जानते हैं, जैन दर्शन में दिगम्बर रहने और वस्त्र धारण करने की परिस्थितियों के बारे में

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 22/2/2022 

आजकल समाज में वस्त्र-विशेष (हिज़ाब) को लेकर उथल-पुथल चल रही है। इसके पक्ष-विपक्ष में अज़ीब-अज़ीब तर्क दिए जा रहे हैं। इसके समर्थक मुँह सहित स्त्री का पूरा शरीर ढँकने सम्बन्धी अपने धार्मिक क़ायदों की दलील दे रहे हैं। वहीं, विरोध करने वाले ये तक कहते सुने जा रहे हैं कि अगर जैन सम्प्रदाय के लोग दिगम्बर होकर कक्षाओं में जाने लगें तो क्या होगा? या नागा साधु विश्वविद्यालय जाने की ज़िद करने लगें तो? 

इन बेहूदा दलीलों, तर्कों को देख, सुनकर दुःख होता है। क्योंकि इससे यह स्पष्ट होता है कि हम अपनी ही परम्पराओं, अपने ही नियमों और उनसे जुड़ी परिस्थितियों को नहीं जानते। फिर अन्य पंथ के बारे में तो क्या ही जानेगा। इसीलिए, आज यह सन्दर्भ लेते हुए हम जैन दर्शन में दिगम्बर रहने और वस्त्र धारण करने की परिस्थितियों को जानने-समझने की कोशिश करते हैं। थोड़ा यह भी देखते हैं कि अन्य ग्रंथों में इस सम्बन्ध में क्या व्यवस्थाएँ मिलती हैं।  

जैन परम्परा में दो प्रकार के मुनि दिखाई देते हैं। एक दिगम्बर और दूसरे श्वेताम्बर। दिगम्बर अर्थात् दिशाएँ ही जिसके परिधान हों। श्वेताम्बर अर्थात् जो श्वेत आवरण धारण किए हों। दोनों ही प्रकार के मुनि हमें समाज में दिखाई दे जाते हैं। दोनों ही मुनि समाज के लिए पूज्य हैं, वन्दनीय हैं। 

जैनदर्शन की इस श्रृंखला के दौरान हम पूर्व में एक बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द पढ़ चुके हैं, ‘अपरिग्रह’। इसी अपरिग्रह का उपलक्षण है ‘अचेलक’ अर्थात् वस्त्र न पहने वाला व्यक्ति। 

इस संबंध में आचार्य लिखते हैं, 

“देसमासियसुत्तं आचेलक्कंति तं खु ठिदिकप्पे लुत्तोत्थ आदिसद्दो जह तालपलं वसुत्तम्मि। णय होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं। तह्मा आचेलक्क चाओ सव्वेसिं होइ संगाणं।” (भगवती आराधना 1123) 

यहाँ चेल शब्द परिग्रह का उपलक्षण है। अतः चेल शब्द का अर्थ वस्त्र ही न समझकर उसके साथ अन्य परिग्रहों को भी समझना चाहिए। मतलब वस्त्र मात्र का त्याग करने पर भी यदि मनुष्य अन्य परिग्रहों से युक्त है, तो इसको संयत मुनि नहीं कहना चाहिए। अतः वस्त्र के साथ संपूर्ण परिग्रह त्याग जिसने किया, वही ‘अचेलक’ माना जाता है। 

जैन दर्शन में दिगम्बर मुनि को साधु शब्द से अलंकृत करते हए कहा गया है, 

“आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे। जेट्ठपडिक्कमणे वि य मासं पज्जो सवणकप्पो।” (भगवती आराधना 421)

इनमें अचेलकत्व, उद्दिष्ट भोजन का त्याग, शय्याग्रह का त्याग, रायपिंड अर्थात् अमीरों के भोजन का त्याग, कृतिकर्म अर्थात् साधुओं की विनय शुश्रूषा आदि करना, व्रत अर्थात् जिसे व्रत का स्वरूप मालूम है उसे ही व्रत देना, ज्येष्ठ अर्थात् अपने से अधिक का योग्य विनय करना, प्रतिक्रमण अर्थात् नित्य लगे दोषों का शोधन, मासैकवासता अर्थात् छहों ऋतुओं में से एक मासपर्यंत एकत्र मुनियों का निवास और पद्य अर्थात् वर्षाकाल में चार मासपर्यंत एक स्थान पर निवास। ये साधु के 10 स्थितिकल्प कहे जाते हैं। इसमें अचेलकत्व सबसे प्रथम है। 

लेकिन यहीं अगर हम देखें तो जैन-दर्शन में वस्त्र न पहनने का विधान सिर्फ़ मुनियों के लिए मिलता है। आर्यिकाओं को लिए , गृहस्थों के लिए, तो स्वच्छ वस्त्र पहनने का निर्देश मिलता है।

“आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया” सूत्रपाहुड़ 22। 

अर्थात् आगम में आर्यिकाओं/ साध्वियों को वस्त्र  धारण  करने की आज्ञा है। 

“लिंगं इत्थीण हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि। अज्जिय वि एकवत्था वत्थावरणेण भंजेइ।”सूत्रपाहुड़ 22। 

अर्थात् साध्वी स्त्री एक काल भोजन करे, एक वस्त्र धरे और भोजन करते समय भी वस्त्र को न उतारे।  हालांकि यह भी ध्यान रखने की बात है कि ये आदेश पिंड अर्थात्‌ शरीर को ढँकने के सम्बन्ध में हैं न कि मुख आच्छादन के लिए। 

वस्त्र का सन्दर्भ विश्व साहित्य का आदिम लिखित ग्रंथ ऋग्वेद में भी मिलता है। उसमें ऋषि युवा से कहता है,

“युवा सुवासा: परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमान:। तं धीरास: कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो3 मनसा देवयन्त:।।” 

अर्थात् युवा पुरुष उत्तम वस्त्रों को धारण किए हुए, सब विद्या से प्रकाशित जब गृहस्थाश्रम में आता है, तब वह प्रसिद्ध होकर श्रेय मंगलकारी शोभायुक्त होता है। उसे धीर, बुद्धिमान, विद्वान, अच्छे ध्यानयुक्त मन से विद्या के प्रकाश की कामना करते हुए, ऊँचे पद पर बैठाते हैं।

वहीं युवा व्यक्ति कहता है, 

“परिधास्यै यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि। शतं च जीवामि शरद: पुरूची रायस्पोषमभिसंव्ययिष्ये।।” (पारस्करगृह्य सूत्र) 

हे सज्जनो! अपने शरीर को आच्छादित करने के लिए, प्रतिष्ठा के लिए और दीर्घ जीवन के लिए शरीररूप धन को पुष्टि करने वाले सुन्दर वस्त्रों को मैं समावृत्त अच्छे प्रकार धारण करूँगा।

आपस्तंब धर्म सूत्र में भी ऋषि स्पष्ट कहते हैं, “न मुहूर्तमप्यप्रयतः स्यात्। नग्नो वा।” (आपस्तंबधर्मसूत्र प्रश्न 1,सूत्र5)

यथासम्भव एक क्षण भी अपवित्र एवं नग्न नहीं रहना चाहिए।

इस तरह हम दो मत देखते हैं। एक हमें वस्त्रों सहित सभी आवरण छोड़ने का निर्देश देता है। जबकि  दूसरा- उसकी अहमियत बताता है। महत्व दोनों का है। सही दोनों हैं। बस, परिस्थितियाँ अलग-अलग हैं, जिन्हें ऐसी चीजों पर विचार करते हुए ध्यान रखना बेहद ज़रूरी हो जाता है।

लेकिन हम तो जैसे अपने उथलेपन से ही खुश हैं। आधी-अधूरी जानकारियों से ही प्रसन्न हैं। अज्ञानियों की तरह किसी एक सिरे को पकड़कर अपने मत-मतांतर को समान रूप से हर जगह लागू करना चाहते हैं। कैसी विडम्बना है?
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 46वीं कड़ी है।) 
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ… 
45. अपरिग्रह : जो मिले, सब ईश्वर को समर्पित कर दो
44. महावीर स्वामी के बजट में मानव और ब्रह्मचर्य
43.सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से बाँट दो
42. सत्यव्रत कैसा हो? यह बताते हुए जैन आचार्य कहते हैं…
41. भगवान महावीर मानव के अधोपतन का कारण क्या बताते हैं?
40. सम्यक् ज्ञान : …का रहीम हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात!
39. भगवान महावीर ने अपने उपदेशों में जिन तीन रत्नों की चर्चा की, वे कौन से हैं?
38. जाे जिनेन्द्र कहे गए, वे कौन लोग हैं और क्यों?
37. कब अहिंसा भी परपीड़न का कारण बनती है?
36. सोचिए कि जो हुआ, जो कहा, जो जाना, क्या वही अंतिम सत्य है
35: जो क्षमा करे वो महावीर, जो क्षमा सिखाए वो महावीर…
34 : बौद्ध अपनी ही ज़मीन से छिन्न होकर भिन्न क्यों है?
33 : मुक्ति का सबसे आसान रास्ता बुद्ध कौन सा बताते हैं?
32 : हमेशा सौम्य रहने वाले बुद्ध अन्तिम उपदेश में कठोर क्यों होते हैं? 
31 : बुद्ध तो मतभिन्नता का भी आदर करते थे, तो उनके अनुयायी मतभेद क्यों पैदा कर रहे हैं?
30 : “गए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास”
29 : कोई है ही नहीं ईश्वर, जिसे अपने पाप समर्पित कर हम मुक्त हो जाएँ!
28 : बुद्ध कुछ प्रश्नों पर मौन हो जाते हैं, मुस्कुरा उठते हैं, क्यों?
27 : महात्मा बुद्ध आत्मा को क्यों नकार देते हैं?
26 : कृष्ण और बुद्ध के बीच मौलिक अन्तर क्या हैं?
25 : बुद्ध की बताई ‘सम्यक समाधि’, ‘गुरुओं’ की तरह, अर्जुन के जैसी
24 : सम्यक स्मृति; कि हम मोक्ष के पथ पर बढ़ें, तालिबान नहीं, कृष्ण हो सकें
23 : सम्यक प्रयत्न; बोल्ट ने ओलम्पिक में 115 सेकेंड दौड़ने के लिए जो श्रम किया, वैसा! 
22 : सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो 
21 : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो? 
20 : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है 
19 : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है 
18 : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है 
17 : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं? 
16 : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला? 
15 : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है? 
14 : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है? 
13 : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं? 
12 : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन 
11 : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई? 
10 :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है? 
9 : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की! 
8 : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है?  
7 : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे? 
6 : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है 
5 : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा? 
4 : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं? 
3 : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए! 
2 : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा? 
1 : भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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