ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
“यह ठीक नहीं है, मास्टर!”
सुशीतल की ऊँची होती आवाज में चिड़चिड़ापन था, “ये नहीं हो सकता।”
“वे दोनों अलग-अलग चीजें हैं भाँजे।”
“अंबा को हम सबकी अगुवाई नहीं सौंपी जा सकती। आप बड़ी गलती कर…..”
“खामोश!”
तनु बाकर का सुर अचानक ही तेज हो गया। वह दुबला-पतला लेकिन ऊँचा-पूरा था। चेहरे पर नाक कुछ ज्यादा ही बड़ी थी। होंठों पर निकोटिन के दाग नजर आते थे। हालाँकि मास्टर तनु बाकर का दिमाग बेदाग था। किसी दाँतेदार चाकू जैसा तेज। उसके सोचने का अपना तरीका था। उसी से वह किसी नतीजे पर पहुँच कर फैसले किया करता था। फिर उन पर कायम रहता और किसी की सलाह की परवा न करता। इस बार उसने तय कर लिया था कि कोई और नहीं, बल्कि अंबा रैड हाउंड्स के खिलाफ उसके लड़ाकों के दल की अगुवाई करेगी। मगर उसने जब इस फैसले का ऐलान किया तो इससे सबसे ज्यादा परेशान उसका भाँजा सुशीतल हुआ। वह मानकर चल रहा था कि दल की अगुवाई के लिए उसे चुना जाएगा क्योंकि इतने सालों के सख्त प्रशिक्षण के बाद अब वह ‘सर्वश्रेष्ठ’ लड़ाका हो चुका है।
बाकर भी अपनी बहन के बेटे से प्यार करता था। लेकिन वह जानता था कि सुशीतल इंसानों का स्वभाव ठीक से पढ़ नहीं पाता। वह खुद को छोड़कर किसी दूसरे के अनुभव को भाव नहीं देता। बल्कि दूसरों के अनुभवों की तरफ आँखें बंद ही रखता है। अलबत्ता, इस वक्त सुशीतल सदमे में था कि उसके होते हुए अंबा को दल की कमान सौंप दी गई। उसकी परेशानी का थोड़ा-बहुत संबंध इस मान्यता से भी था कि कोई महिला लड़ाकों का नेतृत्त्व कैसे कर सकती है!
“क्या किसी और को कोई आपत्ति है?”
तनु बाकर ने पूछा और नकुल की ओर देखा। एक-दो बार दोनों की आँखें मिलीं। नकुल की आँखों में भी प्रतिरोध झलक रहा था। कोयले की गैस की तरह महीन और कड़वाहट भरा। पर उसने कहा कुछ नहीं। अपनी आँखें फेर लीं।
“लेकिन हम उस जैसी को अपना अगुवा कैसे बना सकते हैं?”, सुशीतल ने फिर शिकायत की। “कितनी बुरी बात है कि हमें बगावत के लिए ‘उस जैसी’ की जरूरत आ पड़ी है। दूसरे गाँव वाले हम पर हँसेंगे।”
“उस जैसी? बेवकूफ, लगता है आजकल तुम पुराने जमाने की औरतों के किस्से कुछ ज्यादा ही सुन रहे हो। और इससे भी बड़ी तुम्हारी बेवकूफी ये है कि तुम उस वक्त ऐसी बात कह रहे हो, जब हम एक गंभीर मसले पर चर्चा कर रहे हैं। अगर मैं पहले आश्वस्त नहीं था भाँजे, तो अब मैं खुश हूँ कि मैंने सही फैसला ले लिया है।”
अपने फैसले पर सुशीतल की नाराजगी और बदले की भावना से भरे सुरों के बावजूद तनु बाकर जरा भी प्रभावित नहीं हुआ। वह जानता था कि आलोचना एक दबी हुई ईर्ष्या ही है। उसे पता था कि नफरत और अहंकार से ढँके चेहरों पर चिपकी आँखों को अक्सर सच्चाई नहीं दिखती।
“हमारे बहुत से साथी तो उसके – चलो, बोलो – कहते ही घबरा जाते हैं”, सुशीतल ने घेरे में खड़े बाकी लोगों की बेचैनी को भाँपकर उन्हें उकसाते हुए फिर कहा।
“वे नहीं डरेंगे। क्योंकि उनमें से हर एक को, और तुम्हें भी, पता है कि लड़ाई में हमारे पास अंबा ही सबसे बेहतर है। मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि उसने यह क्षमता कहाँ से हासिल की और न ही इससे वास्ता है कि कोई उसके बारे में क्या कहता है, और तुम भी। बल्कि, रैड हाउंड्स से मुक्ति पाने के लिए तो मैं जरूरत पड़ने पर पटाला की मदद लेने को भी तैयार हूँ।”
बागियों के उस ठिकाने पर अब सब कुछ ठहर सा गया था। यूँ कि हवा भी चाकू से काटनी पड़ जाए। लेकिन यह सामान्य स्थिति महज छलावा ही थी। बहरहाल, दो साल पहले तक पुलिस के खिलाफ बागियों के इस दल का कहीं नाम-ओ-निशान नहीं था। बस, तनु बाकर के दिमाग में ही यह आकार ले रहा था। और फिर उसी ने अपने विचार को मूर्त रूप देना शुरू किया। बिलकुल शुन्य से शुरू किया। युवा हबीशी लड़ाकों को इकट्ठा कर उन्हें एक समूह की शक्ल दी। उन्हें घात लगाकर हमला करने, भारी हथियार चलाने सहित लड़ाई के लिए जरूरी सभी तरह का प्रशिक्षण दिया। उसने इन लड़ाकों के लिए बहुत सख्त नियम बनाए थे। आपस में कोई लड़ाई नहीं। एक-दूसरे का लेश मात्र भी निरादर नहीं। मैदान छोड़कर भागना नहीं। कोई कायराना हरकत नहीं। किसी तरह का भारी नशा नहीं। अनुशासन सख्त और दंड कठोर। इन बागियों का प्रशिक्षण शिविर पहाड़ी इलाके में एक बड़ी और सीधी खड़ी चट्टान की आड़ में बनाया गया था। शिविर के दाहिनी ओर यह चट्टान और उलटे हाथ की तरफ एक दलदली नाला था। शिविर तक पहुँचने वाले पहाड़ी रास्ते में चट्टानों के गिरने की आशंका हमेश रहती थी। यानी कुल मिलाकर ये कि अगर किसी को सही-सही रास्ते और भौगोलिक परिस्थिति की जानकारी न हो तो, शिविर तक पहुँचना खासा मुश्किल था। पश्चिम जोतसोमा की एक निचली पहाड़ी पर स्थित बागियों का यह ठिकाना इसी अनूठी भौगोलिक स्थिति के कारण अब तक दुश्मन की नजर में नहीं आया था। यहाँ दक्ष हथियारबंद लड़ाके तैयार किए जाते थे, जो मैडबुल के आदमियों को सीधी लड़ाई में जबरदस्त टक्कर दिया करते थे। इस तरह बाकर ने अपनी स्थिति काफी मजबूत कर ली थी। वह बागियों के इस दल का ‘मास्टर’ था। इस रूप में उसकी जितनी इज्जत थी, उतना ही उसके प्रति डर भी था।
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
15- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : ये किसी औरत की चीखें थीं, जो लगातार तेज हो रही थीं
14- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : मैडबुल को ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ से सख्त नफरत थी!
13- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : देश को खतरा है तो हबीशियों से, ये कीड़े-मकोड़े महामारी के जैसे हैं
12- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : बेवकूफ इंसान ही दौलत देखकर अपने होश गँवा देते हैं
11- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : तुझे पता है वे लोग पीठ पीछे मुझे क्या कहते हैं…..‘मौत’
10- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : पुजारी ने उस लड़के में ‘उसे’ सूँघ लिया था और हमें भी!
9- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : मुझे अपना ख्याल रखने के लिए किसी ‘डायन’ की जरूरत नहीं!
8- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वह उस दिशा में बढ़ रहा है, जहाँ मौत निश्चित है!
7- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुअरों की तरह हम मार दिए जाने वाले हैं!
6- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : बुढ़िया, तूने उस कलंकिनी का नाम लेने की हिम्मत कैसे की!
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