अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 19/8/2022
बड़ा सरल है ‘चोर’ कहना। कहें भी क्यों न, आखिर ‘चोर’ कहने से कुछ-कुछ अपना सा लगता है। किसी को अपने जैसा पाते हैं तो हमें तसल्ली मिलती है। हमारा आत्मविश्वास बढ़ जाता है। तो चोर ही सही।
किसी को ‘बालक’ दिख जाता है। यह भी सही। बड़े से कुछ कहना कठिन है। बालक, वह भी अबोध, उसके सामने कुछ भी कह लो हृदय को सुकून मिलता है। और डर भी नहीं रहता कि हमारे बारे में क्या सोचेगा।
किसी को ‘मित्र’ दिखता है। मित्र भी अच्छा है। अरे अपना ही तो है डर किस बात का। इसी तरह किसी के लिए ‘भाई’ है तो किसी के लिए ‘भगवान’।
बस, यही ‘भगवान‘ होना और मानना कठिन हो जाता है। भगवान से डर लगता है। कहीं पढ़ा था, दार्शनिक कांट, जो जीवन भर नास्तिक रहे। उनसे अन्तिम समय में किसी ने पूछा ईश्वर के बारे में अब क्या सोचते हैं? तब कांट कहते हैं, “मानव में डर बना रहे। मानव मानवीय बना रहे इसके लिए ईश्वर का होना बहुत जरूरी है नहीं तो मानव निरंकुश होकर संसार को नष्ट कर देगा, यह संसार रहने योग्य नहीं रहेगा”। बस, यही ‘भगवान’ है, जिससे व्यक्ति भय से उसकी सर्वसत्ता के कारण नैतिक रह पाता है। अन्यथा, तो मानव अपने बुद्धि कौशल से संसार को नष्ट करने में, समाज को भ्रष्ट करने में कोई कसर न छोड़े।
हालाँकि नास्तिक और आस्तिक में मात्र भय का अन्तर नहीं है। नास्तिक और आस्तिक में मूल अन्तर है। नास्तिक ईश्वर की बनाई दुनिया को मानता है। लेकिन ईश्वर को नहीं। आस्तिक के लिए दुनिया माया है और ईश्वर सत्य। जब ईश्वर के प्रति सच्चा भक्ति भाव होता है तो वह निर्भय हो जाता है। यही निर्भय उसे मजबूत बनाता है और नैतिक भी।
कृष्ण भी इसीलिए ज्यादा लोकप्रिय हुए। हर व्यक्ति जानता है कृष्ण परम-ईश्वर हैं। लेकिन अपने विविध रूपों से विविध पद्धतियों से हमारे बीच हमारी तरह दिखते हुए ही रहते हैं। हमारी तरह कार्य करते दिखाई देते हैं। कृष्ण मित्र, पुत्र, बन्धु, राजा, रणछोड़, कूटनीतिज्ञ हर स्वरूप के हर जगह दिखाई देते हैं। जिसका जैसा मन, वह वैसे भाव से उनकी भक्ति कर लेता है। कृष्ण ही तो विश्व हैं। सब उनमें ही है तो उन्हें कहाँ अन्तर पड़ता है कि कौन मुझे क्या मानकर मेरे पास आया है। उनके लिए तो हम बस उनके हैं जो उनके भाव में बहकर उनके द्वार आए हैं। चाहे सुदामा आएँ, अपनी गरीबी दूर करने हेतु। चाहे दुर्योधन आए, युद्ध जितने के लिए सेना माँगने।
हालाँकि अर्जुन आते हैं, कृष्ण को ही माँगने। और ये जो भाव अर्जुन ने पकड़ा, वही सबसे महत्वपूर्ण है। धन माँगिए, गरीब ही रहेंगे। सेना माँगिए, युद्ध नहीं जीतेंगे। माँगिए तो कृष्ण को ही माँग लीजिए। हे कृष्ण मैं आप का हो जाऊँ, आप मेरे हो जाएँ। बस, इस भाव से हम सब कुछ जीत लेंगे।
यह कृष्ण ही तो हैं, जिन्हें माँगते ही हम युद्ध जीतते हैं। जिन्हें माँगते ही हम वैभव पाते हैं। जिन्हें माँगते ही हम पृथ्वी का स्वर्ग और दैवीय स्वर्ग, सब जीतते हैं। लेकिन ऐसा क्यों? क्योंकि कृष्ण से अलग कुछ ही है कहाँ? जो है, सब कृष्ण है। जब सब कृष्ण तो हम भी कृष्ण। और हम कृष्ण तो जग सुन्दर। मधुराधिपते अखिलम् मधुरम्।
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