प्रतीकात्मक तस्वीर (साभार)
नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश से
जिसने भी कहा, पूरी तरह ठीक नहीं कहा कि ‘नाम में क्या रखा है’। सच तो ये है कि ‘नाम में बहुत कुछ रखा है’। आज, 27 जनवरी की ही बात है। थोड़ा सामान लेने शाम को एक किराना-स्टोर पर गया। उसके मालिक मुस्कुराकर मिले तो उनसे बात करने की इच्छा हुई। तभी उनकी कुर्सी के पीछे उनके पिता जी की तस्वीर पर मेरी नज़र अटक गई। उसमें उनके पिता जी का नाम लिखा था। मगर बात शुरू हुई उपनाम यानि कि सरनेम से। उनका उपनाम ‘पुरस्वानी’ है। कुछ अलग सा। यही नहीं, कुछ साल पहले भी यह उपनाम मेरे ज़ेहन में अटका था, जब मेरे दफ़्तर की एक लड़की का इसी उपनाम वाले परिवार में विवाह हुआ था।
लिहाज़ा मैंने पूछ लिया, “सर, आप इस ‘पुरस्वानी’ सरनेम वाले एक ही हैं या भोपाल शहर में कुछ और परिवार भी हैं?” तो उन्होंने कहा, “नहीं, कुछ और भी हैं। पर क्यों?” तो मैंने बताया, “मेरी एक परिचित की इसी उपनाम वाले परिवार में शादी हुई है।” अलबत्ता, यहाँ से जो सिलसिला आगे बढ़ा, वह मेरे लिए पूरी तरह अनापेक्षित था। क्योंकि अब वे मुझे हिन्दुस्तानी की आज़ादी के वक़्त के मंज़र की एक कहानी बता रहे थे, “हम लोग पाकिस्तान से शरणार्थी के तौर पर हिन्दुस्तान आए हैं। मूल रूप से सिन्ध प्रान्त के हैं। हालाँकि मेरी पैदाइश तो हिन्दुस्तान में ही हुई। लेकिन मेरी माँ सिन्ध (पाकिस्तान) में ही पैदा हुई थीं। वह आज भी हमें उन दिनों के क़िस्से-कहानियाँ बताया करती हैं। वे सात बरस की थीं, जब उन्हें भरे-पूरे परिवार के साथ इस तरफ़ आना पड़ा। उस दौर के ऐसे-ऐसे वाक़िअे उनकी यादों में हैं कि मैं बताने लग जाऊँ तो एक किताब लिख जाए। लम्बी दास्तान है जनाब।”
मेरा मन किया कि मैं इस ‘उपनाम’ से जुड़ी उनकी कहानी के कुछ और पहलुओं से वाक़िफ़ हो सकूँ। लेकिन वह उस वक़्त मुमकिन न हो सका। क्योंकि उनके स्टोर पर लोगों की आवाज़ाही बढ़ रही थी और उनकी मशरूफ़ियत। हालाँकि वे ख़ुद उस मशरूफ़ियत के बाद भी अपनी कहानी आगे कहते जाने को तैयार दिख रहे थे, पर मुझे ही ठीक नहीं लगा। सो, मैंने कहा, “कभी फुर्सत का वक़्त निकालिए सर, आप के इस ‘उपनाम’ से जुड़ी पूरी कहानी सुनेंगे।” “जी, ज़रूर”, उन्होंने कहा और मैं उनसे वक़्ती तौर पर विदा लेकर आ गया।
अलबत्ता, घर लौटते वक़्त पूरे रास्ते यह बात ज़ेहन में बार-बार आती रही कि ‘नाम में क्या रखा है’, ये जुमला कितना सतही है। क्योंकि ‘नाम’ की अस्ल में कहानी तो क्या, महिमा हुआ करती है।
आध्यात्मिक सन्दर्भ में ही सही, रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी भी कह गए हैं न…
“कलिजुग केवल नाम अधारा। सुमिर, सुमिर नर उतरहिं पारा।।”
अर्थात् : कलियुग में सिर्फ़ (भगवान का) नाम ही है, जिसका जप कर के लोग संसार सागर से पार उतर सकते हैं।
बल्कि कलियुग ही क्या नाम की महिमा हर युग में महान रही है। चाहे नाम प्रह्लाद ने लिया हो, चाहे शबरी ने, द्रौपदी, सुदामा और तुलसीदास जैसे कितने ही भक्तों ने नाम का सहारा लेकर अपना जीवन सफल कर लिया।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने ही एक जगह और नाम की महिमा गाई है,
“जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका।”
मतलब : यद्यपि प्रभु के अनेक नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक से एक बढ़कर हैं। तो भी हे नाथ! ‘राम’ नाम सब नामों से बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो।
इसी तरह, कभी बृजभूमि में जाकर देखिए। वहाँ ‘राधा’ नाम की महिमा दिखाई, सुनाई देगी। ‘राधे राधे’ कहते-कहते तमाम लोग वहाँ श्री कृष्ण से एकाकार होने को आतुर दिखाई देंगे। जो लोग वहाँ गए हैं, उन्होंने इस आतुरता को अपनी आँखों से देखा भी होगा। मन से महसूस किया होगा।
हालाँकि इसके बाद भी अगर किसी को लगे कि ‘नाम में क्या रखा है’, तो लगता रहे। क्या फ़र्क पड़ता है?
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