गुरु द्रोण और एकलव्य
नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश
उस रोज़ संगीत दिवस था। तारीख इसी 21 जून की। एक घटना ऐसी हुई कि मुझे महाभारत का एकलव्य-द्रोण-अर्जुन प्रसंग फिर याद आ गया। ऐसी घटनाएँ देखकर, इनसे गुज़र कर मुझे अक्सर यह प्रसंग याद आ जाता है। याद आता है कि कैसे एक बड़े आचार्य और गुरु कहे गए द्रोण ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के लिए ‘तिरस्कृत शिष्य’ एकलव्य के दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया था। और उस गुरु भक्त ने भी हँसते-हँसते अपना अँगूठा देने में एक क्षण न लगाया। यह जानते हुए भी कि दाहिने हाथ का अँगूठा दे देने के बाद वह अपनी धनुर्विद्या को उस तरह नहीं साध सकेगा, जैसी उसने सिर्फ़ गुरु की मूर्ति सामने रख महज़ अपने अभ्यास से साध ली थी। उसे पता था कि अब वह अर्जुन जैसे धनुर्धर से आगे निकलने की बात तो दूर उसके बराबर भी न ठहर सकेगा।
बावजूद इसके एकलव्य ने नहीं सोचा। ऐसी गुरु भक्ति और गुरु दक्षिणा को अपनी नियति मानकर स्वीकार किया। लेकिन फिर तभी मुझे याद आती है गुरु द्रोण की नियति। याद आता है महाभारत के युद्ध का मैदान, जहाँ गुरु द्रोण मुक़ाबले के लिए अर्जुन और उनके सखा-सारथी श्रीकृष्ण के सामने खड़े हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने ‘अधर्म का साथ लेने-देने वाले’ गुरु द्रोण को उनके कर्मों का प्रतिफल देने की योजना बनाई हुई है। वे धर्मराज युधिष्ठिर से युद्ध क्षेत्र में घोषणा करवाते हैं, “अश्वत्थामा मारा गया”। यह घोषणा एक हाथी के मारे जाने की थी। लेकिन गुरु द्रोण ने समझ लिया कि उनका पुत्र ‘अश्वत्थामा’ मारा गया। उन्होंने हथियार छोड़ दिए। रथ पर ही बैठ गए। और इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर उनके ‘प्रिय अर्जुन’ ने ही अपने बाणों से उन्हें लहुलुहान कर दिया।
और इसी वक़्त मुझे याद आती है ‘द्रोण के प्रिय अर्जुन’ की नियति भी। अब समय भगवान श्रीकृष्ण के प्रयाण का है। वे इस जगत से अपने धाम जाने से पहले अर्जुन को ज़िम्मा सौंपते हैं, “मेरे पीछे यदुवंश के जो बच्चे और स्त्रियाँ बच रहें, उन्हें ले जाकर मथुरा में बसा देना।” अर्जुन आज्ञा को सिर-माथे लेते हैं। भगवान के श्रीधाम प्रयाण कर जाने के बाद द्वारिका से मथुरा रवाना होते हैं। उनसे सुरक्षित-संरक्षित यदुवंश की नारियाँ, बच्चे आदि पीछे-पीछे हैं। पर रास्ते में उन्हें भील आदिवासी घेर लेते हैं। भील आदिवासी, उसी एकलव्य के वंशज और जाति-भाई, जिसे इन्हीं अर्जुन के लिए बलिदान देने पर मज़बूर किया गया। हालाँकि अर्जुन को अब भी अपने महान् धनुर्धर होने पर गर्व है। लेकिन क्षण-मात्र में उनका ये गर्व ज़मीन सूँघ जाता है। धनुर्विद्या में उनसे आधे भी न ठहरने वाले भील-भिलाले उन्हें परास्त कर यदुवंश की नारियों के गहने-ज़ेवर लूट ले जाते हैं।
“मनुष बली नहीं होत है, समय होत बलवान। भिल्लन लूटीं गोपिका, बेई अर्जुन बेई बान।।” उस रोज़ संगीत दिवस पर मेरे गुरु ने मुझे उस एक घटना के मार्फ़त यही सिखाया। वह घटना क्या थी, उसका ज़िक्र मैं नहीं कर रहा हूँ। आगे भी नहीं करूँगा। क्योंकि किसी की अवमानना मेरा मक़सद नहीं है। मैं तो बस उस सबक को सामने रखना चाहता था, जो उस घटना के ज़रिए मुझे मिला। क्योंकि यह सबक सिर्फ़ मेरे लिए नहीं है। एकलव्य जैसी नियति को महसूस करने वाले हर शिष्य, हर शिक्षार्थी के लिए है। यह सबक उसे याद दिलाता रहेगा कि नीयत भले जल्द बदल जाए, पर वक़्त के साथ नियति भी बदल ही जाती है।
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