टीम डायरी
वह अपने चेहरे पर नैसर्गिक रूप से आने वाली मुस्कुराहट से ख़ुश नहीं था। चाहता था कि शादी होने से पहले उसकी मुस्कुराहट ऐसी हो जाए कि बस, लोग देखते रह जाएँ। चन्द रोज बाद ही उसकी शादी होने वाली थी। इसीलिए इस इच्छा ने उसके भीतर ज़ोर मारा था। सुन रखा था कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में एक छोटी सी शल्य-चिकित्सा से मुस्कुराहट को नया रूप दिया जा सकता है। कई युवक-युवतियाँ ऐसा कर रहे हैं। इस सुविधा लाभ ले रहे हैं। सो, वह भला पीछे कैसे रह जाता? पैसा भी तो कुछ ज़्यादा नहीं लगना था।
लिहाज़ा, वह भी एक दन्त चिकित्सक से समय लेकर उनके पास चला गया। मुस्कुराहट को मन-मुताबिक और बेहतर कराने के लिए। लेकिन उस रोज वह इस मकसद की जाने वाली शल्य-चिकित्सा के लिए लेटा तो उठा नहीं। चिकित्सक या शाइद उसके किसी सहयोगी उस युवक को बेहोशी की दवा दी। लापरवाही के कारण दवा की मात्रा कुछ अधिक हो गई। नतीज़ा? उस युवक ने हमेशा के लिए आँखें बन्द कर लीं। लक्ष्मीनारायण विंजम नाम था उस युवक का। महज़ 28 साल की उम्र थी। हैदराबाद का रहने वाला था। वहीं यह घटना हुई।
यह घटना इसी 16 फरवरी की बताई जाती है। हालाँकि, यह कोई नई या इक़लौती यक़ीनन नहीं है। इससे पहले भी ऐसी तमाम घटनाएँ सामने आ चुकी हैं, जब अपने चेहरे या शरीर के किसी हिस्से में मन-मुताबिक बदलाव कराने की ख़्वाहिश रखने वाले युवकों या युवतियों को इसका ख़मियाज़ा भुगतना पड़ा। इस प्रक्रिया में उनका या तो चेहरा बनने के बज़ाय बिगड़ गया अथवा कभी-कभी तो जान से भी हाथ धोना पड़ा।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि आख़िर हमारी ऐसी क्या मज़बूरी है कि हम ईश्वर की दी हुई नेमत मात्र से सन्तुष्ट नहीं होते? उसके निर्णय पर भरोसा नहीं करते? आख़िर बनाने वाले हमें जैसा रूप-स्वरूप दिया, उसमें कुछ सोचा ही होगा। हम उस संकेत को समझने की कोशिश क्यों नहीं करते? अपने प्राकृतिक दायरे में ही अपने लिए बेहतर की अपेक्षा क्यों नहीं रखते? बात ‘रोचक’ हो, न हो पर ‘सोचक’ ज़रूर है। सोचना चाहिए।
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