देवांशी वशिष्ठ, दिल्ली से
अगर पेड़ भी चलते होते
अगर पेड़ भी चलते होते
कितने मज़े हमारे होते
बांध तने में उसके रस्सी
चाहे जहाँ कहीं ले जाते
जहाँ कहीं भी धूप सताती
उसके नीचे झट सुस्ताते
जहाँ कहीं वर्षा हो जाती
उसके नीचे हम छिप जाते
लगती भूख यदि अचानक
तोड़ मधुर फल उसके खाते
आती कीचड़-बाढ़ क़हीं तो
झट उसके उपर चढ ज़ाते
अगर पेड़ भी चलते होते
कितने मज़े हमारे होते
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हिन्दी के वरिष्ठ कवि डॉक्टर दिविक रमेश जी ने जब बच्चों के लिए यह कविता लिखी होगी, तो शायद ही सोचा हो कि बच्चे इन लाइनों के बीच से ही पर्यावरण से जुड़ा कोई गम्भीर सन्देश भी निकाल सकते हैं। लेकिन इस महज़ डेढ़ मिनट के ऑडियो में सुनिएगा, 11वीं कक्षा में पढ़ने वाली बच्ची देवांशी वशिष्ठ ने इन लाइनों से क्या सन्देश लिया और हम सबको दिया है।
यह कविता इस साल पर्यावरण दिवस पर, पाँच जून को सोशल मीडिया के विभिन्न मंचाें पर साझा की गई थी। वहीं से इसे आभार सहित लिया गया है। क्योंकि पर्यावरण से जुड़े ऐसे सन्देश किसी एक दिन विशेष के मोहताज़ नहीं होते। उन्हें कभी भी लिया-दिया जा सकता है।