ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
“मैं तो बस ये कह रहा था कि ऐसे बागी संगठन का नेतृत्त्व करना महिलाओं के लिए सही नहीं है… या यूँ समझ लो कि यह आम महिलाओं का काम नहीं है….!”, सुशीतल ने आवाज ऊँची करते हुए कहा। इस तरह कि हवा में दूर तक उसे सुना जा सके। साथ ही उसने अपने दोस्तों की तरफ देखकर उन्हें आँख मारी। इस उम्मीद में कि वे भी उसकी हाँ में हाँ मिलाएँ। लेकन वे उसके समर्थक के तौर पर दिखना नहीं चाहते थे। सो, उन सब ने नजरें घुमा लीं। ऐसे में खुद को अलग-थलग पड़ता देख सुशीतल अधिक उत्तेजित हो गया। सबके बीच वह बेवकूफ की तरह दिखे, इससे उसे सख्त नफरत थी। लिहाजा, किसी अन्य दबंग की तरह उसने वहाँ सबसे कमजोर को निशाना बनाया।
“और हैंडसम–”, सुशीतल ने अब नकुल को छेड़ा, जो कोने में बैठा हुआ था, “तुम पक्के रंगरूटों के साथ यहाँ क्या कर रहे हो? तुम्हारी छोटी बहन ही काफी है! है न भाई लोग? क्योंकि बड़े भाई को तो बस, कागज और प्लास्टिक के लक्ष्यों पर ही निशाना लगाने मिलता है।”
“इस सब में तुम मुझे मत घसीटो। मुझे अकेला छोड़ दो। वैसे भी, मैं बागी दल छोड़ रहा हूँ। यह बात मैंने मास्टर को भी बता दी है –”
“छोड़ रहे हो! सुना तुमने भाई लोग! चूहा भाग रहा है। क्योंकि उसे पता चल गया है कि रैड-हाउंड्स के सैनिक कागज और प्लास्टिक के बने हुए नहीं हैं!”
“मैं तुमसे उलझना नहीं चाहता।”
“मुझसे लड़ोगे? कायर! मैं तेरे जैसों से नहीं लड़ता, जो दिखते तो लड़कों जैसे हैं, पर उनकी हरकतें लड़कियों जैसी होती हैं।”
“बस करो। मैं यहाँ कोई बवाल खड़ा करना नहीं चाहता”, नकुल ने सख्ती से कहा।
“मैं तुमसे उलझना नही चाहता! कैसा कायर आदमी है!”, सुशीतल ने नकुल की नकल उतारते हुए कहा, “हमारी प्यारी तारा ने तेरे में ऐसा क्या देख लिया रे -–”
“तूने पी रखी है न?”
यह अंबा थी। उसने अपनी रिवॉल्वर निकाल कर उसकी नाल सुशीतल की दोनों आँखों के बीच में टिका दी थी। उसके बोलने का अंदाज रोंगटे खड़े कर देने वाला था। उसे देखकर लगा कि कोई ऐसा शख्स बोल रहा है, जो धूप, बारिश, ठंड के तमाम विपरीत हालात से जूझकर निकला हुआ है। जिसने जंग के मैदान में मुश्किल हालात में फँसे होने पर बारिश में भीगते हुए भी घंटों गोला-बारूद और राहत के पहुँचने का इंतिजार किया है। दर्द कम करने वाली दवा के बिना भी। आँखों में आधी नींद के साथ और लाशों, सड़े अंगों, बिखरे सिरों, बिना आँख वाले चेहरों तथा फटी बिखरी हुई आंतों के बीच भी। सुशीतल के सामने उसे यूँ खड़े देख आस-पास मौजूद सभी लोगों की पकड़ अपनी राइफलों पर से ढीली पड़ गई थी।
“हाँ… हाँ”, यह कहते हुए सुशीतल की आवाज में भी पहली बार कँपकँपाहट झलकी थी।
“मैं तुम्हें गोली नहीं मारूँगी, अगर तुम अभी के अभी नकुल से माफी माँग लोगे तो -”
“मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है”, नकुल गुस्से से उबल पड़ा। छोटी बहन का इस तरह उसकी मदद के लिए खड़े होना, उसे रास नहीं आया। कोई और समय होता, तो बीते इतने सालों की तरह इस बार भी वह रो ही देता। उस दिन वैसी स्थिति के बाद उसकी तरफ टिकीं लोगों की हिकारत भरी नजरों ने सूखी लकड़ियों पर जैसे चिंगारी डाल देने का काम किया था।
“मैं तो सिर्फ मदद करने की कोशिश कर रही थी।”
“खुद अपनी मदद कर। तुम सब विचित्र किस्म के हो। और खासकर तू तो बिल्कुल ही– ”, नकुल ने अब अंबा की तरफ बढ़ते हुए उसे चेताया, “— और तारा से भी तू दूर ही रहा कर।” जैसे वहाँ से जाने से पहले उसने अपने मन में छिपा पूरा जहर उगल दिया हो। लेकिन वह ज्यादा दूर जा नहीं पाया।
अचानक लगा, जैसे शहर में मौजूद सभी बंदूकें आग उगलने लगी हों।
भड़ाम…., भड़ाम…., तड़….., तड़….., तड़….
अकस्मात् ही खून जमा देने वाले युद्धघोष के साथ नीचे कस्बे से लेकर ऊपर पहाड़ियों तक, खुले में लहराते हल्के हथियार और मशालें दिखाई देने लगीं। नदी के दोनों तरफ भारी शोर-शराबा सुनाई दे रहा था। इसका मतलब था कि वे लोग बुरी तरह से घिर चुके थे। बंदूकों के नाल से छूट रही गोलियों की चिंगारियाँ अँधेरे में चमक रही थीं। हवा में बम धमाके गूँज रहे थे। गोलाबारी से तमाम पेड़ आग की लपटों से घिर गए थे।
एक बम अंबा के पास भी आकर फटा। धमाके से उसके शरीर का एक हिस्सा बुरी तरह झुलस गया। धमाके की तीव्रता इतनी थी कि लगा जैसे उसकी गर्मी से शरीर का वह झुलसा हुआ हिस्सा पिघल ही जाएगा। बाद में उसे इतना ही ध्यान रहा कि बम से निकली धातुओं, काँच, जली हुई रबर, आदि के टुकड़े हवा में तैर रहे थे। बारूद के धुएँ से उसका दम घुट रहा था। इसी बीच, कोई काली सी चीज उड़ती हुई सीधे उसके चेहरे से आ टकराई और तभी एक मजबूत हाथ ने उसे धकेल कर जमीन पर गिरा दिया। तनु बाकर ने अपनी राइफल काँख में दबा ली थी। एक कराहते हुए घायल साथी के जख्म पर वह कपड़े की पट्टी बाँधने लगा था। तभी एक और हथगोला किसी चुड़ैली तरह चीखता हुआ उनके सिरों के ऊपर से गुजरा और बीच जंगल में आकर जोर की आवाज के साथ फटा।
धमाका होते ही खून से लाल हो चुकी मिट्टी का गुबार ऊपर की ओर उठा और ऊपर से चीड़ के पेड़ों के नुकीले पत्तों की बारिश होने लगी। गोलीबारी भी लगातार जारी थी। गोलियाँ पेड़ की टहनियों के बीच से गुजरते हुए साँय-साँय कर रही थीं। पेड़ों को छलनी कर रही थीं। मौसम के शुरुआती दौर की बर्फ के साथ पेड़ों की टहनियाँ और पत्तियाँ उछल-उछलकर तेजी से नीचे गिर रही थीं। वे लोग बमुश्किल ही इस भयंकर तूफानी हालात से खुद को बचा पा रहे थे। इसका शिकार एक शख्स अपने कटे हुए हाथों के साथ झूमता हुआ यूँ लगा, मानो किसी डरावने नाटक से उसका कोई किरदार भागकर वहाँ आ गया हो। तभी अंबा के कान के पास तेज सरसराहट हुई और अगले ही पल गोरा का सिर धड़ से अलग होकर लाल गुलदाउदी की तरह जमीन पर पड़ा नजर आया।
वह जब तक झुककर खुद को बचाती, खून से सना हुआ माँस का एक लोथड़ा उसके चेहरे से आ टकराया। थोड़ी देर पहले रुक-रुक कर गोलीबारी की सूरत में जो लड़ाई शुरू हुई थी, उसमें अब धुआँधार गोले बरसने लगे थे। हालाँकि वे लोग किनारे की ढलान के निचले वाले हिस्से में थे। इसलिए छापामार हमले की जद में पूरी तरह आने से अभी बचे हुए थे। हमलावरों की निगाह में नहीं आ रहे थे। पर आकाश में हर ओर गोलाबारी की चकाचौंध और शोर ही था। इसी बीच तनु बाकर ने चीखकर बताया, “और भी सैनिक आ रहे हैं!”
सच में, लाल और नीले रंग की वर्दी वाले सैनिकों के झुंड सभी दिशाओं में अपनी राइफलें लहराते, जोरों से चीखते हुए आ रहे थे। जोश से भरे हुए सैनिक चारों तरफ बिखर गए थे। उन्होंने सबसे पहले बड़ी निर्दयता के साथ उन लड़ाकों को कत्ल किया, जो थोड़े असावधान मिले। अंबा के साथ वाले लड़ाके के मुँह पर प्रहार हुआ। पूरा चेहरा खून से लथपथ हो गया। हालाँकि उसने बड़े ही बचकाने तरीके से अपने उस घाव को बंद कर खून रोकने की कोशिश की थी।
इधर, अंबा ने एक और घायल की मदद की। उसे इतनी तीव्रता से गोलियाँ लगी थीं कि उसकी आँतें पीछे की तरफ लटक गईं थीं। नजदीक ही पेड़ के नीचे एक अन्य बागी खड़ा था। गोलियों का एक छर्रा उसके घुटने में जाकर धँस गया था। तभी पास पड़े मोर्टार में एक के बाद एक विस्फोट हुए। अंबा खुद को बचाने के लिए जमीन पर लेट गई। उसने उसी हालत में एक गिरे हुए पेड़ की आड़ ले ली। वह अपने सिर के ऊपर से साँय-साँय कर निकलती हुई गोलियों की आवाज लगातार सुन रही थी। तभी एक हथगोला उसके सिर के पास आकर फटा और सब सुन्न हो गया। उसकी सोचने-समझने की ताकत खत्म हो गई। वह नीम बेहोशी में चली गई।
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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15- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : ये किसी औरत की चीखें थीं, जो लगातार तेज हो रही थीं
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13- ‘मायावी अंबा और शैतान’ : देश को खतरा है तो हबीशियों से, ये कीड़े-मकोड़े महामारी के जैसे हैं
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