प्रतीकात्मक तस्वीर
अनुज राज पाठक, दिल्ली
पर्व धार्मिक और सांस्कृतिक होते हैं। ये समाज की विविध मान्यताओं वा परम्पराओं को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। इसी क्रम में हम बचपन से होली के पर्व को भाईचारे के प्रतीक के तौर कर ‘सुनते’ आए हैं। मैंने यहाँ ‘सुनते’ मात्र का प्रयोग किया है। क्यों? क्योंकि भाईचारे का पर्व सामान्य रूप से तो दिखाई नहीं देता।
दरअसल, कोई भी पर्व समाज के विशिष्ट समूहों द्वारा मनाए जाते हैं। लेकिन एक समाज में अलग-अलग समूह की मान्यताओं व परम्पराओं वाले व्यक्ति एकदम अलग-अलग नहीं रहते। इस कारण कोई सामूहिक कार्य आपसी सहयोग और सौहार्द से ही शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो सकता है। मेरा ख्याल है, इसी सामूहिकता के कारण प्राय: होली जैसे प्राचीन पर्व को धार्मिक भाईचारे की मिसाल के तौर पर प्रस्तुत किया जाने लगा।
इसका एक कारण और भी है। ये कि होली रंगों का पर्व है और रंग किसी बन्द कमरे में खेलने में आनन्द नहीं। दीवाली जैसे पर्व पर पटाखे हम अकेले चला सकते हैं। लेकिन होली पर रंग खेलने का आनन्द सामूहिकता में ही है। निश्चित रूप से इसी सामूहिकता की आड़ में होली को भाईचारे के पर्व के साथ ही हुड़दंग करने के आमंत्रण के पर्व के तौर कर भी प्रचारित किया जाने लगा। यह ठीक नहीं लगता।
वैसे, अगर हम भारतीय समाज के पर्वों का अध्ययन करें तो प्रत्येक पर्व अपनी धार्मिक मान्यताओं को समेटे हुए है। अपने सांस्कृतिक कारणों को समेटे हुए हे। इसलिए जब इन पर्वों को प्रयासपूर्वक दीगर सन्दर्भों में प्रचारित किया जाता है, तो ये पर्व अपने वास्तविक सांस्कृतिक कारणों से विच्छिन्न हाेते हुए प्रतीत होते हैं।
लिहाजा, हमें अपने पर्वों के धार्मिक स्वरूप को तथा उनके वास्तविक कारणों को अक्षुण्य रखना चाहिए। इन्हें इनके मौलिक स्वरूप, सन्दर्भ और प्रसंगों के साथ सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अगली पीढ़ी को सौंपना चाहिए।
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