मध्य प्रदेश ने नियम बदला तो पता चला, हमारे नेता कितने ‘दरिद्र’ होते हैं!

टीम डायरी

मध्य प्रदेश सरकार ने अभी हाल में अपना एक नियम बदला है। इसी मंगलवार 25 जून की बात है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में अहम फ़ैसला लिया गया। इसके मुताबिक, राज्य के मंत्रियों के करों की देनदारी अब सरकार वहन नहीं करेगी। वे अपने करों का भुगतान ख़ुद करेंगे, अपनी कमाई से। इस सम्बन्ध में सरकार 1972 में बनाए गए वैधानिक नियमों को बदलने वाली है।

सो, एक हिसाब से यह फै़सला अच्छा ही है। आख़िर करोड़पति, अरबपति मंत्रियों के करों की देनदारी भला सरकारी ख़जाने से क्यों ही वहन की जानी चाहिए? सरकारी ख़जाने में आने वाला पैसा किसी का निजी तो है नहीं। जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है यह। इसे जनता के ऊपर, उसकी सुविधाओं, आदि पर ख़र्च किया जाए, ऐसा लोकतांत्रिक प्रणाली में आम तौर पर माना जाता है। कुछ हद तक होता भी ऐसा ही है। लेकिन इसी बीच, कुछ विरोधाभासी स्थितियाँ सवालिया निशान की तरह मुँह खोले खड़ी दिखती हैं।

उदाहरण के लिए पेंशन पाने वाले बुज़ुर्ग वक़्त-वक़्त पर महँगाई भत्ता बढ़ाने की माँग करते-करते थक जाते हैं, लेकिन सरकार उनकी नहीं सुनती। तीसरी, चौथी, श्रेणियों के कर्मचारी वेतन बढ़ाने के लिए जब-तब आन्दोलन करते हैं, मगर उनकी बात भी नहीं मानी जाती। किसान अपनी फ़सलों के लिए सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की माँग करता है, उसे भी वह नहीं मिलता। आम जनता महँगे पेट्रोल-डीजल पर करों में थोड़ी राहत माँगती रहती है, पर मिलती नहीं। ऐसे मसलों को टालने के लिए सरकारों के पास स्थायी दलील होती है कि सरकारी ख़जाने में पैसा नहीं है। इसी दलील के आधार पर सड़कों, मेट्रो परियोजनाओं, पुलों, अस्पतालों, स्कूलों जैसे जनहित के तमाम कामों में भी देरी और टालमटोल होती रहती है। सरकार किसी की हो, सिलसिला ऐसे ही चलता रहता है। 

वहीं दूसरी तरफ़ विधायकों, सांसदों, मंत्रियों की गाड़ियों के लिए पेट्रोल-डीजल का पैसा सरकारी ख़जाने में कभी कम नहीं पड़ता। भले ही वे गाड़ियाँ उनके निजी कामों में ही अधिकतर क्यों न इस्तेमाल की जाती हों। इन लोगों के बड़े-बड़े बँगलों में होने वाली साज-सज्जा, रंग-रोगन के लिए भी हमेशा पैसा उपलब्ध होता है। देश-विदेश में इनके घूमने-फिरने के ख़र्चे, इनके फोन, टीवी, इन्टरनेट वग़ैरा के बिल और पता नहीं, इन्हें दी जाने वाली ऐसी कितनी ही सुविधाओं के लिए सरकारी ख़जाने में पैसे की कभी कोई कमी नहीं होती। यही नहीं, इतना सब होने के बाद भी इन लोगों के पास जब कोई आम नागरिक अपने किसी काम की अपेक्षा लेकर जाए, तो वह इन्हें रिश्वत दिए बिना होता नहीं। सार्वजनिक सुविधा से जुड़े कार्यों को कराने के एवज में भी ये लोग भरपूर वसूली करते रहते हैं। 

तिस पर ये लोग अपने करों का भुगतान भी न करें! तो फिर इन्हें क्या कहा जाए फिर? ‘दरिद्र‘ ही न? 

सोशल मीडिया पर शेयर करें
Neelesh Dwivedi

Share
Published by
Neelesh Dwivedi

Recent Posts

चन्द ‘लापरवाह लोग’ + करोड़ों ‘बेपरवाह लोग’’ = विनाश!

चन्द ‘लापरवाह लोग’ + करोड़ों ‘बेपरवाह लोग’’ = विनाश! जी हाँ, दुनियाभर में हर तरह… Read More

4 hours ago

भगवान महावीर के ‘अपरिग्रह’ सिद्धान्त ने मुझे हमेशा राह दिखाई, सबको दिखा सकता है

आज, 10 अप्रैल को भगवान महावीर की जयन्ती मनाई गई। उनके सिद्धान्तों में से एक… Read More

1 day ago

बेटी के नाम आठवीं पाती : तुम्हें जीवन की पाठशाला का पहला कदम मुबारक हो बिटवा

प्रिय मुनिया मेरी जान, मैं तुम्हें यह पत्र तब लिख रहा हूँ, जब तुमने पहली… Read More

2 days ago

अण्डमान में 60 हजार साल पुरानी ‘मानव-बस्ती’, वह भी मानवों से बिल्कुल दूर!…क्यों?

दुनियाभर में यह प्रश्न उठता रहता है कि कौन सी मानव सभ्यता कितनी पुरानी है?… Read More

3 days ago

अपने गाँव को गाँव के प्रेमी का जवाब : मेरे प्यारे गाँव तुम मेरी रूह में धंसी हुई कील हो…!!

मेरे प्यारे गाँव तुमने मुझे हाल ही में प्रेम में भीगी और आत्मा को झंकृत… Read More

4 days ago

यदि जीव-जन्तु बोल सकते तो ‘मानवरूपी दानवों’ के विनाश की प्रार्थना करते!!

काश, मानव जाति का विकास न हुआ होता, तो कितना ही अच्छा होता। हम शिकार… Read More

6 days ago