समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
हम देख रहे हैं कि किस तेजी से हमास-इजराइल लड़ाई अब ईसाई-इस्लाम संघर्ष की ओर बढ़ चली है। अराजकता के संक्रमण काल का संकेत पिछले भाग में किया गया था। उसकी वृहदता को समझने के लिए अभी हम तैयार नहीं हो पा रहे हैं। इसका कारण यह है कि वैश्विक मानव सभ्यता द्वारा पिछली सदी में जो भी मूल्य, सिद्धान्त और संस्थान खड़े किए हैं, वे सब अब खतरे में दिखने लगे हैं। लेकिन यकीन मानिए यह एक स्थिति लम्बे समय तक नहीं टिकेगी। राष्ट्र ऐसे निर्णय और नीतियों को अख्तियार करेंगे जिनके चलते सब लोग आँखें खोलकर देखने लिए विवश हो जाएँगे। हमास के इजराइल पर हमले को हम फाइनल ट्रिगर समझ सकते हैं। संक्षेप में कहे तो इस विवाद की जड़ अब्राहिमी मजहबों के संकीर्ण विचारों के उपनिवेशी वैश्विकरण में हैं, जिसके आधार पर पाश्चात्य जगत के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था स्थापित है। पूर्व में भारतीय परिदृश्य की समस्याओं की जड़ ‘उपनिवेशी भड़िहाई’ के सन्दर्भ से इस पर प्रकाश डाला जा चुका है।
अभी दिमागी दिवालियापन कुछ इस हद तक पहुँच चुका है कि दुनिया के अधिकांश हिस्सों में मीडिया समूह विशेषज्ञों से घटनाओं को समझने के नाम पर अमेरिका, यूरोप के प्रतिष्ठित प्रकाशन, वहाँ के थिंक टैंक के शोधार्थियों के लेख को छाप भर रहे हैं। अव्वल तो उनके सरोकार सबके लिए उपयुक्त नहीं है और उससे बड़ी बात यह कि जो अराजक स्थितियाँ बन रही हैं उसमें अनुभव का विशेष उपयोग नहीं है। मीडिया स्टूडियो सायरन, रक्तरंजित दृश्य, नकली सहानुभूति और उत्तेजना का माहौल कर खबरें बेचने में व्यस्त हैं। विश्वकप टूर्नामेंट की तरह युद्ध के मैदान से लाइव कवरेज देने की होड़ है। इसे एक कमेंटेंटर के शब्दों में ‘वार पॉर्न’ कहा जाए, तो गलत नहीं होगा।
मुद्दे की बात आती है पूर्व से आ रहे उन घटनाक्रम के तारतम्य को देखने की, जिससे वर्तमान को हम बेहतर ढंग से समझ सकें। कुछ ऐसी घटनाओं की फेहरिस्त पर नजर डालें :
आईएसआईएस और इस्लामी कट्टरपंथी ताकतों ने यजीदी आबादी पर जो अत्याचार किए और उसे जिस तरह से नजरअंदाज किया गया इजराइल पर हमले में वह सम्भव नहीं। इजराइल को यूरोप और अमेरिका अपनी सुरक्षा की बाहरी और प्रथम पंक्ति मानती है।
ईरान, लेबनान, कतर और साउदी अरब से लेकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया तक इस्लामी जगत के दिल फलिस्तीनियों के समर्थन में धड़क रहे हैं। सैकड़ाें संगठन और लाखों मोमिन इजराइल और यहूदियों से बदला लेने के लिए तड़प रहे हैं। इसलिए यह मामला निकट भविष्य में सुलझने वाला नहीं। उल्टे यह आक्रोश अमेरिका और यूरोप की सड़कों पर भी उतर रहा है। यूरोप में रह रहे मुसलमान अतिवादियों द्वारा छुरे बाजी, आगजनी की घटनाएं बढ़ रही है।
हमास हमले के बाद इजराइल और अरब देशों की कार्रवाइयाँ कूटनीतिक रस्में, युद्ध नीति, कानून और अघोषित समझौतों की ताकत कमजोर हो गई है। यही नहीं किसी एक संगठन को पूरे क्षेत्र की शान्ति भंग करने का वीटो मिल गया है। ऐतिहासिक कारणों से हर कोई ऐसी जगह खड़ा दिखता है जहाँ थोड़ी भी ढील या कमजोरी अस्तित्त्व के लिए खतरा सिद्ध हो सकती है।
यूरोपीय बहुसंस्कृतिवाद का अवसान नजदीक है, तो इसके साथ ही वह उपनिवेशवाद प्रणित तथाकथित वैश्विकता जिसने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोपीय देशों के संघर्ष को कृत्रिम रूप से रोके रखा और जिसमें सभ्यताओं (मजहबी) संघर्ष भी शामिल है, वह कमजोर हो रहा है। इसके होने से अमेरिका यूरोप में जनमत तेजी से साभ्यतिक-मजहबी रूप लेगा, लेकिन उम्माह जैसी अवधारणा के अभाव में मूल्यपरक ईसाई एकीकरण टेढ़ी खीर साबित होगा।
यूक्रेन-रूस युद्ध में नाटो विस्तार की भूमिका, रूस-जर्मनी की नार्ड स्ट्रीम का विस्फोट जैसी घटनाओं के चलते अस्थिरता फैलाने की नीति को अमेरिकी नीति निर्माता लम्बे समय तक मलाल के साथ याद करेंगे। वहीं रूस को लेकर यूरोप और उसका एकीकृत रूख एक बड़ी समस्या में फँस गया है, और यह सम्बन्धों में विश्वास के टूटने की घटना है। इसलिए इस्लामी अतिवाद के मुद्दे पर अमेरिका और यूरोप एक संगठित ईसाई या पुनर्जागरणोत्तर मूल्यों के आधार पर एकता के मोर्चा में रूस को नहीं गिन सकेंगे। इतना भर नहीं, रूस यदि इजराइली मुद्दे को अमेरिका के खिलाफ इस्तेमाल करने की नीति अपनाएगा तो उसका सबसे बड़ा खामियाजा यूरोप ही चुकाएगा।
इस अराजक और बिखराव की स्थिति में वैश्विक सोच को प्रभावित करने वाले बहुराष्ट्रीय संगठन जैसे जॉर्ज सोरोस की ओपन सोसाइटी, ओमिड्यार नेटवर्क और विविध थिंक टैंक और फाउंडेशन्स की स्थिति तो कमजोर होगी ही इनके द्वारा समर्थित कई संगठन बेनकाब होंगे। वे फ्रीस्पीच, लोकतंत्र, मानव समानता, पर्यावरण जैसे मुद्दों की आड़ में अपना एजेंडा चलाते रहे हैं। अब तक इनके संकीर्ण हित और अतिवादी विचार कभी अमेरिका और पश्चिमी देशों के मुख्यधारा हितों के विरोध या टकराव में नहीं आ रहे थे। कई बार इन संगठनों के हित अमेरिका के मुकाबले चीन, ईरान और कई अरब देशों से अधिक जुड़ते रहे। जब राष्ट्र अपने हितों के लिए अधिक कड़े नियम और कानून बनाएँगे। जाहिर तौर पर वो बहुराष्ट्रीय संगठनों को भी प्रभावित करेंगे। एक्स (ट्वीटर) ने हाल ही में डिसइंफो लैब, इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल के हैंडल्स को ब्लॉक किया है।
परम्परावादी अमेरिकी विश्वविद्यालयों में अतिवादी वामपंथ और वोक कल्चर के शिकंजे पर काफी समय से शिकायत कर रहे थे। अभी पिछले चन्द दिनों में ही वहीं हार्वर्ड, कोलम्बिया, जार्जटाऊन, पेनिन्सेल्वेनिया आदि विश्वविद्यालयों में इजराइल और यहूदियों का विरोध करने वाले छात्र संगठनों पर विश्वविद्यालय प्रशासन, दानदाता और कॉरपोरेट सेक्टर ने कड़ी कार्रवाई की चेतावनी देकर उन्हें अपने कदम पीछे लेने को मजबूर किया है। यह एक बड़ा घटनाक्रम है, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे।
अमेरिकी डॉलर के कमजोर होने से और देशों के बीच आपसी विनिमय के समझौते होने की शुरूआत हाे चुकी है। पर्यावरण, स्वास्थ्य, अन्न, रणनीतिक सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा, व्यापारिक हित और तात्कालिक प्राथमिकताओं के कारण देशों के बीच नए सम्बन्ध और समूह बनेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं। भारत, जापान, म्यांमार, अर्जेंटीना, ब्राजील ही नहीं अफ्रीकी देशों की भूमिका में विस्तार होगा।
इस्लाम और ईसाइयत का विवाद अमेरिकी प्रभुत्व के लिए चुनौती बनकर उभरेगा तो यूरोप के लिए यह आस्तित्विक संकट का सबब बनेगा। अमेरिकी और यूरोपीय व्यापारिक और भूराजनीतिक हित इस विवाद और उसके असर को सीमित और अल्पकालिक रखने में हैं। उनकी पूरी कूटनीतिक शक्ति इसी दिशा में लगी हुई है। धुर विरोधाभासी लक्ष्यों को लेकर तारतम्य बनाने में वे कहाँ तक सफल होंगे यह भविष्य ही बताएगा।
ऐसी स्थिति में चीन के लिए राजनीतिक रूप से इस मामले में सीमित और आभासी हस्तक्षेप कर अपने कूटनीतिक पक्ष को मजबूत करने का बेहतर मौका मिला है। चीन के विदेशमंत्री ने मुस्लिम देशों के पक्ष में अपनी सहानुभूति का बयान देकर इस इस्लाम विरुद्ध ईसाइयत के मामले को हवा दी है। चाहे अनचाहे इस विवाद ने दुनिया का प्रॉडक्शन हाऊस बन चुके चीन के उत्कर्ष, भले ही वह अल्पकाल के लिए क्यों न हो, की राह को अवश्यंभावी बना दिया है।
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(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ भी लिखा लिया करते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)
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