बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
महाराज आगरा से छूटकर आए और उन्होंने स्वराज्य की शासन-प्रणाली अधिक बलशाली, शास्त्रशुद्ध बनाई। जमीन के लगान की पद्धति, पैदल फौज तथा घुड़दल की संरचना और अनुशासन, किले-परकोटों का प्रबन्ध, अर्थव्यवस्था, व्यापार, जागीरदारी प्रथा का उन्मूलन आदि राजकाज से सम्बन्धित अनेक विषयों पर महाराज ने पहले से काफी कुछ सोच रखा था। उनमें आवश्यक परिवर्तन कर उन्होंने शासन-प्रणाली लागू की। यह सब करते समय उन्होंने किसी का लिहाज नहीं किया, न किसी से वह डरे ही। पिलाजीराजे शिर्के, नारायण महाराज देव चिंचवडकर, नर्हेकर देशपांडे तथा मावल के देशमुख आदि प्रतिष्ठित लोगों के गले भी उन्होंने अनुशासन के नियम उतारे। स्वराज्य में उन्होंने किसी को भी जागीर या बक्षीशनामा नहीं दिया। प्रधानमंत्री से लेकर खिदमदगार तक सभी को नकद में ही तनख्वाह मिलती थी। रोकड़ में आर्थिक व्यवहार करनेवाला यह पहला ही राज्य था।
स्वराज्य के नौदल का प्रबन्ध महाराज ने बहुत अच्छा रखा था। उन्होंने खूब अच्छी तरह पहचाना था कि बिना नौदल और सागरी किलों के स्वराज्य की पश्चिमी सीमा सिद्दी, अरब, समुद्री डाकू और यूरोपीय ‘राजनीतिक’ व्यापारियों से सुरक्षित नहीं रहेगी। नौदल का उन्होंने स्वतंत्र सूबा बनाया था। सरखेल यानी सागराध्यक्ष, नौदल का प्रमुख अधिकारी होता था। यह पद महाराज ने दर्यासारंग नाम के अत्यन्त होशियार साहसी और निष्ठावान् सरदार को दिया था। उसकी सहायता के लिए उन्होंने दौलत खान, इब्राहिम खान, मायनाक भंडारी, सिद्दी मिस्त्री, लाय पाटिल आदि छोटे-बड़े बहादुर दिए हुए थे। ये सभी अच्छे नाविक थे। कोली, भंडारी और आगरी ये महाराष्ट्र की मल्लाह जातियाँ बहुत बहादुर ईमानी, फुर्तीली, निष्ठावान् और साहसी होती हैं। इन सागरपुत्रों की अंजुलि में महाराज ने सागर सौंप दिया।
नौदल में कुल मिलाकर 5,000 जवान थे। नए बहादुरों की भर्ती का काम जारी रहे, ऐसा महाराज का नौदल को हुक्म दिया था। नौदल में कुल 108 युद्ध नौकाएँ थी। इनके अलावा निम्न दर्जे की अनेक नौकाएँ थीं। नई नौकाओं के निर्माण के लिए मालवन, विजयदुर्ग और रत्नागिरि में गोदियाँ बाँधी हुई थीं। विजयदुर्ग, हर्णे, सिन्धुदुर्ग, खोदेरी, उन्देरी, पद्मदुर्ग वगैरा सागरी किले थे। सिवा इसके किनारे पर भी काफी सारे किले थे। नौदल के बेड़ों पर गेरुए झंडे फहराते रहते। नौदल हमेशा सजग रहता था।
इसके बाद पोर्तुगीझ को गोवा से पूरी तरह उखाड़कर पूरे गोमन्तक को आजाद करने की महाराज ने कोशिश की (सन् 1668 अक्टूबर)। लेकिन उन्हें उसमें जरा भी सफलता न मिली। तब फिर महाराज ने गोवा के एक विख्यात प्राचीन आराध्य का मन्दिर बनवाने का काम आरम्भ किया था (दिनांक 13 नवंबर 1668 शुक्रवार)। यह आराध्य थे नारवे के सप्तकोटीश्वर।
महाराज फिर गोमन्तक से रायगढ़ आए। उनके मन में जंजीरा, दंडा-राजपुरी नश्तर की तरह चुभ रहे थे। जंजीरा के सिद्दी पिछले पौने दो सालों से कोंकण किनारे को सता रहे थे। और अब वे मराठी स्वराज्य के जानी दुश्मन बन गए थे। महाराज हमेशा कहा करते थे कि, “वह जंजीरा का सिद्दी स्वराज्य की दौलत को कुतरनेवाला पानी का चूहा है।” वहीं, दंडा-राजपुरी के इर्द-गिर्द का किनारे का प्रदेश तथा दिघी खाड़ी के मुँहाने पर समुद्र में खड़ा जंजीरा किला सिद्दियों के कब्जे में था। अबीसीनिया से आए ये सिद्दी अत्यन्त जीवटवाले, शूर, ऊँचे-तगड़े और कट्टर थे। इस समय जंजीरे का प्रमुख सिद्दी था फत्तेखान। उसके प्रमुख सहायक थे सिद्दी खैयन्त, सिद्दी कासम और सिद्दी सम्बुल।
सो, अब महाराज मोरोपंत पिंगले को साथ लेकर सिद्दियों की मुहिम पर निकले। दंडा-राजपुरी के मुल्क में फौज घुस गई। सिद्दियों के सात-आठ किले मराठी फौज ने जीत लिए। दंडा और राजपुरी पर भी मराठों ने जबर्दस्त मोर्चे लगाए। जंजीरे को घेरने के लिए मराठी नौदल समुन्दर की तरफ से भी आने लगा। मराठों के तूफानी हमले के सामने टिकना असम्भव है, यह महसूस होते ही सिद्दी फत्तेखान वगैरा सिद्दियों के नेता जंजीरे में घुस गए। जैसे ही सिद्दी दंडा-राजपुरी से भागे, मराठों ने उन पर अख्तियार कर लिया। अब मराठों के हमले का निशाना था जंजीरा का किला।
नौदल की नौकाओं पर से तोपें दागी जाने लगीं। एक ओर से लहरों का तांडव और दूसरी तरफ से आग का दरिया। मानो भवानी गगन की गागर में फूँक मार रही थी। आखिर जंजीरा किला थकने लगा। सिद्दी फत्तेखान ने महाराज की शरण लेने का निश्चय किया। जंजीरे पर गेरुआ झंडा फहराने में अब थोड़ी ही देर थी। लेकिन अचानक पलड़ा पलट गया। सिद्दी खैयन्त, सम्बुल और कासम ने फत्तेखान को कैद कर लिया। औरंगजेब ने भी सिद्दियों को नौदलीय मदद भेजी। और जंजीरा महाराज के हाथ से निकल गया। शिवाजी महाराज के हाथ से वह बलदंड किला निकल गया। फिर भी वह हिम्मत नहीं हारे। उसे फिर कभी ले लेंगे, ऐसा सोचकर वह राजगढ़ चले गए।
जंजीरा। कोकण किनारे के कुलाबा प्रान्त में मुरूड़ के पास है यह जलदुर्ग। खाड़ी के मुहाने पर एक विशाल चट्टान पर खड़ा है। पहले यहाँ (सन् 1490 तक) स्वतंत्र कोली (मल्लाह) राजा का राज्य था। अहमदनगर की निजामशाही ने इस जलदुर्ग को जीतने की बहुतेरी कोशिश की, पर उसे सफलता नहीं मिली। जब इस किले पर कोली राजा की हुकूमत थी, तब इसके परकोटे, लकड़ी के थे। दरवाजा भी लकड़ी का ही था। आखिर पेरीम खान नाम का होशियार सरदार इन मल्लाहों को धोखा देकर किले में घुस गया। उसने सबको जमकर शराब पिलाई। इसके बाद सभी बेहोश मल्लाहों का कत्ल कर दिया। इस तरह खान ने यह किला अपने कब्जे में ले लिया। इस जलदुर्ग पर निजामशाही का निशान फहराने लगा (सन् 1490)।
अतल समुन्दर में सीना तानकर खड़ा मल्लाहों का यह जलदुर्ग आखिर शराब के प्याले में डूब गया। रसातल को गया। पानी के ऊपर तैर आया लाल रंग मल्लाहों के खून का। इस समय के आखिरी मल्लाह प्रमुख का नाम था एतबार राव। इसके बाद शीघ्र ही इस जलदुर्ग का परकोटा पत्थर का बना दिया गया। परकोटे में दो मंजिले हैं। इससे एक ही समय, शत्रु पर दोनों मंजिलों के झरोखे से निगाह रखी जा सकती थी। एक साथ बमबारी भी की जा सकती थी। इस जलदुर्ग का नाम रखा गया जंजीरा-ए-मेहरुब। किले में पूर्व की तरफ एक भव्य दरवाजा है। वायव्य में भी एक छोटा दरवाजा है। परकोटा समुन्दर से 25 हाथ ऊपर है। ऊपर की तरफ परकोटा इतना चौड़ा है कि उस पर से एक ही समय दो बैलगाड़ियाँ आसानी से दौड़ सकती थीं। समूचे मराठी सागर किनारे पर इसकी जोड़ का दूसरा जलदुर्ग नहीं है।
जंजीरा सुरक्षा के लिए सिद्दियों के हवाले किया गया था। पर आगे चलकर इन सिद्दियों ने निजामशाही और आदिलशाही शासन को दिखानेभर के लिए ही माना। वह आजाद हो गए। अबीसिनिया से आए थे ये सिद्दी। काले, डील-डौल से मजबूत, लम्बे, क्रूर और कट्टर। उनका धर्म इस्लाम था। वह राजनीतिज्ञ नहीं थे। लेकिन बला के बहादुर थे। इन सिद्दियों के कब्जे में कुलाबा प्रान्त के किनारे का काफी बड़ा हिस्सा था। समुन्दर तथा किनारे पर लूट-पाट करना, सुन्दर औरतों को, जवान पुरुषों को पकड़कर उन्हें गुलाम बनाकर बेचना, मार-काट मचाकर अपनी राजसत्ता का विस्तार करना, यही उनका काम था। दंडा-राजपुरी, और जंजीरा ये इन सिद्दियों के प्रमुख थाने थे। दंडा-राजपुरी के परकोटे भी बहुत मजबूत थे। और जंजीरा तो अभेद्य ही था। अकेले जंजीरे पर ही 72 तोपें थीं।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ
39- शिवाजी ‘महाराज’ : चकमा शिवाजी राजे ने दिया और उसका बदला बादशाह नेताजी से लिया
38- शिवाजी ‘महाराज’ : कड़े पहरों को लाँघकर महाराज बाहर निकले, शेर मुक्त हो गया
37- शिवाजी ‘महाराज’ : “आप मेरी गर्दन काट दें, पर मैं बादशाह के सामने अब नहीं आऊँगा”
36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
35- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठे थके नहीं थे, तो फिर शिवाजी ने पुरन्दर की सन्धि क्यों की?
34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए
33- शिवाजी ‘महाराज’ : जब ‘शक्तिशाली’ पुरन्दरगढ़ पर चढ़ आए ‘अजेय’ मिर्जा राजा
32- शिवाजी ‘महाराज’ : सिन्धुदुर्ग यानी आदिलशाही और फिरंगियों को शिवाजी की सीधी चुनौती
31- शिवाजी महाराज : जब शिवाजी ने अपनी आऊसाहब को स्वर्ण से तौल दिया
30-शिवाजी महाराज : “माँसाहब, मत जाइए। आप मेरी खातिर यह निश्चय छोड़ दीजिए”
29- शिवाजी महाराज : आखिर क्यों शिवाजी की सेना ने तीन दिन तक सूरत में लूट मचाई?
28- शिवाजी महाराज : जब शाइस्ता खान की उँगलियाँ कटीं, पर जान बची और लाखों पाए
27- शिवाजी महाराज : “उखाड़ दो टाल इनके और बन्द करो इन्हें किले में!”
26- शिवाजी महाराज : कौन था जो ‘सिर सलामत तो पगड़ी पचास’ कहते हुए भागा था?
25- शिवाजी महाराज : शिवाजी ‘महाराज’ : एक ‘इस्लामाबाद’ महाराष्ट्र में भी, जानते हैं कहाँ?
24- शिवाजी महाराज : अपने बलिदान से एक दर्रे को पावन कर गए बाजीप्रभु देशपांडे
23- शिवाजी महाराज :.. और सिद्दी जौहर का घेरा तोड़ शिवाजी विशालगढ़ की तरफ निकल भागे
22- शिवाजी महाराज : शिवाजी ने सिद्दी जौहर से ‘बिना शर्त शरणागति’ क्यों माँगी?
21- शिवाजी महाराज : जब 60 साल की जिजाऊ साहब खुद मोर्चे पर निकलने काे तैयार हो गईं
20- शिवाजी महाराज : खान का कटा हुआ सिर देखकर आऊसाहब का कलेजा ठंडा हुआ
अभी इसी शुक्रवार, 13 दिसम्बर की बात है। केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी लोकसभा… Read More
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इस शीर्षक के दो हिस्सों को एक-दूसरे का पूरक समझिए। इन दोनों हिस्सों के 10-11… Read More
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