‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अब वह खुद भैंस बन गई थी

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

कुछ देर में उस विशालकाय भैंस के होंठ हिले और उसने अजीब सी आवाज निकाली। थोड़ी सीटी और कुछ गाने जैसी। उसमें चेतावनी थी और एक उत्कंठा भी। साथ ही चरमराने और फुसफुसाने जैसी आवाजें भी सुनाई दीं। मानो जंगल की अँधेरी कंदराएँ अपना आकार फैला रही हों। इस भाषा का कोई नाम नहीं था। लेकिन इसे सुनते ही पक्षी अजीब-अजीब सी आवाजें करने लगे। यह सुनकर उसके भी रोंगटे खड़े हो गए। अब तक जो दानवी आकृतियाँ सिर्फ उसकी कल्पना में थीं, उसे लगा जैसे वे सब उसके सामने आने वाली हैं। इधर, भैंस के लिए उसकी हर साँस जैसे भयानक कष्टदायक थी। उसके बीच ही उसने अपना झुर्रीदार विशाल माथा आकाश की ओर उठाया और खुरों को 20 फीट या उससे भी अधिक ऊपर उठाकर जोर से गर्जना की। इसके साथ ही उसके फरों में चिपकी मिट्‌टी चारों ओर बिखर गई और पूरा वातावरण दहल गया। अंबा यह सोचकर भौंचक्की रह गई कि न जाने उस विशाल जानवर ने क्या देख लिया या क्या सोचा, जो ऐसी प्रतिक्रिया की। बर्फ की चादर ओढ़े चीड़ के पेड़ों से भी अजीब सा धुआँ निकलने लगा। यह देख वह बुरी तरह काँप गई(

धीरे-धीरे शोर इतना तेज हो गया, जैसे चारों तरफ से भयानक तूफानी लहरें आकर हवा में उछल-उछलकर आपस में टकरा रही हों। ऐसे में, जो कुछ भी उसने सुना वह उसे यूँ लगा जैसे पानी में भीगा, कीचड़ से सना, पत्थरों से आहत, चकमक पत्थर से टूटा, बिच्छू के डंक का मारा और कँटीली झाड़ियों से कटा-फटा हो। भैंस ने अपनी नाक आगे करके कुछ सूँघने की कोशिश की और हडि्डयों तथा नसों के बीच से झाँकती उसकी डरावनी आँखें चमक उठीं। वह भैंस अंबा से बमुश्किल 10 फीट दूर थी। अंबा भी उसे देख पा रही थी। वह उसकी गरम साँसों को महसूस कर रही थी। उसे देखकर अंबा का चेहरा सूखा जा रहा था। भय की लकीरें उसके चेहरे पर उभर आईं थीं। उसे लग रहा था, जैसे पूरी दुनिया बस उसी को देख रही हो कि वह क्या करने वाली है। हालाँकि वह जानती थी कि उसे करना क्या है। उसके लिए पूरी तरह तैयार भी थी। लेकिन उस भैंस की आँखों में दर्द की अथाह गहराई देखकर वह भीतर तक हिल गई थी। जो उसे करने के लिए उकसाया गया, वह करने की उसकी बिलकुल इच्छा नहीं थी। यहाँ तक कि उसकी कल्पना करना भी उसके लिए मुश्किल था। इसके बावजूद उसे अपनी जान बचाने के लिए ऐसा करना था।

लिहाजा, आखिरकार उसने भीतर से आने वाली आवाजों के साथ खुद को एक किया और हर तरह के अगर-मगर से मुक्त होकर मान लिया कि इस वक्त दुनिया में उसके लिए सबसे जरूरी काम बस यही है। इसके बाद अपनी मजबूत इच्छाशक्ति के बलबूते उसने अपने दिमाग को पूरी तरह खाली कर लिया। एकदम शांत और संयत हो गई। विचारशून्य, चेतनाशून्य। हालाँकि उसके हाथ काँप रहे थे। पैर जवाब दे रहे थे। ठंड के कारण आँखों के सामने का दृश्य धुँधला हो गया था। उसके होंठों पर बर्फ की तह जम गई थी। हाथों की अँगुलियाँ भी सुन्न हो गईं थीं, जैसे शरीर से कट गई हों कि तभी फिर बर्फबारी हुई और वह समझ गई कि अब उसके पास गँवाने के लिए एक पल भी नहीं है।

वह उस भैंस के सामने यूँ झुकी, जैसे उसके दिल की धड़कनों को सुनने की कोशिश में हो। उसे उसके अंदरूनी अंगों के फैलाव और सिकुड़न को महसूस करना हो। वह भैंस भी उसकी तरफ ऐसे बढ़ी, जैसे वह अपने दिल पर बंदूक का सटीक निशाना लगाने के लिए उसे उकसा रही हो। वह जिस तरह से अपनी कुरबानी देने की पेशकश कर रही थी, उसे देखकर अंबा का दिल भर आया। फिर भी उसने खुद को मजबूत किया और बंदूक चला दी। तेज आवाज से निकली गोली सीधे उस भैंस के माँस में जा घुसी। इधर, अंबा बंदूक के झटके से हिल गई। कुछ देर के लिए सकते में भी आ गई क्योंकि गोली भैंस के शरीर को छेदते हुए बाहर निकलकर एक चट्टान से टकरा गई थी। यह देख उसे लगा जैसे गोली किसी और ने तो नहीं चलाई! हालाँकि अभी वह एक गोली पर्याप्त नहीं थी। इसलिए उसने दनादन कई गोलियाँ चलाईं और तब तक चलाती रही, जब तक वह विशालकाय भैंस बेजान होकर जमीन पर गिर नहीं गई। इसके बाद वह खुद भी दुख से निढाल होकर उसी के पास लुढ़क गई। उसका दिल टूट गया था। उसके गालों पर आँसू लुढ़क आए। लेकिन उसे अभी उस भैंस को मुक्ति देनी थी। इसलिए उसने अपना चाकू निकाला और उसके पेट के निचले हिस्से में घोंप दिया। इसके बाद उसके दिल और जिगर के टुकड़े निकालकर उन्हें कच्चा ही चबाने लगी। भैंस के खून में एक अलग सी महक थी। इससे उसमें नई जान आ गई और वह तेजी से उसके अस्थि-पिंजर से माँस निकालने लगी।

उसे अपने इस काम से घिन आती थी। दुख से मन भारी था। थकान और ठंड से वह मृतप्राय सी हो गई थी। ऐसे में, वह उस भैंस के ही अस्थिपिंजर के करीब आकर चिपक गई। लगभग एक घंटे तक उसी स्थिति में रही, जहाँ वह मौत के करीब तक पहुँच गई। उसके चारों ओर ढेर सारी तितलियाँ और कीट-पतंगे उड़ने लगे। वे उसके बालों, कानों और आँखों में घुसने लगे। इससे उसका दम घुटने लगा। साँस लेना मुश्किल हो गया। उसे वे कीट-पतंगे भी भारी महसूस होने लगे। वे उसकी गंध से आकर्षित होकर किसी खोह से बाहर निकल आए थे। सैकड़ों की संख्या में। अंबा ने उन्हें खुद से दूर हटाने के लिए अपना सिर दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे हिलाया। इससे वे फड़फड़ाकर उड़े, मगर फिर वहीं आकर जमा हो गए। असल में, ये छोटी मक्खियाँ थीं, जो ताजा गरम खून की गंध से खिंचकर वहाँ इकट्‌ठी हो गई थीं। अंबा को उनसे घिन आ रही थी। उनकी गंध भी अजीब थी। लिहाजा, उन्हें खुद से दूर हटाने के लिए उसने पागलों की तरह अपना सिर हिलाना शुरू कर दिया। इससे वे सब उससे दूर जाकर कहीं बैठ गईं। इसके बाद अंबा ने मरी हुई भैंस के नाजुक पेट में चाकू से जगह बनाई और रेंगकर उसके भीतर चली गई। भीतर अच्छी गरमी थी। पेट भी उसका भर ही चुका था। ऐसे में, अचानक मिले इस सुकून से उस पर खुमारी छा गई और वह गहरी नींद में डूबने लगी।

दिमाग उसका कल्पनालोक में विचरण करने लगा। उसने देखा कि वह धोखे और छल कपट के दलदल में फँसी हुई व्हेल मछली के पेट में है। उसकी गहन अँधेरी कोख में। हताशा में उसने उसकी कोख के पतले ऊतकों को पकड़ने की कोशिश की। लेकिन फिसलन भरी ढलान के कारण वह अँधेरे में और गहराई में समा गई। इसी बीच, अधिक जोर लगाने से ऊतक टूट गया और वह रेत में दबे एक गोपनीय संदूक में गिर गई। संदूक बेड़ियों से बँधा था। उस पर ताले लगे थे। लेकिन तभी अचानक वह बंधनमुक्त होकर आजाद हो गई। ऐसे तमाम ख्याल लगातार उसे आते रहे। इससे एक बार तो उसकी साँसें ही थम गईं। अब वह ऐसे बच्चे जैसी थी, जो किसी हादसे से गुजरने के बाद अपने प्रियजनों के चेहरे भूल जाने के कारण बुरी तरह लड़खड़ा गया हो। उसके दिमाग में एक के बाद एक मिले-जुले, उन्माद भरे, भ्रमित करने वाले चेहरे उभरने लगे। लगातार बदलते आकार-प्रकार और रंग-रूप वाले। वे सभी काँपते धब्बों की तरह उसके जेहन में आ रहे थे। सभी जानते थे कि भयानक तूफान में भी इस तरह भैंस के शरीर के भीतर जाना खतरे से खाली नहीं था। फिर भी बेसुधी में और उस शरीर की गरमाहट से आकर्षित होकर वह रेंगकर उसके खोल में घुस गई थी। वहाँ खूब गरमाहट थी, बिलकुल आदिम गर्भ की तरह।

भैंस के शरीर में घुसने के बाद अब वह खुद भैंस बन गई थी। 
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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ 

30- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून और आस्था को कुरबानी चाहिए होती है 
29- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मृतकों की आत्माएँ उनके आस-पास मँडराती रहती हैं
28 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह तब तक दौड़ती रही, जब तक उसका सिर…
27- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “तू…. ! तू बाहर कैसे आई चुड़ैल-” उसने इतना कहा और…
26 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : कोई उन्माद बिना बुलाए, बिना इजाजत नहीं आता
25- ‘मायाबी अम्बा और शैतान’ : स्मृतियों के पुरातत्त्व का कोई क्रम नहीं होता!
24- वह पैर; काश! वह उस पैर को काटकर अलग कर पाती
23- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुना है कि तू मौत से भी नहीं डरती डायन?
22- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : अच्छा हो, अगर ये मरी न हो!
21- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : वह घंटों से टखने तक बर्फीले पानी में खड़ी थी, निर्वस्त्र!

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Neelesh Dwivedi

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