रोचक-सोचक’ कहावत प्रासंगिक हो रही है अभी। मध्य प्रदेश के बुन्देलखंड में कभी बड़े बुज़ुर्ग खूब कहा-सुना करते थे इसे। वे कहते थे, ‘झुकन झुकन से जानिए, झुकन झुकन पहचान। तीन जनें जादा (ज़्यादा) झुकें, चीता चोर कमान’। मतलब स्पष्ट है। फिर भी बताते चलते हैं, ‘लोगों के झुकने के अन्दाज से उनके झुकने के पीछे का इरादा पहचाना जा सकता है। मसलन, जो ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही झुक रहा हो तो वह या तो घात लगाकर बैठा चीता होता है या चोर अथवा कमान, जो बस तीर को निशाने पर ले जाने के लिए तैयार है।’
अब इसके कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय से लेकर समाजिक, पारिवारिक, व्यक्तिगत जीवन तक। सबसे प्रासंगिक फिलहाल भारत-चीन मसला। चीन ने भारत की आज़ादी के बाद से आज तक एक भी ऐसा उदाहरण पेश नहीं किया, जब उसने भारतीय व्यवस्था के साथ चालाकी न बरती हो। इतिहास में 1962 की जंग से लेकर अभी हाल ही में लद्दाख के गलवान घाटी में जो हुआ, वहाँ तक अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं, उसकी चालाकी के। यहाँ तक कि मुम्बई में बीते साल 12 अक्टूबर को उसके सूचना-प्रौद्योगिकी के हमलावरों (Hackers) ने हमारी विद्युत आपूर्ति व्यवस्था को निशाना बनाया। इससे शहर कई घंटों ठप सा रहा। अमेरिकी ख़ुफिया एजेन्सियों के हवाले से इस तरह की पुष्ट ख़बरें आई हैं। इसके जरिए चीन ने बताया कि वह कभी, कहीं भी घुसपैठ कर उस व्यवस्था को तबाह कर सकता है। ख़बरों में यह भी बताया गया है कि चीन ने कोरोना महामारी से निपटने के लिए भारत में बनाए जा रहे टीके का नुस्ख़ा चुराने की भी कोशिश की। भले वह इसमें सफल नहीं हुआ। पर उसकी चालाक हरकतों की पुष्टि तो हुई ही। इसके बाद भी लद्दाख से उसकी सेना के ‘पीछे हटने’ या कहें कि ‘झुकने’ पर भारत सरकार भरोसा करती दिखती है। क्योंकि ऐसी सूचनाएँ भी आ रही हैं कि भारत सरकार अब फिर चीन की कम्पनियों पर सख़्ती कम करने वाली है। ताकि वे सामान्य कारोबार कर सकें। बावज़ूद इसके कि ये कम्पनियाँ भी चीन की ‘सरकार के मोहरे’ के तौर पर अक्सर इस्तेमाल की जाती रही हैं। इस रूप में भारतीय कारोबारी और आर्थिक हितों को नुकसान भी पहुँचाती रही हैं।
दूसरा उदारहण। लोकतांत्रिक समाज में चुनाव एक नियमित परम्परा है। इस सन्दर्भ में याद किया जा सकता है, चुनाव के दौरान घर-घर आने और ‘झुक-झुक कर दोहरे’ हो जाने वाले नेताओं को। ये अक्सर ही अपने इस व्यवहार से हमारा मत चुरा ले जाते हैं। इस बात का अहसास हमें तब होता है, जब जीत के बाद ये नेता हम मतदाताओं से ही मुँह मोड़ लेते हैं। बल्कि हमें तुच्छ ही समझने लगते हैं। इसी तरह, कहीं दफ्तर में, आस-पड़ोस में, नाते-रिश्तेदारी के बीच से किसी चेहरे को भी याद किया जा सकता है। ऐसा, जो ज़रूरत से कहीं ज़्यादा ही ‘झुककर’ हम पर या हमारे सामने ही किसी और पर अपना प्रभाव जमाता है। आहिस्ता-आहिस्ता, जब उसे लगता है कि व्यक्ति उसके प्रभाव में आ चुका है, तो उससे अपनी ‘मुनाफा वसूली’ शुरू करने लगता है। फिर मक़सद पूरा होते ही आगे बढ़ जाता है। हम ठगे से वहीं खड़े रह जाते हैं।
सूचना-तकनीक के विस्फोट के इस युग में हमारे साथ ऐसी ठगी रोज-ब-रोज होती है। फिर भी, हम उस पर वैसे ध्यान नहीं देते जिस तरह देना चाहिए। वज़ह? बहुत साधारण सी। हमने अपने बुज़ुर्गों और उनके आशीर्वचनों की छाँव में रहना जो छोड़ दिया है। इसीलिए हम कदम-कदम पर ठोकर खाते हैं। ये ठोकरें हमारे हक़ में बनती भी हैं। क्योंकि हमारे ही बुज़ुर्ग एक जगह यह भी कह गए हैं, ‘जाे न मानें बड़न की सीख, लएँ कटोरा माँगै….’। आख़िरी शब्द शायद ही कोई जोड़ना चाहे। पर लापरवाह रहे, तो जुड़ेगा ही।
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