ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली
कैद में रहते हुए अंबा की वह सातवीं रात थी। तभी उसे महसूस हुआ, जैसे कोई उसके पास आया हो। उसने उसके चेहरे पर पड़ा कपड़ा हटा दिया। वह निर्जीव सी पड़ी थी। उसे लगा कि उसके साथ फिर बलात्कार होने वाला है। दोबारा इस सदमे के लिए उसने खुद को तैयार कर लिया था। लेकिन वह शख्स उसके ऊपर झुका और उसने उसकी आँखों की पट्टी भी खोल दी। उसने उसकी छातियों को नहीं कुचला। उसकी जाँघों के बीच छेड़-छाड़ नहीं की। बल्कि उसके मुँह पर हाथ रख दिया।
“शशश, शशश… चुप! उठो। तुम मेरे साथ चल रही हो। सवाल मत करना। बस, जल्दी करो!”
– कौन?
उसके माथे पर सिलवटें पड़ गईं। लेकिन वह अजनबी अपने काम में लगा रहा। उसकी अँगुलियों ने उसके मुँह में ठूँसा हुआ कपड़ा निकाल दिया। रस्सियों के बंधन से उसके हाथ आजाद कर दिए। घूँसों की मार से अंबा का चेहरा बिगड़ गया था। कई जगह खून जमा था। जबड़े पर बैगनी निशान पड़ गए थे। कान के पास नसें उभर आईं थीं। भौंहों का उतार-चढ़ाव उसकी तकलीफ जाहिर कर रहा था।
“लेकिन तुम….. हो कौन?”
अंबा ने फिर सवाल तो किया लेकिन उसके मुँह से समझने लायक शब्द ही नहीं निकले। क्योंकि दर्द के कारण उसके मुँह से कराह ज्यादा निकल रही थी। उसके खून से सने होंठ सूख रहे थे। उन्हें वह बार-बार जीभ फेर कर गीला कर रही थी। उसके शरीर का पोर-पोर दर्द से फट रहा था। पैरों में जख्म हो गए थे। सिर हिलाने से ही नसें ऐंठ जाती थीं और ऐसा दर्द उठता कि वह लड़खड़ा जाती थी। आँखों के आगे हरी धुंध सी तैर रही थी, जिससे उसे देखने में परेशानी हो रही थी।
“चिंता मत करो। मेरा नाम नाथन रे है। मैं एक सरकारी अफसर हूँ। तुम्हें मुझसे कोई खतरा नहीं है। मुझ पर भरोसा करो। अगर तुम अभी मेरे साथ बाहर नहीं निकली, तो तुम कभी यहाँ से बाहर नहीं जा पाओगी,” उसने दृढ़ता से कहा।
उसकी आवाज में धीरता, गंभीरता थी। अंबा को भरोसा हो गया कि वह मददगार है। एक पल के लिए वह उस शख्स की दृढ़निश्चयी काली आँखों में झाँकती रही। मानो, नए हालात में खुद को ही दोबारा से ढूँढ रही हो।
“पानी… मेहरबानी कर के मुझ़े पानी दे दीजिए। सिर्फ पानी”, तकलीफ से जूझती हुई वह बड़ी मुश्किल से इतना ही बोल सकी।
पानी पीने के बाद अंबा की प्यास तो बुझ गई लेकिन इसके बावजूद एक कदम भी चल पाना उसके लिए बहुत कठिन हो रहा था। असहनीय दर्द के कारण वह कई बार घुटनों के बल गिरी। हर बार नाथन ने उसे सँभाला। जबड़े भींचकर उसकी कमर को हाथ से सहारा देते हुए। अंबा ने भी अपने शरीर का भार उस पर छोड़ दिया। अब तक हुए अत्याचारों की वजह से उसका जिस्म दर्द से बिलबिला रहा था।
“अगर हम सामने वाले दरवाजे से भागने की कोशिश करते हैं, तो शहर की चहार-दीवारी तक पहुँचने से पहले ही दर्जनों पहरेदार हमारे टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे”, नाथन ने पहरेदारों का जाइजा लेते हुए कहा। फिर बताया, “हालाँकि एक और रास्ता है। पर उससे तुम भाग सकती हो या नहीं, ये तुम्हीं पर है।”
थकान से वह ऐसी निढाल थी कि उसे लगा जैसे पास में ही कोई दीवार हो। सो, उसने अपना पूरा वजन उसी पर छोड़ दिया। जबकि दीवार वहाँ थी ही नहीं। अँधेरे में उसकी कल्पना थी केवल। इससे वह खुद भरभराकर नीचे गिरने लगी। बुरी तरह गिर ही जाती, अगर नाथन ने उसे अपने मजबूत हाथों से थाम न लिया होता तो। खैर, सँभलने के बाद दोनों छोटे-छोटे सधे हुए कदम बढ़ाकर आगे चल पड़े। कँपकँपाने वाली ठंड हो रही थी। पुल के नीचे तरह-तरह के पौधों से भरे गहरे पानी में एक पतले फोम जैसी कोई परत बिछी हुई थी।
“अगर आप चाहते हैं कि हम यहाँ मारे न जाएँ, तो बेहतर होगा कि आप यहाँ से भागने का कोई रास्ता खोज लें!”, अंबा ने अपनी छाती मलते हुए कहा।
“हम नहीं, सिर्फ तुम। यहाँ से तुम आगे जाओगी, अकेली”, नाथन ने जंगली जानवरों से रक्षा के लिए उसे एक बंदूक देते हुए कहा। “पीछे मुड़कर मत देखना। मैं सामने वाले दरवाजे पर नजर रखूँगा। कोई वहाँ से आता है, तो उसे रोकूँगा।” नाथन की बात पूरी होती, उससे पहले ही वह अँधेरे में गुम हो गई।
तभी एक अप्रत्याशित आवाज सुनकर वह ठिठक गई। एक पुराने अवरोधक की आड़ लेकर अँधेरे में उसके पीछे छिप गई। ठंड का आलम ये था कि उसके शरीर पर मानो बर्फ रेंग रही थी। वह धीरे-धीरे कराह रही थी। पर वह भी किसी जानवर की गुर्राहट जैसी जान पड़ती थी। इतने में उसने देखा कि एक पहरेदार उसकी तरफ आ रहा है। अभी वह कुछ समझ पाती कि वह उसके बिल्कुल नजदीक आकर उस पर झपटा। बिना किसी चेतावनी के ही। उसकी पकड़ से बचने के लिए वह भी फुर्ती से पीछे हटी और जोर से उसके पेट में कोहनी से वार किया। पहरेदार कराह उठा। और अचानक ही अंबा को लगा, जैसे उसका खुद पर ही कोई नियंत्रण न हो। उसने जोर की साँस खींची और पूरी ताकत से पहरेदार के चेहरे पर मुक्का जड़ दिया।
इस वार से पहरेदार की आँखों के आगे अँधेरा छा गया और दिमाग चकरा गया।
“तू…. ! तू बाहर कैसे आई चुड़ैल-”, उसने इतना कहा ही था कि आगे वह कुछ भी कहने लायक नहीं बचा।
उसके चेहरे पर घूँसों की बौछार शुरू हो चुकी थी। इन घूँसों की रफ्तार इतनी तेज थी कि उसे रोक पाना उसके लिए लगभग नामुमकिन था। उसे यूँ लगा, जैसे उसके सिर पर कोई हथौड़े बरसा रहा हो। थोड़ी ही देर में उसका सिर नीचे काले पानी में कहीं लुप्त हो गया। नीचे खड्ड में नुकीली चट्टानों से टकराकर उस पहरेदार के शरीर की हडिडयों का चूरा बन गया। लेकिन वह उसकी तरफ देखे बगैर ही आगे बढ़ गई। उसे यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि उस अत्याचारी पहरेदार की नाक कैसी गुब्बारे जैसी फूल गई थी। कैसे मकड़ी के जाल में फँसकर मर चुकी मक्खी की तरह उसके पैर मुरझाए पड़े थे। ये वही पैर थे, जिनके जूतों ने उसके जिस्म पर जगह-जगह चोट की थी। उन चोटों के निशान अब तक उसके शरीर पर कायम थे। उसने उस पहरेदार के माँस के फटने और हडिडयों के चटकने की आवाज सुनी थी। झाड़ी के नीचे अचानक हुए इस शोर के बाद कौवों का समूह काँव-काँव करते हुए वहाँ जमा हो गया। उस बेजान शरीर पर टूट पड़ा था।
पहरेदार बहुत जल्दी और आसानी से मर गया था। फिर भी उसकी मौत थी बड़ी दर्दनाक। पहली नजर में देखने पर लगता था जैसे उसकी मौत किसी हादसे की वजह से हुई हो। उसे देखने वाले कल शायद यही कहेंगे, “लगता है, बहुत पी रखी थी।” अलबत्ता, इस वक्त अम्बा ये सोचते हुए किनारे से हट गई कि कितना भयानक था वह लम्हा, जब पहरेदार का शरीर पानी की सतह पर टकराते वक्त बुरी तरह मुड़-तुड़ गया था। हड्डी-पसलियों के टूटने की कितनी डरावनी आवाज उसके कानों में पड़ी थी।
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(नोट : यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।)
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