ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
चूँकि हालात उसकी बर्दाश्त से बाहर थे, उसका दिमाग तरह-तरह के ख्यालों में डूबने-उतराने लगा था। फर्श गीला था। ठंडा और बर्फीला भी। कुछ पलों बाद उसे पुराने दरवाजे के खुलने की आवाज सुनाई दी। और पलक झपकते ही बर्फीले पानी के थपेड़े फिर उसके शरीर पर जोरदार करने लगे। पानी इतना ठंडा था कि लगा, जैसे शरीर छिल जाएगा। उसका शरीर सुन्न होने लगा। दीवार का सहारा उससे छूट गया और वह तेज धार के साथ पानी में ही ढेर हो गई। उसे अपने दिल की बेतरतीब धड़कनें जोर-जोर से सुनाई दे रही थीं। यूँ लग रहा था जैसे, उसकी पसलियों के पिंजर में फँसा कोई पंछी पिंजरे से टकरा-टकराकर जान देने पर उतारू हो।
“उठ, चुड़ैल!”
सिर पर हुए घाव से बह रहा खून उसकी आँखों में जमा हो गया था। आँखों के भीतर भी रिस आया था। इससे उसकी नजर धुँधली हो गई थी। बाकी खून गालों से नीचे बह गया था। आंशिक तौर पर उसे दिखना बंद हो गया था। फिर भी, उसे धुँधला सा दिखाई दिया कि एक चाबुक लहराता हुआ उसकी छाती की ओर आ रहा है। उसने तुरंत अपना सिर एक इंच ऊपर उठाया और शरीर को पेट की तरफ आगे खींच लिया। यूँ किसी तरह उसने अपने हाथ बचाए, जिन्हें चाबुक चलाने वाले ने निशाना बनाने की कोशिश की थी। लेकिन अगली बार पहरेदार ने फिर जोर लगाया और पहले के मुकाबले ज्यादा तेजी से चाबुक चलाया। इस बार अंबा नहीं बच सकी। उसकी साँसें थम गईं। बाँह से लेकर कलाई तक की चमड़ी माँस के साथ उधड़ गई। इस पूरे हिस्से में बुरी तरह जलन होने लगी। भयंकर दर्द से वह चीख उठी और रहम की भीख माँगने लगी। इतने में, उसका माथा जमीन से टकराया और वह बेसुध होकर जमीन पर जा गिरी।
पहरेदार के माथे पर थोड़ी चिंता उभर आई। उसने अंबा की नाक पर हाथ रखकर जाइजा लेने की कोशिश की। उसे असल में अंदाज नहीं हो रहा था कि उसकी साँसें चल रही हैं या नहीं। पर इससे घबराकर वह अपने आप में ही सिकुड़ गई। वह बता नहीं सकती थी कि उसके शरीर का पोर-पोर किस दर्द से फट रहा है। इधर, पहरेदार ने जब पुख्ता कर लिया कि उसकी साँसें चल रही हैं, तो उसने फिर गालियाँ बकीं। थोड़ी दारू पी और उसके ऊपर पेशाब कर दी।
“देख, तूने मुझसे क्या करवा लिया। इससे कुछ सीख, दोगली।”
वह गुस्से से पसीना-पसीना हो रहा था। बिना नहाए हुए आदमी की तरह गंध मार रहा था। लिहाजा, उससे दूर होने के लिए उसने बिना किसी उकसावे के अपना सिर झुकाया और इंच-दर-इंच थोड़ा पीछे की तरफ सरक गई। उसकी नाक में खून जमा हो चुका था। इस हालत में जैसे ही साँस लेने के लिए उसने मुँह खोला, उसे उबकाई हो गई।
“छी:, अब अपनी गंदगी उगल दी! अब तू ही इसे खाएगी, दोगली। अभी!”
इस उबकाई से अंबा को इतनी तकलीफ हुई कि उसे लगा जैसे उसकी गरदन ही टूट गई हो। साँस लेना दूभर हो गया। मगर उसने खुद को दिलासा दी कि नाक में जमा हुए खून की वजह से यह हुआ है। उसने अपना सिर इधर-उधर लुढ़काया। इससे उबकाई की गंदगी उसके पूरे बालों से चिपक गई। उसका सिर अब असहाय सा उसकी रीढ़ की हड्डी पर लुढ़क गया। तभी, उसे अपने नीचे हलचल महसूस हुई। जमीन उसके लिए इरावती नदी बन गई, जिसके गहरे काले भँवर में उसे नीचे और नीचे खींचा जा रहा था। उसका सिर इधर-उधर लुढ़क रहा था। मुँह खुला हुआ था।
उसकी कनपटी के पास नीले-बैगनी रंग का गहरा जख्म हो गया था। गाल के ऊपरी हिस्से में जहाँ उसे पीटा गया था, वहाँ सूजन थी। मुँह में कपड़ा ठूँसा हुआ था और आँखों पर पट्टी बँधी हुई थी। इस हालत में उसकी चीखें भी किसी नशेड़ी के कराहने की तरह लग रही थीं।
“अच्छा हो, अगर ये मरी न हो। बेवकूफ आदमी, तूने इसे कुछ खाने को दिया या नहीं?”
ये आवाज किसी चाबुक की तरह कड़क थी। यह कोई हुक्म देने वाला आदमी था, जो अपने मातहत को फटकार रहा था। उस शख्स ने अपने जूते की नोंक से अंबा के बेसुध शरीर को हिलाकर देखा। उसके हाथों को भी उठाकर देखा, जो छोड़ते ही जमीन से जा लगे थे।
“सब नाटक है। ये सिर्फ नाटक कर रही है। यकीन मानिए, ये बहुत ताकतवर है और खतरनाक भी। हमें इससे सचेत रहना होगा।”
अंबा के हाथ पीठ के पीछे बँधे हुए थे। पैर भी बँधे थे। इस हाल में उसका सामना उसके खुद के जिज्ञासुओं से हुआ था। बेजान से शरीर में साँसें फूल रही थीं। इस वजह से बढ़ी गर्मी के कारण उसकी पीठ पसीने से तर-ब-तर हो चुकी थी। तभी, पहरेदार ने उसे सहारा देकर उठाया और होश में लाने के लिए चेहरे पर ठंडा पानी फेंक मारा। इसके बाद अपनी खुरदुरी अँगुलियों से उसका मुँह खोला और एक मुट्ठी चावल भीतर उड़ेल दिया। उसके बाद मसले हुए आलू मुँह में ठूँस दिए। अंबा ने अब तक आस-पास का जाइजा ले लिया था। फिर भी, भूख से बेहाली का आलम ये था कि उसने एक ही झटके में चावल और आलू हलक से नीचे उतार लिए। इसके बाद उसकी आँखों के आगे फिर अँधेरा छा गया। अब वह अपने जख्मी अंगों को वैसे ही हिला-डुला रही थी, जैसे पिंजरे में बंद कोई तेंदुआ भयानक मंसूबों के साथ बाहर निकलने के इंतिजार में किया करता है।
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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