लता की 3 मिनट की ध्वनि-मुद्रिका में समा जाता है 3 घंटों की महफ़िल का रसः कुमार गंधर्व

टीम डायरी, 06/02/2022

बरसों पहले की बात है। मैं बीमार था। उस बीमारी में एक दिन मैंने सहज ही रेडियो लगाया और अचानक एक अद्वितीय स्वर मेरे कानों में पड़ा। स्वर सुनते ही मैंने अनुभव किया कि यह स्वर कुछ विशेष है, रोज़ का नहीं। यह स्वर सीधे मेरे कलेजे से जा भिड़ा। मैं तो हैरान हो गया। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह स्वर किसका है। मैं तन्मयता से सुनता ही रहा। गाना समाप्त होते ही गायिका का नाम घोषित किया गया – लता मंगेशकर। नाम सुनते ही मैं चकित हो गया। मन ही मन एक संगति पाने का अनुभव भी हुआ। सुप्रसिद्ध गायक दीना-नाथ मंगेशकर की अजब गायकी एक दूसरा स्वरूप लिये उन्हीं की बेटी की कोमल आवाज़ में सुनने का अनुभव हुआ। मुझे लगता है ‘बरसात’ के भी पहले के किसी चित्रपट का कोई गाना था। तब से लता निरंतर गाती चली आ रही है और मैं भी उसका गाना सुनता आ रहा हूँ। 

लता के पहले प्रसिद्ध नूरजहाँ का चित्रपट संगीत में अपना ज़माना था। परन्तु उसी क्षेत्र में बाद में आयी हुई लता उससे कहीं आगे निकल गयी। कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दिख पड़ते हैं। जैसे- प्रसिद्ध सितारिये विलायत खां अपने सितार वादक पिता की तुलना में बहुत ही आगे चले गये।

मेरा स्पष्‍ट मत है कि भारतीय गायिकाओं में लता के जोड़ की गायिका हुई ही नहीं। लता के कारण चित्रपट संगीत को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हुई है। यही नहीं, लोगों का शास्‍त्रीय संगीत की ओर देखने का दृष्‍टिकोण भी एकदम बदला है। एक छोटी-सी बात कहूँगा। पहले भी घर-घर में छोटे-छोटे बच्चे गाया करते थे। पर उस गाने में, और आजकल घरों में सुनाई देने वाले बच्चों के गाने में बहुत अंतर हो गया है। आजकल के बच्चे भी स्वर में गुनगुनाते हैं। क्या लता इस जादू का कारण नहीं हैं?

कोकिला का निरंतर स्वर कानों में पड़ने लगे तो कोई भी सुनने वाला उसका अनुकरण करने का प्रयत्‍न करेगा। यह स्वाभाविक ही है। चित्रपट संगीत के कारण सुंदर स्वर-मालिकाएं लोगों के कानों में पड़ रही हैं। संगीत के विविध प्रकारों से उनका परिचय हो रहा है। उनका स्वर ज्ञान बढ़ रहा है। सुरीलापन क्या है, इसकी समझ भी उन्हें होती जा रही है। तरह-तरह की लय के भी प्रकार उन्हें सुनाई पड़ रहे हैं और आकारयुक्त लय के साथ उनकी जान-पहचान होती जा रही है। साधारण प्रकार के लोगों को भी उसकी सूक्ष्मता समझ में आने लगी लगी है।

इन सबका श्रेय लता को ही है। इस प्रकार उसने नयी पीढ़ी के संगीत को संस्कारित किया है और सामान्य मनुष्य में संगीत विषयक अभिरुचि पैदा करने में बड़ा हाथ बंटाया है। संगीत की लोकप्रियता, उसका प्रसार और अभिरुचि के विकास का श्रेय लता को ही देना पड़ेगा। सामान्य श्रोता को अगर आज लता की ध्वनि-मुद्रिका और शास्‍त्रीय गायकी की ध्वनि-मुद्रिका सुनाई जाए तो वह लता की ध्वनि-मुद्रिका ही पसंद करेगा। गान कौन से राग में गाया गया और ताल कौन-सा था, यह शास्‍त्रीय ब्यौरा इस आदमी को सहसा मालूम नहीं रहता। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि राग, मालकौंस था और ताल, त्रिताल। उसे तो चाहिये वह मिठास, जो उसे मस्त कर दे, जिसका वह अनुभव कर सके। और यह स्वाभाविक ही है। क्योंकि जिस प्रकार मनुष्यता हो तो वह मनुष्य है, वैसे ही ‘गान-पन’ हो तो वह संगीत है। और लता का कोई भी गाना लीजिये, तो उसमें शत-प्रतिशत यह ‘गान-पन’ मिलेगा।

लता की लोकप्रियता का मुख्य मर्म यह ‘गान-पन’ ही है। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसके स्वरों की निर्मलता। उसके पहले की पार्श्‍व गायिका नूरजहाँ भी एक अच्छी गायिका थी, इसमें संदेह नहीं है। तथापि, उसके गाने में एक मादक उत्तान दिखता था। लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है।

ऐसा दिखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का दृष्‍टिकोण है, वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है। हाँ, संगीत दिग्दर्शकों ने उसके स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिये था, उतना नहीं किया। मैं स्वयं यदि संगीत दिग्दर्शक होता तो लता को बहुत जटिल काम देता, ऐसा कहे बिना नहीं रहा जाता। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चार। उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर, स्वरों की आस द्वारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक दूसरे में मिल जाते हैं। यह बात पैदा करना बड़ा कठिन है, परन्तु लता के साथ यह बात अत्यन्त सहज और स्वाभाविक हो बैठी है।

ऐसा माना जाता है कि लता के गाने में करुण रस, विशेष प्रभावशाली रीति से व्यक्त होता है, पर मुझे ख़ुद ये बात नहीं पटती। मेरा अपना मानना है कि लता ने करुण रस के साथ उतना न्याय नहीं किया है। बजाय इसके मुग्ध शृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय के गाने लता ने बड़ी उत्कृष्‍टता से गाये हैं। मेरी दृष्‍टि से उसके गायन में एक और कमी है, तथापि ये कहना कठिन होगा कि इसमें लता का दोष कितना है और संगीत दिग्दर्शकों का दोष कितना। लता का गाना सामान्यतया ऊँची पट्टी में रहता है। गाने में संगीत दिग्दर्शक उसे अधिकाधिक ऊँची पट्टी में गवाते हैं और उसे अकारण ही चिलवाते हैं। एक प्रश्‍न उपस्थित किया जाता है कि शास्‍त्रीय संगीत में लता का स्थान कौनसा है। मेरे मत से यह प्रश्‍न ख़ुद ही प्रयोजनहीन हो जाता है और उसका कारण है कि शास्‍त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत में तुलना हो ही नहीं सकती। जहाँ गंभीरता शास्‍त्रीय संगीत का स्थायीभाव है, वहीं जलद लय, चपलता, चित्रपट संगीत का मुख्य गुणधर्म है।

चित्रपट संगीत का ताल प्राथमिक अवस्था का ताल होता है, जबकि शास्‍त्रीय संगीत में ताल अपने परिष्कृत रूप में पाया जाता है। चित्रपट संगीत में आधे तालों का उपयोग किया जाता है। उसकी लयकारी बिल्कुल अलग होती है। आसान होती है। यहाँ गीत और आघात को ज़्यादा महत्त्व दिया जाता है। सुलभता और लोच को अग्रस्थान दिया जाता है। तथापि, चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्‍त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है और वह लता के पास निःसंशय है।

तीन-साढ़े तीन मिनट के गाये हुए चित्रपट के किसी गाने का और एकाध ख़ानदानी शास्‍त्रीय गायक की तीन-साढ़े तीन घंटे की महफ़िल, इन दोनों का कलात्मक और आनंदात्मक मूल्य एक ही है, ऐसा मैं मानता हूं। किसी उत्तम लेखक का कोई विस्तृत लेख जीवन के रहस्य का विशद रूप में वर्णन करता है, तो वही रहस्य छोटे से सुभाषित का या नन्ही-सी कहावत में सुंदरता और परिपूर्णता से प्रकट हुआ प्रतीत होता है। उसी प्रकार तीन घंटों की रंगदार महफ़िल का सारा रस, लता की तीन मिनट की ध्वनि-मुद्रिका में आस्वादित किया जा सकता है। उसका एक-एक गीत, एक सम्पूर्ण कलाकृति होती है। स्वर, लय, शब्दार्थ का वहाँ त्रिवेणी संगम होता है और महफ़िल की बेहोशी उसमें समाई रहती है।

वैसे देखा जाये तो शास्‍त्रीय संगीत क्या और चित्रपट संगीत क्या, अंत में रसिक को आनन्द देने का सामर्थ्य किस गाने में कितना है, इस पर उसका महत्त्व ठहराना उचित है। मैं तो कहूँगा कि शास्‍त्रीय संगीत भी रंजक न हो, तो वो बिल्कुल नीरस ठहरेगा। अनाकर्षक प्रतीत होगा। और उसमें कुछ कमी-सी प्रतीत होगी। गाने में जो गानापन प्राप्त होता है, वह केवल शास्‍त्रीय बैठक के पक्केपन की वजह से होता है, ताल-सुर के निर्दोष ज्ञान के कारण नहीं। गाने की सारी मिठास, सारी ताकत मुख्यत: उसकी रंजकता पर अवलम्बित रहती है। और रंजकता का मर्म रसिक वर्ग के समक्ष कैसे प्रस्तुत किया जाये, किस रीति से उसकी बैठक बिठाई जाये और श्रोताओं से कैसे सु-संवाद साधा जाये, इसमें समाविष्‍ट है। किसी मनुष्य का अस्थिपंजर और एक प्रतिभाशाली कलाकार द्वारा उसी मनुष्य का तैलचित्र, इन दोनों में जो अंतर होगा, वही गायन के शास्‍त्रीय ज्ञान और स्वरों द्वारा की गई उसकी सु-संगत अभिव्यक्ति में होगा।
 
(लता मंगेशकर पर पंडित कुमार गंधर्व का लिखा यह लेख अपनी डिजिटल डायरी पर कलापिनी कोमकली के सौजन्य से लाया गया है। कलापिनी कुमार गंधर्व जी की बेटी हैं। अपनी डिजिटल डायरी उनकी आभारी है। लता जी के फ़िल्म में गाने को जब 25 वर्ष पूर्ण हुए, तब एक पुस्तक के लिए बाबा (कुमार गंधर्व) ने ‘अभिजात कलावती’ नाम से मराठी में यह लेख लिख था, जिसे धर्मयुग में हिंदी में दिया गया था। पिछले दशक में ही इस लेख को कक्षा 10वीं के पाठ्यक्रम में हिंदी विषय में शामिल किया गया।)
 

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