प्रयागराज महाकुम्भ में श्रद्धालुओं की भीड़ और भगदड़ के दृश्य।
नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
पिछले साल आठ नवम्बर को बेंगलुरू के सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन संस्थान के जनसंख्या शोध केन्द्र में एक सार्वजनिक घड़ी का अनावरण किया गया था। यह घड़ी भारत की आबादी का आँकड़ा ठीक उसी तरह बताती है, जैसे सामान्य घड़ियाँ समय बताया करती हैं। यानि हर सेकेंड में आबादी में कितनी बढ़त हुई है, उसका आँकड़ा देती है। सो, जब इस ‘जनसंख्या घड़ी’ का उद्घाटन हुआ, तब उसमें भारत की आबादी का आँकड़ा 1 अरब 44 करोड़ 46 लाख से ऊपर था। यह अब तीन महीने बाद 1अरब 45 करोड़ तो हो ही चुका होगा।
बीते 10 साल से भी अधिक समय से देश की जनगणना तो हुई नहीं है। आख़िरी बार 2011 में हुई थी। इसीलिए देश की आबादी की मौज़ूदा स्थिति, प्रामाणिकता के साथ सामने रखने के लिए बेंगलुरू में लगी ‘जनसंख्या घड़ी’ का सहारा लिया गया। इस आँकड़े के साथ ग़ौर इस तरफ़ भी तलब किया जाता है कि देखें, हमारा मुल्क़ अब कैसे दुनिया के सबसे बड़े ‘भीड़-तंत्र’ में तब्दील होता जा रहा है। हाँ, ‘भीड़-तंत्र’ ही कहना सही होगा, क्योंकि बीते कुछ समय से जैसी घटनाएँ घटने लगी हैं, वे साफ़ तौर पर इसी ओर इशारा कर रही हैं। भीड़, जिसका कोई प्रबन्धन नहीं होता। भीड़, जिसे कोई कहीं भी, कैसे भी हाँक सकता है। भीड़, जो किसी नियम-क़ायदे काे नहीं मानती।
भीड़, जो कभी भी भगदड़ में तब्दील हो जाया करती है, कहीं भी हुड़दंग करने लगती है। देश की राजधानी दिल्ली में ही दो घटनाएँ दर्ज़ हो गईं। पहली- नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई, 15 फरवरी को। वहाँ प्रयागराज स्पेशल और प्रयागराज एक्सप्रेस ट्रेनें एक साथ अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर आ गईं। इससे प्रयागराज महाकुम्भ में स्नान करने के लिए जाने वाली भीड़ में भगदड़ मच गई, 18 लोग मारे गए। दूसरी घटना- 13 फरवरी को हुई जामा मस्जिद मेट्रो स्टेशन पर। वहाँ गोल टोपीधारी सैकड़ों हुड़दंगियों ने आने-जाने के सारे नियम-क़ायदे ताक़ पर रखकर क़रीब 15-20 मिनट तक ख़ूब हुड़दंग मचाया, तोड़-फोड़ की। घटना का वीडियो भी देख सकते हैं, नीचे दिया है।
अलबत्ता, इस तरह की भगदड़ और हुड़दंग के मामले सिर्फ़ दिल्ली तक सीमित नहीं हैं और न ही किसी एक धर्म तक। भीड़ तो भीड़ है। उसका कोई ईमान-धर्म थोड़े ही होता है। सोशल मीडिया पर इस वक़्त आए दिन ऐसे वीडियो प्रसारित हो रहे हैं, जिनमें प्रयागराज महाकुम्भ जाने वाले ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों पर तोड़-फोड़ करते हुए दिख जाते हैं। ये वे लोग हैं, जो टिकट या बिना टिकट ट्रेनों में चढ़ना चाहते हैं, लेकिन उन्हें जगह नहीं मिलती। सो, गुस्से में आकर तोड़-फोड़ पर उतारू हो जाते हैं। अन्य लोगों की परेशानी का कारण बन जाते हैं।
माघी अमावस्या के दिन 28-29 जनवरी की दरम्यानी रात महाकुम्भ के दौरान प्रयागराज में हुई भगदड़ें (एक से अधिक हुईं थीं, ऐसी बताया जाता है) भी ऐसे ही गुस्से का परिणाम थीं। उसमें आधिकारिक तौर पर 30 लोगों की मौत की पुष्टि हुई है। हालाँकि मरने वालों का आँकड़ा ज़्यादा भी हो, तो कहा नहीं जा सकता। किसी को इस आँकड़े से ज़्यादा फ़र्क भी नहीं पड़ता। आख़िर भीड़ ही तो है। करोड़ों की भीड़ है। उसमें से 18-20, 30-50, 100-200 कम हो गए, तो क्या! इस वक़्त प्रयागराज जाने वाली सड़कों पर भी भीड़ है। इस भीड़ ने दुनिया के सबसे बड़े, क़रीब 200-300 किलोमीटर लम्बे जाम का रिकॉर्ड बना दिया है। इस जाम और वाहनों की रेलम-पेल आवाजाही में कितने लोग मारे गए, किसी को पता तक नहीं है। हर दिन दुर्घटनाओं में मरने वालों की ख़बरें आती हैं।
कुछ ऐसे ही हाल कोरोना महामारी के संक्रमण के दौरान भी हुए थे, साल 2020 में। ऐसा लगता था, जैसे पूरा देश भीड़ की शक़्ल में सड़कों पर उतर आया हो। लोग डेढ़-डेढ़ हजार किलोमीटर पैदल चलते हुए सड़कें नाप रहे थे। ट्रेनों, बसों, टैक्सियों, ट्रकों से भी अपने गाँव-घर पहुँचने की जुगत में थे। इनमें से कुछ तो इच्छा से चले थे। जबकि हजारों को उनकी इच्छा-अनिच्छा की परवा किए बिना उन राज्यों की सरकारों ने हाँक दिया था, जो अपने कन्धों पर से ‘बोझ’ हटाना चाहती थीं। ‘भीड़’ आख़िर ‘सरकार’ पर भी तो बोझ होती है न!! इसीलिए तो ‘मौत’ भीड़ का आँकड़ा कितना कम करती है, यह ‘सरकार’ के लिए चिन्ता या चिन्तन की बात नहीं होती। कोरोना-काल में भी मारे गए लोगों या कहें कि देश से कम हो गई भीड़ का मामला भी तो ऐसा ही था? किस ‘सरकार’ को फ़र्क पड़ा उससे?
अलबत्ता, उन लोगों को फ़र्क पड़ता है ‘सरकार’, जिनके ‘अपने’ इस भीड़-तंत्र में हमेशा के लिए कहीं खो जा जाया करते हैं। उनके लिए वे मर जाने वाले लोग, वे खो जाने वाले लोग ‘भीड़’ नहीं होते। वे ‘आँकड़े’ भी नहीं होते। वे किसी के माता-पिता होते हैं। किसी के पुत्र-पुत्री होते हैं। किसी के पति-पत्नी होते हैं। किसी के भाई-बहन होते हैं। वे जब ‘अपनों’ के साथ होते है, जीवित होते हैं, तो उनकी ज़िन्दगी होते हैं। मगर जब ‘भीड़-तंत्र’ के शिकार बन जाते हैं, ‘अपनों’ का साथ हमेशा के लिए छोड़ जाते हैं, तो जीवनभर का दर्द बनकर दिलों में ठहर जाते हैं।
इन लोगों का दर्द महसूस कीजिए ‘सरकार’। ये 1 अरब 45 करोड़ लोग सिर्फ़ आँकड़ा नहीं हैं। ये जीते-जागते लोग हैं। इनकी भावनाएँ, इनकी अपेक्षाएँ, इनकी सोच, इनकी समझ को समझिए। इस देश को दुनिया का सबसे बड़ा भीड़-तंत्र बनने से बचा लीजिए ‘सरकार’। आवाज़ें उठ रही हैं, उन्हें सुनिए। कुछ कीजिए।
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