देखना सहज है, उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह…

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 25/9/2021

आसमान में जब भी देखा, एक नहीं हजार आकार नजर आए। भिन्न-भिन्न प्रकार के। किसी ने उनके हू-ब-हू चित्र बना दिए। किसी ने मिट्टी से गढ़ दिया इन आकारों को। किसी ने देखकर छोड़ दिया। कुछेक ने ऊपर आसमान देखा नहीं और किसी को कुछ दिखा ही नहीं।
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वे बहुत तेज चलते थे। चलते-चलते कभी अचानक रुक जाते और जमीन पर घूरने लगते। घर में घुसने के पहले चप्पल-जूतों की ओर न जाने क्या देखा करते थे। घर के कचरे में खोजा करते थे कुछ आकार, दृश्य। यह सब करते-करते कब उन्हें एक टूटी चप्पल में मोनालिसा मिल गई। आम की फेंकी हुई गुठली में रबींद्रनाथ टैगोर और बुहार दिए गए मूँगफली के छिलकों में वृहद् ग्रामीण परिवार, पता नहीं चला। फिर जब उन्होंने अन्तिम साँस ली तो लोगों ने कहा गुरुजी चले गए।
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वे मालकौंस गाते, वसन्त बहार, यमन, या मल्हार। मग़र उनकी अंगुलियाँ यूँ नाचती हाथों के साथ कि गाने से ज़्यादा वही दृश्यमान होता। ऊपर उठते हुए दोनों हाथ और आसमान में ताकती मुख-मुद्रा। मानो, सुर उन्हें दिख रहे हों। संगीत की लहरियाँ जैसे किसी अदृश्य स्लेट पर लिखी हों और वे उन्हें पढ़ते जा रहे हों, गा रहे हों। फिर जब परम्परा के रागों से पढ़ना छूटा तो अपना ही ‘गाँधी मल्हार’ बना लिया। जब ये भी तृप्त न कर पाया तो कबीर को पकड़ा और हिरण को देखा। एक-दो बार नहीं दर्जनों बार। अब जबकि वे नहीं हैं तो मैँ अक़्सर उनकी रिकॉर्डिंग्स देखता हूँ। लगता है कि गाने और देखने के बीच बहुत रोचक संयोजन है। ‘तेरे खाल का करेंगे बिछौना’ वे जब गाते हैं तो लगता है, जैसे व्यथा में फँसने जा रहे हिरनों को सचेत कर रहे हैं।
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सन्तूर बजाते हुए उन्हें देखता हूँ तो लगता है, वे बात कर रहे हैं, उन महीन तारों से। जल तरंग पर सुर उभरते हैं तो लगता है, वे उन्हें हक़ीक़त में देख रहे हैं। शहनाई की गूँज में नसों की तान और महीन आवाज़ की ठसक दिखाई देती है खाँ साहब को। जब डग्गे पर हाथ पड़ता है उनका और उसी बीच कोई अप्रतिम बन्दिश उस्ताद बजाते हैं, तो वे आँखे मूँद लेते हैं। फिर मानो डग्गे और तबले पर धिन-धिन, ताक-ताक नृत्य करते मंच से गुज़रते हैं।
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खजुराहो के मन्दिर की पृष्ठभूमि में केलुचरण महापात्रा की रचना और पदों में डूबकर आँखें बन्द करती नृत्याँगना भी मानो कुछ अदभुत देख रही होती है। मुझे बैले भी याद आते हैं, जिसमें गोल-गोल घूमती स्त्रियाँ मंच पर थिरकते समय आँखें बन्द रखती हैं और वैसे ही अपने दर्शकों को मंत्रमुग्ध करती हैं।
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मैं ‘सड़क’ याद करता हूँ। ‘जिन लाहौर नी वेख्या’ याद करता हूँ। ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’ याद करता हूँ। ‘हयवदन’ याद करता हूँ। ‘आषाढ़ का एक दिन’ याद करता हूँ। तब लगता है कि सभी कलाकार एक रौ में आँखें खोलकर संवाद बोलते हैं। एक-दूसरे को देखते ही हैं। पर फिर लगता है जैसे उनके सामने उस मंच से परे कोई व्योम और है, जहाँ वे ख़ुद को स्थापित करना चाहते हैं, सदैव के लिए। वह व्योम आँख बन्द करके उन्हें दिखता है, हमें नहीं।
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हम सबको भी पूर्वानुमान होते हैं। मैं कभी कोई दृश्य देखता हूँ, तो लगता है यह देख चुका हूँ इससे पहले भी। कुछ घटित होता है, तो लगता है कि यह तो मुझे पता था। अनेक चेहरे बेहद परिचित लगते हैं। हालाँकि बात अहम ये है कि हम इस तमाम देखे हुए में से कुछ को भी महसूस कर पाते हैं या नहीं? अपने भीतर तक, भीतर से और भीतर के लिए।
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देखना सहज है। उसे भीतर उतार पाना विलक्षण, जिसने यह साध लिया वह विष्णु चिंचालकर, कुमार गन्धर्व, बिस्मिल्लाह खाँ, केलुचरण महापात्रा, बिरजू महाराज, शिवकुमार शर्मा, हबीब तनवीर, मोहन राकेश या गिरीश कर्नाड बन गया।
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देखना ही गुनना और बुनना है। एकान्त इसे व्यापक और दीर्घ बनाता है।

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 29वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं : 

28वीं कड़ी : पहचान खोना अभेद्य किले को जीतने सा है!
27वीं कड़ी :  पूर्णता ही ख़ोख़लेपन का सर्वोच्च और अनन्तिम सत्य है!
26वीं कड़ी : अधूरापन जीवन है और पूर्णता एक कल्पना!
25वीं कड़ी : हम जितने वाचाल, बहिर्मुखी होते हैं, अन्दर से उतने एकाकी, दुखी भी
24वीं कड़ी : अपने पिंजरे हमें ख़ुद ही तोड़ने होंगे
23वीं कड़ी : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22वीं कड़ी : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा 
21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो 
20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं 
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें! 
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा 
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा! 
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? 
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ .. 
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है… 
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा 
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं 
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है 
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है! 
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता… 
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा… 
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे 
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो  
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा! 
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा 
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता! 
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो… 
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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