ऋषि कुमार सिंह, लखनऊ, उत्तर प्रदेश से
सोशल मीडिया और फोन पर सम्पर्क ठीक है, लेकिन सीखने-समझने के लिए आमने-सामने की मुलाकात और बातचीत करना बहुत जरूरी है। कल शाम को ऐसी ही एक मुलाकात में कई साल से परेशान कर रहे सवाल का जवाब मिल गया। समझ में आया कि हमारे आस-पास का राजनीतिक माहौल लगातार घना हो रहा है।
यह आक्रामक संचार माध्यमों/विकल्पों के कारण हो रहा है। यह हमारी स्वतंत्र सोच को खा रहा है। इसमें राजनीतिक व निजी हितों को साधने वाली तमाम बायनरीज (विरोधी स्वभाव आधारित जोड़ा) मौजूद हैं। हम इन्हीं बायनरीज में पड़कर अपने बहुपक्षीय स्वाभाविक सामाजिक सम्बन्धों को तनावपूर्ण बना रहे हैं। हम झगड़ रहे हैं। एक-दूसरे को अपशब्द कह रहे हैं। नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।
अब सवाल उठता है कि इससे हम कैसे बच सकते हैं? तो इसका सीधा सा जवाब है कि अपनी दुनिया को अपनी आँखों से देखिए और अपने अनुभवों से परखिए। उधार के अनुभवों से किसी के बारे में कोई राय न बनाइए। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को कँटीली तारबन्दी और बारूदी सुरंगों से भरा युद्ध का मैदान मत बनने दीजिए। इसमें पार्क में पड़ी बेंच जैसी जगह बनाए रखिए, जहाँ दो अनजान व्यक्ति आकर बैठते हैं और एक-दूसरे से बतियाने लगते हैं। यही असली लोकतंत्र है।
अपने वैचारिक धरातल के समर्थन में खूब बहस करिए, खूब झगड़िए, लेकिन इसकी कड़वाहट को चाय की चुस्की के साथ गटक जाने का माद्दा भी रखिए। और बशीर बद्र साहब के इस शेर को जेहन में हमेशा पाले रखिए :
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों।
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(पर्यावरण, राजनीति, समाज के मसलों पर ऋषि बेहद संज़ीदा क़िस्म के इंसान हैं। ऐसे मसलों लगातार ट्विटर जैसे मंचों पर अपनी बात रखते रहते हैं। वहीं से यह पोस्ट भी ली गई है, उनकी अनुमति से।)
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