विजय मनोहर की पुस्तक ‘आधी रात का सच’ से
विजय मनोहर तिवारी की पुस्तक, ‘भोपाल गैस त्रासदी: आधी रात का सच’ से, 21/7/2022
गैस पीड़ित निराश्रित पेंशनभोगी संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष बालकृष्ण नामदेव की कहानी भी दिलचस्प है। जिंदगी किस मोड़ से लाकर कहां छोड़ जाए कौन जानता है। सुनिए नामदेव की कहानी उन्हीं की जुबानी..
मैं 1975 में खुरई से भोपाल आया। तब 17-18 साल उम्र थी। मां बाप का निधन हो चुका था। तीन भाई-बहनों में सबसे छोटा था। एक रिश्तेदार के भरोसे भोपाल की शरण ली। हमीदिया कॉलेज से बीए की पढ़ाई के साथ न्यू मार्केट में सब्जी की दुकान लगाने लगा। तब नगर निगम वाले आए दिन अतिक्रमण हटाने के नाम पर आते और दुकान का सामान उठा ले जाते। आय का कोई दूसरा जरिया नहीं था। इसलिए नगर निगम की कार्रवाई से बड़ी तकलीफ होती। मशहूर कम्युनिस्ट नेत्री कॉमरेड मोहिनीदेवी श्रीवास्तव तब मालवीय नगर में ही रहती थीं। एक बार नगर निगम वालों से मेरा झगड़ा उन्होंने देखा। मेरी दलील थी कि मैं पैसे के लिए कोई गलत काम नहीं कर रहा। अपनी पढ़ाई के लिए सब्जी बेचकर दो पैसे कमा रहा हूं। मैं यहीं से उनके सपंर्क में आया और फिर फुटकर सब्जी वालों के हक के लिए आंदोलन किए। जेल गए।
सामाजिक मुद्दों पर संघर्ष की यही शुरुआत झुग्गी बस्तियों तक लेकर गई। वृद्धों की सामाजिक सुरक्षा पेंशन की समस्याओं को लेकर निराश्रित पेंशनभोगी संघर्ष मोर्चा बनाया। 1984 की गैस त्रासदी बाद के जीवन में एक ऐसा मोड़ लेकर आई कि फिर दूसरी दिशा ही नहीं रही। हमारे मोर्चे का फोकस गैस कांड की प्रभावित निराश्रित महिलाओं पर हुआ, जिनके घर-परिवार नष्ट हो चुके थे। इनकी तादाद काफी थी। इनमें गरीब मजदूर परिवारों की औरतें भी थीं और अच्छे-खासे खाते-पीते घरों की महिलाएं भी। मुख्य समस्या पेंशन, आजीविका के लिए रोजगार और पुनर्वास की थी। सिर छुपाने के लिए गैस राहत कॉलोनी में 26 सौ छोटे-छोटे घर दिए गए। लेकिन हाथों में कोई काम नहीं था। खाने के लाले पड़े तो कई महिलाओं ने ये घर तक बेच डाले। 1991 के बाद पेंशन बंद कर दी गई, जो पहले ही नाम मात्र की थी। 1992 से मृत्यु का पंजीयन बंद कर दिया गया। तीन लाख 61 हजार पीड़ितों के स्वास्थ्य परीक्षण ही नहीं हो सके। आज 25 साल बाद भी इनके संपूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य परीक्षण की दरकार है।
…हम तब से ही हफ्ते में दो बैठकें करते हैं। इन्हीं में निराश्रित महिलाओं के रिकॉर्ड तैयार किए। लेकिन इनके लिए संघर्ष के दौरान हर पायदान पर भ्रष्ट सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता खूब देखी। अफसरों की मनमानी अपनी जगह थी, बाद में तो एक दफा विधानसभा में ही कह दिया गया कि गैस कांड पर बहुत चर्चा हो चुकी है। अब बंद कीजिए। इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति लोकतंत्र में और क्या हो सकती हैं? सबने इसे सिर्फ मुआवजे की लड़ाई समझा। जबकि ऐसा नहीं था। हम हर साल विधानसभा के सभी सत्रों के समय विरोध प्रदर्शन करते। कल्याण आयुक्त के कार्यालय के समक्ष गुहार लगाते। एक अफसर ने कहा कि आयुक्त हाईकोर्ट के जज हैं। उनके समक्ष प्रदर्शन उचित नहीं है। हमने कहा कि यहां जज नहीं, कल्याण आयुक्त हैं वे। मजाक देखिए कि यहां पूर्णकालिक कमिश्नर तक कभी नहीं रहा।
जो हकीकत में जरूरतमंद थीं, ऐसी महिलाएं गैस राहत कॉलोनी में जाकर बसीं। एक गेंदीबाई हैं। 70 साल उम्र होगी। उनका राशन कार्ड भी नहीं है। घर की पक्की छत को उनकी अमीरी माना गया। जबकि यह सरकारी पुनर्वास था। ऐसे कई उदाहरण हैं। एक लक्ष्मीबाई हैं। गैस ने उनके शरीर पर असर किया। उनके शरीर पर फफोले जैसे आ गए। पति ने छोड़ दिया तो मायके में मां के साथ रही। कोई कमाने वाला नहीं बचा। बरखेड़ी का अपना मकान बेचकर तीन साल पहले वह कहीं किराए से रहने चली गई। उनका राशन कार्ड तक निरस्त हो गया। आज दो वक्त की रोटी के लाले हैं। सबकी ऐसी ही कहानी है। सरकार की नीति और नीयत में एकरूपता होती तो इतने साल बाद इन बेकसूर विधवाओं का यह हाल नहीं होता।
मेरा संघर्ष एक मकसद को लेकर था। जो लड़ाई लड़ी उससे संतुष्ट हूं। मैंने समाज के सबसे उपेक्षित और शोषित वर्ग के लिए संघर्ष किया। आज भी जारी है। नेताओं-नौकरशाहों के व्यवहार को लेकर निराशा नहीं होती, क्योंकि संघर्ष में भरोसा है। गैस त्रासदी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ संघर्ष का निमित्त बन गई। हम देख रहे हैं कि आने वाले कल में भारत की संसद और विधानसभाओं में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एजेंट हमारे निर्वाचित नुमांइदों के रूप में बैठेंगे। वे सिर्फ दिखने के लिए हमारे चुने हुए प्रतिनिधि होंगे।
…इन दिनों अपनी सरकार स्वर्णिम मध्यप्रदेश का नारा दे रही है। मुझे हंसी आती है। ऐसा सोचने वालों को शर्म आनी चाहिए। वे श्यामला हिल्स और चार इमली क्षेत्र की सरकारी स्वर्णिम सुंदरता से बाहर आकर जरा जेपी नगर और नया कबाड़खाना के इलाके की असरदार बदसूरती को देखें। पूरे प्रदेश की तो बात ही छोड़िए, यह एक ही शहर के दो सिरे हैं। कौन स्वर्णिम हो रहा है? खान शाकिर अली, मोहिनीदेवी श्रीवास्तव, गोविंदप्रसाद श्रीवास्तव और मथुराप्रसाद दुबे जैसे कम्युनिस्टों के साथ काम करते हुए मेरे संघर्ष की शुरूआत हुई थी। जनहित में संघर्ष के सिद्धांत और मार्गदर्शन उन्हीं से मिला। कम्युनिस्ट आंदोलन से पूर्णकालिक तौर पर जुड़ा। अपना घर नहीं बसाया। निराश्रित महिलाओं के संघर्ष का अंतहीन सिलसिला ही मेरा परिवार है। मैं जब भी गैस पीड़ित महिलाओं के बीच खुद को पाता हूं, तो सुकून महसूस करता हूं कि इनके हित में मैंने अपनी सीमित सामर्थ्य से ही कुछ करने की कोशिश की।
(जारी….)
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(नोट : विजय मनोहर तिवारी जी, मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। उन्हें हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने 2020 का शरद जोशी सम्मान भी दिया है। उनकी पूर्व-अनुमति और पुस्तक के प्रकाशक ‘बेंतेन बुक्स’ के सान्निध्य अग्रवाल की सहमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर यह विशेष श्रृंखला चलाई जा रही है। इसके पीछे डायरी की अभिरुचि सिर्फ अपने सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकार तक सीमित है। इस श्रृंखला में पुस्तक की सामग्री अक्षरश: नहीं, बल्कि संपादित अंश के रूप में प्रकाशित की जा रही है। इसका कॉपीराइट पूरी तरह लेखक विजय मनोहर जी और बेंतेन बुक्स के पास सुरक्षित है। उनकी पूर्व अनुमति के बिना सामग्री का किसी भी रूप में इस्तेमाल कानूनी कार्यवाही का कारण बन सकता है।)
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श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
44. सियासत हमसे सीखिए, ज़िद नहीं समझौता कीजिए!
43 . सरकार घबराई हुई थी, साफतौर पर उसकी साठगांठ यूनियन कार्बाइड से थी!
42. लेकिन अर्जुनसिंह वादे पर कायम नहीं रहे और राव पर उंगली उठा दी
41. इस मुद्दे को यहीं क्यों थम जाना चाहिए?
40. अर्जुनसिंह ने राजीव गांधी को क्लीन चिट देकर राजनीतिक वफादारी का सबूत पेश कर दिया!
39. यह सात जून के फैसले के अस्तित्व पर सवाल है!
38. विलंब से हुआ न्याय अन्याय है तात्
37. यूनियन कार्बाइड इंडिया उर्फ एवर रेडी इंडिया!
36. कचरे का क्या….. अब तक पड़ा हुआ है
35. जल्दी करो भई, मंत्रियों को वर्ल्ड कप फुटबॉल देखने जाना है!
34. अब हर चूक दुरुस्त करेंगे…पर हुजूर अब तक हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे थे?
33. और ये हैं जिनकी वजह से केस कमजोर होता गया…
32. उन्होंने आकाओं के इशारों पर काम में जुटना अपनी बेहतरी के लिए ‘विधिसम्मत’ समझा
31. जानिए…एंडरसरन की रिहाई में तब के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की क्या भूमिका थी?
30. पढ़िए…एंडरसरन की रिहाई के लिए कौन, किसके दबाव में था?
29. यह अमेरिका में कुछ खास लोगों के लिए भी बड़ी खबर थी
28. सरकारें हादसे की बदबूदार बिछात पर गंदी गोटियां ही चलती नज़र आ रही हैं!
27. केंद्र ने सीबीआई को अपने अधिकारी अमेरिका या हांगकांग भेजने की अनुमति नहीं दी
26.एंडरसन सात दिसंबर को क्या भोपाल के लोगों की मदद के लिए आया था?
25.भोपाल गैस त्रासदी के समय बड़े पदों पर रहे कुछ अफसरों के साक्षात्कार…
24. वह तरबूज चबाते हुए कह रहे थे- सात दिसंबर और भोपाल को भूल जाइए
23. गैस हादसा भोपाल के इतिहास में अकेली त्रासदी नहीं है
22. ये जनता के धन पर पलने वाले घृणित परजीवी..
21. कुंवर साहब उस रोज बंगले से निकले, 10 जनपथ गए और फिर चुप हो रहे!
20. आप क्या सोचते हैं? क्या नाइंसाफियां सिर्फ हादसे के वक्त ही हुई?
19. सिफारिशें मानने में क्या है, मान लेते हैं…
18. उन्होंने सीबीआई के साथ गैस पीड़तों को भी बकरा बनाया
17. इन्हें ज़िन्दा रहने की ज़रूरत क्या है?
16. पहले हम जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं… गुलाम, ढुलमुल और लापरवाह!
15. किसी को उम्मीद नहीं थी कि अदालत का फैसला पुराना रायता ऐसा फैला देगा
14. अर्जुन सिंह ने कहा था- उनकी मंशा एंडरसन को तंग करने की नहीं थी
13. एंडरसन की रिहाई ही नहीं, गिरफ्तारी भी ‘बड़ा घोटाला’ थी
12. जो शक्तिशाली हैं, संभवतः उनका यही चरित्र है…दोहरा!
11. भोपाल गैस त्रासदी घृणित विश्वासघात की कहानी है
10. वे निशाने पर आने लगे, वे दामन बचाने लगे!
9. एंडरसन को सरकारी विमान से दिल्ली ले जाने का आदेश अर्जुन सिंह के निवास से मिला था
8.प्लांट की सुरक्षा के लिए सब लापरवाह, बस, एंडरसन के लिए दिखाई परवाह
7.केंद्र के साफ निर्देश थे कि वॉरेन एंडरसन को भारत लाने की कोशिश न की जाए!
6. कानून मंत्री भूल गए…इंसाफ दफन करने के इंतजाम उन्हीं की पार्टी ने किए थे!
5. एंडरसन को जब फैसले की जानकारी मिली होगी तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी रही होगी?
4. हादसे के जिम्मेदारों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए थी, जो मिसाल बनती, लेकिन…
3. फैसला आते ही आरोपियों को जमानत और पिछले दरवाज़े से रिहाई
2. फैसला, जिसमें देर भी गजब की और अंधेर भी जबर्दस्त!
1. गैस त्रासदी…जिसने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को सरे बाजार नंगा किया!
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