सच! फाइल कश्मीर से ही खुली है?

समीर, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 15/3/2022

फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ को लेकर सोशल मीडिया पर जारी बेइंतिहा गहमागहमी से सभी वाक़िफ़ हैं। फिल्म को लेकर कश्मीरी पंडितों के अनुभव से लेकर विरोध में उठ खड़े हुए पब्लिक इंटलेक्चुअल्स स यह पता तो लग ही जाता है कि इससे जमीन हिली है। सो, इसका जायज़ा लेने के लिए एक लंबे  अरसे के बाद आज आइनॉक्स जाना हुआ। वहाँ ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म से जो अनुभव मिले और उनका क्या महत्त्व समझा, वह यहाँ साझा करता हूँ। 

आमतौर पर जिसे हम फिल्म कहते हैं, वह मनोरंजन की एक उड़ान होती है। ट्रेजिक मेलोड्रामा फिल्म देखकर बहने वाले आँसूओं में भी एक रंजक तत्त्व होता है, जो अवचेतन में जमे हुए भाव के निरसन से उत्पन्न होता है। इस लिहाज से ‘कश्मीर फाइल्स’ एक ‘फिल्म’ मात्र नहीं है। हॉलीवुड की हिस्टोरिकल ड्रामा से भी यह भिन्न है, क्योंकि वहाँ ड्रामा तत्त्व उनके सत्य और इतिहास बोध के साथ तादात्म्य में है। भारतीय परिदृश्य में यह फिल्म एक महत्वपूर्ण घटना है। इसमें फिल्मियत की हैसियत सत्य को बयाँ करने वाले सूत्रधार जितनी ही है। 

कहानी एक पंडित परिवार की है, जिसमें पहले नायक के पिता और दूसरी बार माँ और भाई को मार दिया जाता है। बस इस एक घटना के माध्यम से कश्मीर के मज़हबी, सियासी और सामाजिक स्थिति का जायज़ा मिलता है। यह कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और निर्वासन की सत्य घटनाओं का दस्तावेज़ है। विवेक अग्निहोत्री ने इस फिल्म के माध्यम से एक नया मार्ग खोला है। दुनियाभर में सराही गई चंद सर्वश्रेष्ठ रियलिस्ट फिल्में ज्यादातर ईरान से आई हैं। अगर भारतीय फिल्मकार इस तरह के सिनेमा की दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो यह सरोकार फिल्मों को यथार्थ प्रासंगिकता देगा। फिल्म में नृशंस हत्याओं और वहश की ख़ुद-एतमादी के दृश्य भावनात्मक रूप से विचलित करने वाले हैं। जब अपने छात्र अध्यक्ष चुनाव के पूर्व अपने मुख्य वक्तव्य में नायक सुदीर्घ ग़ुलामी के असर और हमारे सांस्कृतिक मूल्य, तंत्र और संस्थाओं के ह्रास की पृष्ठभूमि को सामने रखता है, तब ‘कश्मीर फाइल्स’ एक सच की चीख लगती है। ऐसा, जिसे हम सबने देखा-सुना है लेकिन उसका कोई अनुक्रोश हमारी सामाजिक चेतना में दर्ज़ ही नहीं है। इसलिए यह गणराज्य भारत हमारी सभ्यता और सांस्कृतिक प्रतिक्रिया पर गहरे सवाल उठाता है। मसलन हमारा इतिहास बोध क्या है, वह कहाँ बसता है, वह कैसे गतिमान होता है? 

‘कश्मीर फाइल्स’ बॉलीवुड मसाला फिल्म नहीं है। इसलिए इसे उस फिल्म क्राफ्ट के पैमाने पर नहीं जाँचा जा सकता। यद्यपि फिल्म के विज़ुअल, थीम और कैमरा-वर्क आकर्षक है। फिर भी वह पूर्व स्थापित प्रतिमानों से प्रभावित ही लगता है, उसमें नैसर्गिक रचनात्मकता की गुंजाइश लगती है। फिर हम भारतवासी क्रमिक सुधारवाद के ही आदी हैं।   

ख़ासियत इसकी, फंतासी से बाहर निकलकर अपने सच को कहने का प्रयास है, जो फिल्म-माध्यम को नई प्रामाणिकता और प्रासंगिकता देता है। सच भाषा, सलीके या तहजीब का पाबंद नहीं होता। नि:संदेह इसकी तुलना ‘रंग दे बसंती’ से की जाएगी, जो निर्देशन, अभिनय, कला कौशल्य, तकनीकी सुघड़ता, सांगीतिकता, शब्दाडंबर और व्यावसायिक सफलता की वजह से एक कल्ट क्लासिक मानी जाती है। ‘कश्मीर फाइल्स’ अपने में निवेशित सत्य की वजह से ‘रंग से बसंती जैसी फॉ-रियलिस्ट फिल्म से एक सीढ़ी ऊपर ही रहेगी। क्योंकि इसने उसे और ‘माचिस’ जैसी फिल्मों को भी, सच्चे कथानक से अपना सटीक जवाब भी दिया है।

अभिनय की दृष्टि से अनुपम खेर, पल्लवी जोशी, चिन्मय मंडलेकर बेहद प्रभावशाली हैं। विवेक रंजन अग्निहोत्री के साथ ही हम सब बधाई के पात्र हैं। ‘कश्मीर फाइल्स’ देखने के बाद फिल्म देखना पह जैसा नहीं रहा। शायद भविष्य के फिल्म इतिहासकार इस फिल्म को कालखंड का पैमाना मानें और फिल्मों को बिफोर ‘कश्मीर फाइल्स’ और आफ्टर ‘कश्मीर फाइल्स’ के रूप में देखें। यह सच की ताकत है। 
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(समीर, भोपाल, मध्य प्रदेश में एक मीडिया संस्थान से जुड़े हैं। उन्होंने फिल्म देखने के बाद उस पर अपनी यह राय वॉट्सऐप के जरिए #अपनीडिजिटलडायरी को भेजी है। वे डायरी के नियमित पाठक हैं और लेखक भी।)

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