प्रतीकात्मक तस्वीर
टीम डायरी
जानते सब हैं। मानते कुछ लोग हैं। और पालन कम लोग ही करते हैं। अच्छी बातों के लिए यह एक सर्वमान्य सा तथ्य है। शायद इसीलिए विज्ञान को बार-बार विभिन्न शोध, अध्ययनों आदि से इन बातों को सिद्ध करना पड़ता है। अब हँसी-खुशी के मनोविज्ञान को ही ले लें। सभी को पता है कि यह फ़ायदेमन्द है। सब मानते हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा खुश रहने की क़ोशिश करनी चाहिए। फिर भी वास्तव में खुश रहते कितने लोग हैं? बहुत कम न? सच्चाई है ये कि आधुनिक दौर में जीवन जीने के आपाधापी भरे तौर-तरीक़ों ने हम इंसानों को तनाव ही ज़्यादा दिया है। हालाँकि फिर भी विज्ञान का तो काम ही है तार्किक तरीक़ों से विभिन्न चीज़ों को सिद्ध कर हम तक पहुँचाना। और उसने फिर हँसी-खुशी के मनोविज्ञान के बारे में कुछ तथ्य हम तक पहुँचाए हैँ। ग़ौर कीजिएगा।
एक शोध-अध्ययन लन्दन विश्वविद्यालय में हुआ। इसके मुताबिक यदि कोई व्यक्ति किसी कलात्मक गतिविधि के लिए दिनभर में कुछ समय निकालता है तो इससे उसे खुशी मिलती है। और उसके लिए कुछ देर की यह खुशी आठ घंटे की नींद के बराबर होती है। हालाँकि यहाँ सवाल हो सकता है कि कलात्मक गतिविधि क्या? ज़्यादातर लोग इसका ज़वाब देंगे कि संगीत, लेखन, चित्रकला जैसा कुछ। तो हम कहेंगे नहीं, थोड़ा ठहरिए। कोई भी गतिविधि जो आप शऊर से, सलीके से, क़रीने से करते हैं, वह कलात्मक है। मसलन- किसी को खाना बनाने का शौक़ है, और वह नई-नई जुगत लगाकर कुछ न कुछ नया बनाता रहता है, तो उसके लिए यह कलात्मक गतिविधि हुई। इसी तरह, किसी को घर में हर चीज़ सजाकर रखने का शौक़ है, तो उसके लिए वह कलात्मक गतिविधि है। लिहाज़ा सुनिश्चित करें कि किसी न किसी कलात्मक गतिवधि में रोज़ अपना कुछ वक़्त ज़रूर लगे ही।
ऐसे ही, अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रान्त में पैपरडाइन यूनिवर्सिटी है। बताते हैं कि वहाँ मनोवैज्ञानिक डॉक्टर स्टीवन साल्टनफ बीते 40 सालों से हँसी-मज़ाक करते-करते मानसिक व्याधियों से पीड़ित लोगों का इलाज़ कर रहे हैं। उनके अध्ययन, उनके प्रयोग और निष्कर्षों ने सिद्ध किया है कि हँसी-मज़ाक से दिमाग़ की ताक़त बढ़ती है। शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है। ऊर्जा का स्तर भी बढ़ता है। सो, अब तमाम लोग दूसरों को मशवरा देने लगे हैं कि रोज़ किसी न किसी बात पर ठहाके लगाकर हँसिए ज़रूर। परिचितों के साथ स्वस्थ हँसी-मज़ाक करिए। इसे दिनचर्या का हिस्सा बनाइए। उम्र दसियों साल बढ़ जाएगी और ज़्यादातर समय स्वस्थ रहने की सम्भावना भी।
अमेरिका में ही एक और अध्ययन हुआ। उसमें ये साबित किया गया कि हँसी-मज़ाक का मनोविज्ञान सिर्फ़ इंसान ही नहीं, पेड़-पौधे तक अच्छी तरह समझते हैं। इससे उनकी वृद्धि में सकारात्मक असर पड़ता है। इसका कारण ये है कि जहाँ स्वस्थ हँसी-मज़ाक (एक-दूसरे का मज़ाक उड़ाने जैसा नहीं) होता है, वहाँ एक तरह की सकारात्मक ऊर्जा वातावरण में बनी रहती है। वही ऊर्जा पेड़-पौधों पर भी स्वाभाविक असर डालती है। वे भी मुस्कुराने लगते हैं। यानी कि हरे और भरे हो जाते हैं।
तो भाई, सौ की सीधी एक बात है, हँसो-मुस्कुराओ न यार। ज़िन्दगी में जो हो रहा है, वह तो हो ही रहा है। और जो होना है, वह भी होगा ही। सो, फ़ालतू रोने-पीटने, दुखी-मायूस होने में रखा क्या है?
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प लगभग वह सब कर रहे हैं, जो उनसे अपेक्षित था।… Read More
आज रविवार, 18 मई के एक प्रमुख अख़बार में ‘रोचक-सोचक’ सा समाचार प्रकाशित हुआ। इसमें… Read More
मेरे प्यारे बाशिन्दे, मैं तुम्हें यह पत्र लिखते हुए थोड़ा सा भी खुश नहीं हो… Read More
पाकिस्तान के ख़िलाफ़ चलाए गए भारत के ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ का नाटकीय ढंग से पटाक्षेप हो… Read More
अगर आप ईमानदार हैं, तो आप कुछ बेच नहीं सकते। क़रीब 20 साल पहले जब मैं… Read More
कल रात मोबाइल स्क्रॉल करते हुए मुझे Garden Spells का एक वाक्यांश मिला, you are… Read More