गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…

संदीप नाइक, देवास, मध्य प्रदेश से, 1/5/2021

पानी नीला था, पानी नदी में था। नदी धरती पर थी, धरती पर पेड़ थे। पर पेड़ हरे-भरे थे। धरती के ऊपर एक आसमान था। आसमान नीला था। आसमान में पक्षी जो उड़ते थे, वे रंग-बिरंगे थे। कोई काला, कोई नीला, कोई हरा, कोई बैगनी, कोई जामुनी, कोई लाल और कोई-कोई इन सब रंगों से मिला-जुला हुआ करता था। सभी पक्षी छत के ऊपर से निकलते तो मेरे आसमान का नीला रंग छुप जाता। उनकी छाँह पानी में नजर आती तो पानी का नीला रंग भी छुप जाता।

पानी और आसमान के बीच में उड़ते उन्मुक्त पक्षी जीवन की राह दिखाते थे और बार-बार रूसो की याद दिलाते जो कहता था, “मनुष्य स्वतंत्र रूप में जन्म लेता है परन्तु हर जगह बेड़ियों में पाया जाता है।”  ये बेड़ियाँ किसने बनाई थीं, वह कभी समझ ही नहीं पाया। जब भी बचपन से अपनी स्मृतियों को टटोलता है तो उसे लगता कि हर दिन, हर पल एक बेड़ी उसे जकड़ती जा रही थी। जब साल गुजरता तो उसे साल की आखिरी रात को बेड़ियों का एक झुंड नजर आता। वह लाख कोशिश करता कि यह सब तोड़ दे। नए साल की सुबह एकदम उन्मुक्त हो जाए, रंग-बिरंगे पक्षियों की तरह, जो कहीं से कहीं पर जाने के लिए स्वतंत्र थे। परन्तु जीवन में ऐसा कहाँ हो पाता है। काली खोपड़ी में बन्द दिमाग मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है जो उसे बारम्बार बेड़ियों की जकड़न में ले जाता है और मनुष्य खुश होता रहता है कि मैं मुक्त हो गया हूँ। उन्मुक्त हो गया हूँ और अब मुझ पर कोई बन्धन नहीं है।

पाँच दशक पूरे करने के बाद छठवें दशक के मध्य में खड़ा होकर मैं जब पलटकर देखता हूँ तो अपने आप को इतना जकड़ा हुआ पाता हूँ कि कहीं से भी एक तिल बराबर साँस लेने की आज़ादी नहीं है। बावजूद इसके कि मैंने घर, परिवार, समाज और यहाँ तक कि अपने आप से बगावत करके अपनी तरह से ज़िन्दगी जीने की कोशिश की है। गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा। हर बन्धन को तोड़ते हुए। हर बार उन्मुक्त होने की कोशिश की। परन्तु इस अकेलेपन में भी बन्धनों का एक साया मेरे साथ लगातार बना रहा( संसार के वे बन्धन जिन्हें हम माया भी कहते हैं, वे शायद इनसे बेहतर थे। परन्तु जो जीवन चुना, वह अपना निर्णय था। किसी ने कुछ कहा नहीं था। इसलिए इस मोड़ पर आकर किसी को दोष देना बहुत ही गलत होगा। 

मैं मानता हूँ कि मैंने इस खिलन्दड़पन में ज़िन्दगी को बहुत हल्के में लिया है। जितना मस्त जिया, उतना भुगता भी है। अज्ञेय कहते हैं,  “मैं मरूँगा सुखी – मैंने जीवन की धज्जियाँ उड़ाई हैं।” और मैं कहता हूँ, “मैं मरूँगा सच में सुखी, क्योंकि जीवन मैंने अपने तरीके से जिया है।”

आज यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि उस नदी के नीले पानी और आसमान के नीले रंग के बीच असंख्य मनुष्यों की भीड़ में अपनी जगह बनाने की मैंने पुरजोर कोशिश की। बहुत कुछ किया। बहुत कुछ दिया। पर अब लगता है सब व्यर्थ था, संसार में मेरे जैसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है, जो अपने तरीके से जीते हुए बहुत कुछ करना चाहते थे। परन्तु इस सबके बाद भी वे सब उस पार हैं, जहाँ सबको एक दिन जाना है और जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता।

मुझे नहीं मालूम कि वहाँ पर कौन सा रंग है। परन्तु मैं अपने पूरे शरीर में अपने पूरे दिलो-दिमाग में इस गाढ़े नीले रंग को भर लेना चाहता हूँ। अन्दर-अन्दर तक। ताकि यदि यहाँ से कुछ न भी ले जा सका तो मेरी स्मृतियों में, मेरे जेहन में एक नीले रंग की छाप सदा बनी रहे। और मैं जानता हूँ कि संसार जब तक है, तब तक नदियों का पानी, आसमान का रंग, पक्षियों का रंग नीला ही बना रहेगा। 

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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की आठवीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 

इस श्रृंखला की पिछली कड़ियां यहाँ पढ़ी जा सकती हैं :

सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे

छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो 

पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!

चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा

तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!

दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…

पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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