महाकवि शूद्रक के कालजयी नाटक पर विशेष श्रृंखला।
अनुज राज पाठक, दिल्ली से
वसंतसेना से मुक्त होने के बाद मदनिका अब शर्विलक से साथ गाड़ी में बैठकर चलने को तैयार है। तभी घोषणा सुनाई देती है कि किसी ‘सिद्ध पुरुष ने कहा है- अहीर पुत्र आर्यक राजा होगा। इसके बाद राजा पालक ने आर्यक को जेल में डाल दिया है’। यह घोषणा सुनकर शर्विलक चिन्तित हो जाता है। वह अपने मित्र आर्यक के जेल में होने से दुखी होता है। सोचता है कि अभी-अभी मैं स्त्री वाला हो गया हूँ। अर्थात् गृहस्थ हुआ हूँ लेकिन मित्र कष्ट में है, तो मुझे पहले मित्र की सहायता के लिए जाना चाहिए। क्योंकि संसार में पुरुष को मित्र और स्त्री ये दो ही सबसे प्रिय होते हैं। किन्तु सैकड़ों सुन्दरियों से भी अधिक मित्र प्रिय होता है। अत: मित्र की सहायता हेतु जाना चाहिए। (द्वयमिदमतीव लोके प्रियं नराणां सुहृच्च वनिता। सम्प्रति तु सुन्दरीणां शतादपि सुहृद्विशिष्टतमः)
ऐसा विचार कर मदनिका से चलने की अनुमति लेकर शर्विलक गाड़ी से उतर जाता है। तभी मदनिका आँखों में आँसू भरकर कहती है, “आप का मित्र की सहायता हेतु जाना ही उचित है। लेकिन पहले मुझे परिवार के बड़े सदस्यों के पास छोड़ दीजिए।”
शर्विलक इस पर मदनिका की प्रशंसा करता है। और उसे अपने मित्र रेभिल के यहाँ छोड़ने का सारथी को आदेश देकर आर्यक की सहायता हेतु चला जाता है।
इसी बीच, एक सेविका वसंतसेना को चारुदत्त के घर से एक ब्राह्मण के आने की सूचना देती है। यह सुनकर वसंतसेना कह उठती है, “आज कितना सुन्दर दिन है। तुम जाओ बंधुल (ब्राह्मण का नाम) को आदरपूर्वक बैठाओ।”
विदूषक तभी बंधुल के साथ प्रवेश करता है। वह वसंतसेना के सुंदर भवन की प्रशंसा करता है। वसंतसेना वहां विदूषक को बैठने के लिए कहने के बाद चारुदत्त के विषय में पूछती है।
विदूषक : हाँ, मान्ये आर्य कुशल हैं।
वसंतसेना : इस समय भी? गुण ही जिनके पत्ते हैं, विनम्रता ही शाखाएँ हैं, विश्वास ही जड़ें हैं, उस सज्जन चारुदत्त रूपी वृक्ष के पास मित्र रूपी पक्षिगण अब भी निवास करते हैं?
विदूषक : हाँ मित्रगण अब भी आते हैं।
वसंतसेना : अच्छा आपका यहाँ आने का कारण?
विदूषक : आर्य चारुदत्त आप से निवेदन करते हैं कि आपके द्वारा धरोहर में रखे गए आभूषण विश्वासपूर्वक अपना मानकर वे उन्हें जुए में हार गए हैं।
सेविका : मान्ये वसंतसेना! आप की सौभाग्य से वृद्धि हो रही है, आर्य अब जुआरी भी हो गए हैं।
वसंतसेना : (अपने मन में) चोरी हुए आभूषणों को जुए में हार गए हैं, ऐसा उदारता से कह रहे हैं। तभी तो आर्य को चाहती हूँ।
विदूषक : आप बदले में यह रत्नावली स्वीकार करें।
वसंतसेना : (अपने मन में) क्या आभूषण दिखा दूँ या रहने दूँ?
विदूषक : क्या आप रत्नावली स्वीकार नहीं करेंगी?
वसंतसेना : क्यों नहीं? (रत्नावली अपने पास रख लेती है।) आप आर्य से कहना कि शाम को उनके दर्शन की इच्छा है।
विदूषक : कह दूँगा। (ऐसा कहकर निकल जाता है।)
वसंतसेना : चेटी, यह रख लो। मैं चारुदत्त से मिलने जा रही हूँ।
चेटी : असमय मेघ उठ रहे हैं।
वसंतसेना : मेघ उठें अथवा रात्रि हो। चाहें वर्षा हो। किन्तु प्रियतम में आसक्त चित्त किसी चीज की परवाह नहीं करता। मिलने तो जाऊँगी ही। (उदयन्तु नाम मेघाः भवतु निशा वर्षमविरतं पततु। गणयामि नैव सर्वं दयिताभिमुखेन हृदयेन।) चलो, हार लेकर मेरे साथ चलो।
जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर बुधवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)
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पिछली कड़ियाँ
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मृच्छकटिकम्-10 : मनुष्य अपने दोषों के कारण ही शंकित है
मृच्छकटिकम्-9 : पति की धन से सहायता करने वाली स्त्री, पुरुष-तुल्य हो जाती है
मृच्छकटिकम्-8 : चोरी वीरता नहीं…
मृच्छकटिकम्-7 : दूसरों का उपकार करना ही सज्जनों का धन है
मृच्छकटिकम्-6 : जो मनुष्य अपनी सामर्थ्य के अनुसार बोझ उठाता है, वह कहीं नहीं गिरता
मृच्छकटिकम्-5 : जुआरी पाशों की तरफ खिंचा चला ही आता है
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मृच्छकटिकम्-2 : व्यक्ति के गुण अनुराग के कारण होते हैं, बलात् आप किसी का प्रेम नहीं पा सकते
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