लिज़ा स्थालकर : खेल दिवस पर भारत का मान बढ़ाने वाली इस बेटी का ज़िक्र

टीम डायरी ; 29/8/2020

आज राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया गया। हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचन्द का जन्मदिन। भारत का मान बढ़ाने वाले खेल-खिलाड़ियों को उनके हिस्से का सम्मान देने का दिन भी। लिहाज़ा, दूर देश में भारत का मान बढ़ाने वाली एक बेटी का जिक्र करने का भी इससे बेहतर मौका कोई हो नहीं सकता। उसका नाम लिज़ा स्थालकर है। बेहद प्रेरक कहानी है लिज़ा की। हालाँकि ये बात दीगर है कि भारत के मीडियाने उसकी कहानी को जगह देने की ज़्यादा ज़हमत नहीं उठाई। पर ऑस्ट्रेलिया के अग्रणी अख़बार ‘द गार्जियन’ ने इसी 26 अगस्त को उसकी कहानी प्रकाशित की है। 

लिज़ा ऑस्ट्रेलियाई महिला क्रिकेट टीम की पूर्व कप्तान हैं। फिलहाल वे प्रशिक्षक (कोच), प्रशासक, कमेन्टेटर आदि के रूप में ऑस्ट्रेलियाई और विश्व क्रिकेट को अपनी सेवाएँ दे रहीं हैं। उन्हें कुछ समय पहले ही आईसीसी (अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद) क्रिकेट ‘हॉल ऑफ फेम’ में शामिल किया गया है। ‘हॉल ऑफ फेम’ वह समूह या सूची है, जिसका उद्देश्य क्रिकेट इतिहास के दिग्गज खिलाड़ियों की उपलब्धियों को पहचान कर उन्हें सम्मानित करना है। इस सूची में जगह बनाने वाली लिज़ा 27वीं ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी हैं। जबकि पाँचवीं ऑस्ट्रेलियाई महिला क्रिकेटर हैं। इस सूची में शामिल होना क्रिकेट की दुनिया में बड़े सम्मान की बात माना जाता है। इसका प्रमाण है कि भारत के पुरुष खिलाड़ियों में भी अब तक सिर्फ़ चार- बिशन सिंह बेदी, कपिल देव, सुनील गावसकर और अनिल कुम्बले ही इस सूची जगह बना पाए हैं। इसी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि लिज़ा की उपलब्धि कितनी बड़ी है। 

हालाँकि इस उपलब्धि तक लिज़ा का सफर आसान बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। इस सफर की शुरुआत भारत से हुई। वे महाराष्ट्र के पुणे में 13 अगस्त 1979 को पैदा हुईं। महज़ तीन सप्ताह की थीं, जब उन्हें जन्म देने वाले माता-पिता ने उन्हें छोड़ दिया। वे बेटी को पालने में सक्षम नहीं थे। उन्होंने अपनी बेटी एक अनाथालाय (श्रीवत्स) के दरवाजे पर छोड़ दी। अनाथालय के संचालकों ने उसका नाम रखा ‘लैला’। अभी कुछ समय ही बीता था कि मिशिगन, अमेरिका से एक दम्पति (हैरेन और स्यू) उस अनाथालय आए। वे बेटे को गोद लेने की चाह में आए थे क्योंकि एक बेटी उनके घर पहले से ही थी। लेकिन यहाँ अनाथालय में स्यू ने जब लैला को देखा तो वे उससे अपनी नज़रें नहीं हटा सकीं। बड़ी, भूरी ऑंखों वाली उस लड़की के लिए उनकी ममता जाग उठी और उन्होंने उसे गोद ले लिया। स्यू और हैरेन अपने साथ लैला को अमेरिका ले गए। कुछ समय बाद वे लाेग सिडनी, ऑस्ट्रेलिया में जा बसे। 

लैला का नाम बदलकर अब तक लिज़ा रखा जा चुका था। वह बड़ी होते-होते क्रिकेट की तरफ़ आकर्षित होने लगी थी। पिता हैरेन ने उसका रुझान देखकर घर के पीछे ही उसके अभ्यास का इन्तज़ाम कर दिया। पहले वह वहीं पिता के साथ खेलती थी। फिर बड़ी हुई तो नज़दीक के मैदान में लड़कों के साथ। इस तरह पढ़ाई के साथ खेल भी जारी रहा। इसका नतीज़ा भी मिला। लिज़ा ने 1997 में न्यू साउथ वेल्स की टीम में जगह बना ली। इसके बाद 2001 में ऑस्ट्रेलिया की महिला क्रिकेट टीम में एकदिवसीय मैचों के लिए चयन हाे गया। दो साल बाद ही टेस्ट क्रिकेट खेलने वाली टीम में भी। लिज़ा ने अपने क्रिकेट करियर में आठ टेस्ट खेले हैं। इनमें 416 रन बनाए और 23 विकेट लिए। एकदिवसीय मैच 125 खेले हैं। इनमें 2,728 रन बनाए और 146 विकेट लिए हैं। एकदिवसीय मैचों में 1,000 रन बनाने और 100 विकेट लेने की उपलब्धि, महिला खिलाड़ियों में सबसे पहले उन्होंने ही हासिल की थी। एकदिवसीय और टी-20 मिलाकर कुल चार बार विश्वकप टूर्नामेन्ट खेल चुकी हैं। आईसीसी की वरीयता सूची में लिज़ा पहले नम्बर की हरफनमौला (ऑलराउंडर) खिलाड़ी के रूप में नाम दर्ज़ करा चुकी हैं। उन्होंने 2013 में क्रिकेट से संन्यास लिया था। इसके ठीक एक दिन पहले उनकी टीम ने विश्वकप ख़िताब अपने नाम किया था। 

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