नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश से
साल 1978 में फारुख़ शेख और स्मिता पाटिल की एक शानदार पिक्चर आई थी, ‘गमन’। उसकी एक ग़ज़ल आज तक लोग गुनगुनाया करते हैं। फिल्म में वह ग़ज़ल एकाध अन्तरा हटाकर ली गई थी। अलबत्ता, शा’इर अख़लाक़ मोहम्मद खान उर्फ़ ‘शहरयार’ साहब की लिखी इस ग़ज़ल के पूरे अल्फ़ाज़ यूँ हैं। ख़ूब चबा-चबाकर पढ़िएगा, मौज़ूँ हैं…
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है,
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है।
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढ़े,
पत्थर की तरह बे-हिस ओ बे-जान सा क्यूँ है।
तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ो,
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है।
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की,
वो ज़ूद-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है।
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में,
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है।
फिर इसी तरह के जज़्बातों को करीब 20 साल बाद (1999 में) गुलज़ार साहब ने ‘सत्या’ फिल्म के लिए कुछ इस तरह लिख दिया, ‘गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है।” ये दो तो आला थीं, पर ऐसी और भी मिसालें हैं। ये मिसालें बताती हैंं, बार-बार याद दिलाती हैं कि हम इंसानों का क़रीब-क़रीब हमेशा ही परेशान रहना, किसी न किसी वजह से दुखी रहना, वक़्त से परे वाली दिक़्क़त हो चुकी है। सब जानते हैं कि सीने में जलन है। सबको पता हैं कि आँखों में तूफान है। सभी को एहसास है कि भेजा शोर करता है। लेकिन क्यूँ? इसका ज़वाब ठीक-ठीक किसी के पास नहीं। है भी तो मन मानता नहीं। हालाँकि बीते दिनों बात की बात में एक सटीक सा ज़वाब मिला भी।
दरअस्ल, अभी इसी अप्रैल महीने की चार तारीख़ की बात है। #अपनीडिजिटलडायरी पर एक लेख लिखा गया, ‘दुखी इंसान की उम्र 10 साल कम हो जाती है….’। इस लेख में दुनिया के सबसे ख़ुशहाल मुल्क़ फिनलैंड की मिसाल देकर बताया गया कि वहाँ के लोगों को ‘पर्याप्तता’ का भान है। ‘पर्याप्तता’ मतलब अंग्रेजी ज़बान में ‘सफीशिएंसी’। यानी फिनलैंड के लोगों को पता है कि इनके लिए कब, कितना और क्या पर्याप्त है। उस हद के नज़दीक पहुँचते ही फिर वे लोग आगे की चाह नहीं करते। रुक जाते हैं। और अपना ध्यान मौज़-मस्ती, संग-संगीत आदि में लगा देते हैं। दूसरे लफ़्ज़ों में कहें तो अपनी ख़ुशी की राह पर निकल जाते हैं। ख़ुश हो लेते हैं।
हालाँकि, इस मिसाल के ज़वाब में ट्विटर पर किसी ने लिखा, “ये भी सच है कि मन को कुछ पर्याप्त नहीं लगता। दिल माँगे मोर बाज़ार की देन है। बाज़ार को ख़ुशी भी बेचनी है।” तो भइया, यही ज़वाब भी है। ‘दिल माँगे मोर… इसीलिए ‘भेजा करे शोर’। इंसान के तमाम दुख, तक़लीफ़ों की जड़ यही है। और जिसे लगता है कि यह आज के बाज़ारवादी दौर की देन है, तो ख़ुद काे ज़रा दुरुस्त कर लीजिए। क्योंकि ऐसा है नहीं। याद कीजिए, भगवान श्रीराम का दौर। उनके पिता दशरथ जी की कौशल्या आदि कई रानियाँ थीं, ऐसा रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है। इन्हीं में एक कैकेयी। उनके ‘दिल ने माँगा मोर’ और श्रीराम को भाई व पत्नी सहित वनवास भुगतना पड़ा। कैकेयी को ख़ुद वैधव्य भोगना पड़ा। पूरे परिवार सहित अयोध्या को 14 साल दुख सहना पड़ा।
ऐसे ही श्रीकृष्ण का दौर। दुर्योधन और उसके पिता धृतराष्ट्र के ‘दिल ने माँगा मोर’ और महाभारत हो गया। सिकन्दर के ‘दिल ने माँगा मोर’। ज़िन्दगी भर तक़लीफ़ें उठाईं, लड़ाईयाँ लड़ीं पर ख़ुश नहीं रह पाया। और बीच रास्ते में तक़लीफ़ झेलते ही भगवान को प्यारा हो गया। ऐसे ही क्रम से याद करते चलिए। वर्तमान तक की अनगिनत नज़ीरें मिलेंगी, जो याद दिलाएँगी कि दरअस्ल इंसान की मूल दिक़्क़त ही यही है, ‘दिल माँगे मोर’। आज का बाज़ारवाद तो इसे सिर्फ़ हवा दे रहा है। और हम उस हवा में सूखे पत्ते की तरह बस उड़े जा रहे हैं। जैसे हमारी यही हैसियत है।
जबकि इसके ठीक उलट प्रकृति की दूसरी कृतियों को देखिए। मसलन- पेड़, पौधे। वे उतना ही ख़ाद-पानी लेते हैं, जितना उनके लिए पर्याप्त है। अतिरिक्त सब बहा देते हैं। जीव-जन्तु, जानवर उतना ही खाते हैं, जितने से उनका बस एक बार पेट भर जाए। अतिरिक्त छोड़ दिया करते हैं। कोई संग्रह नहीं। कोई परिग्रह नहीं। कोई लोभ नहीं। कोई मोह नहीं। बस, पर्याप्त लिया। अतिरिक्त छोड़ा। और आनन्द में विचरण किया। पर इंसान, जिसे ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति कहा जाता है, वह? उसके पास लोभ है और मोह भी। संग्रह है और परिग्रह भी। पास में सिर्फ़ हर पल छूटती काया है। लेकिन हद से अधिक माया है। दिल माँगे मोर, दिल माँगे मोर। इसीलिए तो भाई, ‘भेजा करे शोर।’
सोचिएगा इस पर। बेहद ज़रूरी है। छोड़ पाएँ तो कभी-कभी इस ‘दिल माँगे मोर’ को छोड़कर देखिएगा। ख़ुशी का, आनन्द का आसमान पास में दिखने लगेगा। वरना रोते-पीटते अन्त तो होना ही है।
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