ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
अब वह पूरी तरह से उस भैंस की गोद में थी। उसके गाढ़े खून, हडिडयों और अंतड़ियों के पिंजर में जिंदा दफन थी। वह अच्छी तरह जानती थी कि यहाँ से वापस लौटना उसके लिए मुमकिन नहीं है। यह भी कि वह हमेशा के लिए अपने वर्तमान और भविष्य को दाँव पर लगा चुकी है। वहाँ कुछ देर में जब उसकी आँख खुली तो उसे महसूस हुआ कि उसका दम घुट रहा है क्योंकि कहीं से भीतर हवा नहीं आ रही थी। ऐसे में जब बेचैनी ज्यादा बढ़ने लगी तो उसने अपनी राइफल किसी तरह सीधी की और गोली चला दी। इससे भैंस के उस पिंजर में एक जगह छेद हो गया। ताजा हवा भीतर आने लगी। तब उसे कुछ राहत मिली। इसके बाद उसने आँखें खोलकर हालात का जाइजा लेने की कोशिश की। जानने की कोशिश की कि वह किस हाल में है। लेकिन तब तक हवा के साथ ठंडक भी भीतर घुसने लगी थी। लिहाजा, उसने उससे बचने के लिए उस छेद में बंदूक की नाल घुसा दी, जो अभी-अभी गोली चलाने से हुआ था। इसके बाद वह सूरज निकलने का इंतजार करने लगी।
इस बीच, उसने भीतर की दीवारों पर गौर करना शुरू किया। उसे लगा जैसे प्रकृति ने क्या खूबसूरत नजारे वहाँ भी मुमकिन किए हैं। नदी, पहाड़, घाटियाँ, चट्टानें, मैदान, सभी कुछ तो आपस में गुँथा हुआ था उन भीतरी आकृतियों में। कहीं सतह खुरदुरी, तो कहीं दिलचस्प रंगों से रंगी हुई। कहीं-कहीं किन्हीं चेहरों का भान करातीं आकृतियाँ भी। बेहद दिलचस्प था यह। ऐसा कि कुछ देर के लिए ये सब देखते हुए आसन्न मृत्यु को भी भूल जाए कोई। बस, जीवन के इस प्राकृतिक नाटक को खेले जाते हुए ही देखता रहे।
उसकी गतिविधियों ने जंगल में हलचल पैदा कर दी थी। परभक्षी उस तक आसानी से पहुँच सकते थे। ऐसे में उसे अपने शरीर की हिलन-डुलन को जितना संभव हो, सीमित रखना था। चुपचाप दुबके रहना था। साँसें भी इतनी धीरे से लेनी-छोड़नीं थीं कि कोई हरकत न हो। लिहाजा, उसने आहिस्ता से कुछ साँसें लेने-छोड़ने के बाद अपने आप को उस खोह में थोड़ा और भीतर की तरफ खिसका लिया। अलबत्ता बाएँ हाथ से उस खोह का मुहाना भी पकड़े रखा, ताकि शरीर को संतुलित रखा जा सके। इसके बाद इसी स्थिति में उसने शरीर को कुछ ढीला छोड़ने का मन बनाया।
हालाँकि इसमें भी खतरा यह था कि उसका शरीर वहाँ से उबरकर बाहर आ सकता था क्योंकि भीतर बहुत चिपचिपाहट और गीलापन था। खून में अभी गरमी थी। उसे भी गरमाहट मिल रही थी। लेकिन बहुत देर तक यह स्थिति नहीं रहने वाली थी। हर बीतते पल के साथ वह गरमाहट कम होती जानी थी। धीरे-धीरे खून जम जाने वाला था। ऐसे में नींद में डूबना भी प्राणघातक हो सकता था। इसीलिए, वह बार-बार अपने होंठ काट रही थी और सिर हवा में झटक रही थी, ताकि नींद न आए। लेकिन वह कल्पनालोक में जरूर चली गई।
अब उसने खुद को माँस की दीवारों के बीच उल्टा लटका हुआ पाया। धीरे-धीरे डूबते हुए। वह दु:स्वप्न बेहद डरावना और लंबा था। उसमें भयावह निरंतरता थी। ऐसी कि उसने वक्त और हालात का एहसास तक उससे छीन लिया। उसने देखा कि उसकी माँ ओर पिता सिर से पाँव तक कीचड़ और खून से सनी हुई अँधेरी खाई में गिरे जा रहे हैं। वह उन्हें बाहर निकालने की कोशिश कर रही है। तभी जैसे उसके आस-पास की हर चीज में जान पड़ जाती है और चारों ओर से विस्फोट होने लगते हैं। वह फिसल कर अपने माँ-बाप के ऊपर ही जा गिरती है। धमाकों और टूटती दीवारों के बीच से गुजरते हुए वे तीनों भयानक गंदगी से भरे दलदल में गिर जाते हैं। उसमें भी गहरे धँसते जाते हैं। उस दलदल की गहराई में जलता हुआ, चिपचिपा खून भी भरा है। उसकी गंध उसके नथुनों में भर गई है।
अलबत्ता इतने भयानक दु:स्वप्न से भी उसकी तंद्रा नहीं टूटी, बल्कि दूसरे का सिलसिला शुरू हो गया। अब उसने देखा कि बिच्छू की तरह डंक वाला कोई साँप उसकी ओर बढ़ रहा है। उसकी आँखों से खून टपक रहा है। चेहरा काला और निर्मम है। उसे अनुमान हुआ जैसे वह अपनी भयानक कँटीली जीभ उसी की तरफ लपलपा रहा हो। फिर उसे लगा जैसे उसकी पीठ पर काले पंख उग आए हों। बड़ी सी पूँछ उसके पीछे सरसरा रही हो। वह पूँछ उसके बालों में ऐसी गुँथ गई हो, जैसे चोटी में फीते गूँथे जाते हैं। उसे अपने हाथों में पतले-पतले हरे रंग कीड़े रेंगते हुए महसूस हुए। साथ ही ऐसा लगा, जैसे उसने एक हाथ में चाबुक भी पकड़ रखी हो। फर्श पर उसे लहराने के कारण निकलने वाली तेज आवाज भी उसके कानों में गूँजी। हालाँकि उसके दिमाग का एक हिस्सा सचेत भी था शायद। वह ऐसी भयावह कल्पनाओं से अचंभित था कि वह आखिर यह सब क्या देख रही है। मगर इस वक्त समय उसके लिए जीवंत हो गया था। वह प्राचीन काल की किसी व्हेल मछली के भारी-भरकम पेट के भीतर फँसी हुई सेकंड, मिनट और घंटे गिन रही थी। वक्त को यूँ गुजरते देख रही थी, मानो वह अब कभी वापस न लौटने वाली हो। अनंत काल के लिए वहीं समा जाने वाली हो।
लेकिन तभी घुटन के कारण बुरी तरह छटपटाने से उसकी तंद्रा टूट गई। उसने हाथ-पैर इधर-उधर मारे तो आखिर में उसे ताजी हवा का झोंका मिला और वह गहरी साँसें लेने लगीं। उसके शरीर पर खून का आवरण अब जमने लगा था। उसे यह सोचकर अचरज हो रहा था कि क्या उसकी मौत इस तरह होनी लिखी है? फिर भी उसे कोई दर्द नहीं था। वह ऊपर की तरफ तैर रही थी, मगर खुद को डूबते देखते हुए। उसने अपना सिर किसी तरह से थोड़ा बाहर निकाल रखा था। पर शरीर का बाकी हिस्सा धीरे-धीरे भीतर की तरफ समा रहा था। मौत की ओर बढ़ रहा था। किसी प्रेत के माँस के जैसी पीली धुंध ने उसे अपनी लपेट में ले लिया था।
तभी धुंध के बीच ही उसे कोई धुँधली सी आकृति उभरती हुई दिखाई दी।
अंबा को लगा जैसे यह भी उसके दुस्वप्नों का ही कोई हिस्सा है। उसकी कल्पना। लेकिन जल्द ही उसे एहसास हो गया कि यह न तो उसकी कल्पना थी और न ही कोई बुरा सपना।
वह आकृति उसके ऊपर आ चुकी थी। अब उसे कोई संदेह नहीं रह गया था। उसकी छोड़ी साँसें हुई उसके फेफड़ों तक पहुँचने लगी थीं। इन साँसों में घुली हुई गंध से वह उतनी ही परिचित थी, जैसे वह खुद अपने शरीर से आने वाली महक को पहचानती थी। जड़ों से चिपकी मिट्टी, लोहा, खून, नमक, सल्फर की बू उस गंध में मिली हुई थी, जो अब उसके चारों ओर फैल रही थी। यकायक उसे जैसे सब समझ आ गया। इसके बाद उसका रहा-सहा विवेक भी छूटने लगा। घटाटोप अँधेरा उसके सामने छाने लगा। उसी के बीच उसने अपनी अधखुली आँखों से देखा कि कोहरे को चीरती हुई छोटे आकार की वह आकृति लगातार उसके पास आ रही है।
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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पुस्तक की पिछली 10 कड़ियाँ
31- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : अब वह खुद भैंस बन गई थी
30- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : खून और आस्था को कुरबानी चाहिए होती है
29- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : मृतकों की आत्माएँ उनके आस-पास मँडराती रहती हैं
28 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : वह तब तक दौड़ती रही, जब तक उसका सिर…
27- ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : “तू…. ! तू बाहर कैसे आई चुड़ैल-” उसने इतना कहा और…
26 – ‘मायावी अम्बा और शैतान’ : कोई उन्माद बिना बुलाए, बिना इजाजत नहीं आता
25- ‘मायाबी अम्बा और शैतान’ : स्मृतियों के पुरातत्त्व का कोई क्रम नहीं होता!
24- वह पैर; काश! वह उस पैर को काटकर अलग कर पाती
23- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : सुना है कि तू मौत से भी नहीं डरती डायन?
22- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : अच्छा हो, अगर ये मरी न हो!
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