आज की ‘अहिंसा’ क्या है? और ‘जीवो जीवस्य जीवनम्’ का क्या अर्थ है?

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल, मध्य प्रदेश

उपनिवेशी भड़िहाई – 2

पिछले लेख में हमने देखा उपनिवेशी भड़िहाई (चोरी) का प्रधान हथियार छद्म होता है। उपनिवेशी तानाशाही का लक्ष्य भारत में अपनी भड़िहाई को जायज ठहराना था। स्वयं के तथाकथित नीति मूल्यों को श्रेष्ठ, ताकतवर, प्रासंगिक अत: अनुकरणीय बताने के लिए आधीन प्रजा के धार्मिक, सांस्कृतिक और सामजिक मूल्यों को दुर्बल और हीन जताना जरूरी था। इसलिए साभिप्राय अबोध बनकर अवभाषांतर या अपनिर्वचन (Misinterpretation) यानी गलत व्याख्या द्वारा एक कूटरचित नैरेटिव (कथानक) स्थापित करने की आवश्यकता हुई। यह नैरेटिव बदस्तूर आज भी कर्क रोग (कैंसर) की तरह फैल रहा है।

अपनिर्वचन  की एक बेहतरीन मिसाल है अहिंसा। आधुनिक गणराज्य ने अहिंसा को उसके धार्मिक-आध्यात्मिक और ऐतिहासिक परिवेश से तोड़कर नए आयातित अर्थों में परिभाषित कर दिया। परिणामस्वरूप अहिंसा एक उथली तथाकथित नैतिकता का दाम्भिक प्रदर्शन मात्र रह गई और जनता अपने विवेकाधीन शौर्य को भूल कर निस्तेज गुलाम बन गई। यह शोकान्त दास्तान रोचक है।

सनातन धर्मशास्त्रों में अहिंसा का स्थान अद्वितीय है। अहिंसा आध्यात्मिक साधन का अंग गौण अर्थ में है। प्रधानत: वह साध्य का लक्षण है। शास्त्र यह मानते हैं कि जब तक जीवन है, चाहे-अनचाहे जीव द्वारा हिंसा होना अपरिहार्य है। श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध में वर्णित, जीवो जीवस्य जीवनम् अर्थात् ‘एक जीव दूसरे जीव का जीवन है’, में इसकी अभिव्यक्ति हुई है।

धर्म की दृष्टि से कर्मसम्बन्धी अहिंसा के निर्णय में विवेक की भूमिका सर्वप्रधान समझी गई और विवेक का आधार सत्, चित्, आनन्द माना गया। फिर निर्णय यह दिया गया कि हिंसा का पैमाना जीव को प्राप्त चेतना है। यानि चेतना के स्तर पर जो जीव आरम्भिक स्तर पर है, अपरिहार्य कारणवश की गई उनकी हिंसा चेतना स्तर पर विकसित जीवों की हिंसा की तुलना में अभीष्ट है। यानी पेड़-पौधे के प्रति होने वाली हिंसा जन्तु-कीटों की तुलना में लघुतर है, छोटी है। जन्तुओं की हिंसा की तुलना में पक्षी और पक्षियों की तुलना में पशुओं की हिंसा गुरुतर है, बड़ी है। चेतना की अनुभूति का स्तर हिंसा में निहित पातक का पैमाना है।

यह माना गया कि मांसभक्षण में निहित हिंसा में मानव विकास के दौर के अपरिमार्जित संस्कार या परिस्थितिजन्य अपरिहार्य अवगुण हो सकते हैं। किंतु मद्यपान में विवेक बुद्धि को हर लेने की क्षमता है। मद्य की रसानुभूति में विवेक का जो तिरस्कार है, शास्त्र-लोक मर्यादा से हटकर संकीर्ण भोगकेन्द्रित स्वेच्छाचार की एषणा है, उसे अत्यन्त घृणित पापकर्म के रूप में देखा गया है। यही कारण है कि धर्मशास्त्रों में फल और अन्न द्वारा निर्मित होने वाली मद्य के पान को माँस भक्षण के समान और कई स्थानों पर प्रायश्चित्त कर्म में माँसभक्षण से भी अधिक गर्हित माना गया है। उत्कट पातक कर्म के लिए अनिवार्य विवेकस्तब्धता तो मद्य से ही सुलभ होता है।

उपनिवेशी परिवेश में वेद और उसके अंग-उपांगों के सम्बन्ध में जितना अज्ञान और कुप्रचार भारत में पनपा है, उसकी तुलना कहीं उपलब्ध नहीं। उपनिवेशी वैश्विकता में पनपे आधारहीन तुलनात्मक धर्म-दर्शन की छाँव में उदार आधुनिकों की कृपा से मद्य, सोम और सुरा का पर्यायवाची बन गया। इसी तरह, श्रौत निरूढ़ पशु-याग की तुलना देवी-देवताओं और भूत-प्रेताादि के निमित्त किए जाने वाले बलिदान से की जाने लगी। हालात यहाँ तक पहुँचे कि ह्यूमेनिज्म के नवउत्साही मसीहाओं ने वैदिक पशु यागों को गैरकानूनी बनाकर प्रतिबन्धित कर दिया। जबकि विचित बात है कि इसी सत्तापिशाच तंत्र को मद्य, माँस या गौवध निषेध में स्वातंत्र्य और मानव अधिकार का हनन दिखाई पड़ता है।

गौरतलब है कि आधुनिक काल में लोकप्रिय हुआ अहिंसा का स्वरूप, जिसे स्वयंभू सुधारक ब्राह्म, आर्यसमाजी, गाँधी-विनोबा प्रभृति विचारकों ने प्रसारित किया, उसकी जड़ें नास्तिक मत की अहिंसा में हैं। देश-काल व शिक्षा के प्रभाव से और सम्भवत: कुछ अहंकार और प्रमादवश वे अहिंसा सिद्धान्त की इस सूक्ष्म दृष्टि से अनभिज्ञ बनते हैं।

नास्तिक मत में अहिंसा करुणाजनित है। जीव दया से प्रेरित है। वैदिक-उपनिषदीय शिक्षा दर्शन के बनिस्बत जिन-बौद्धादि अन्य नास्तिक मतों में (कम से कम सामान्य अनुयायियों के स्तर पर) ऋत्-धर्म, जीव-ब्रह्मांड, आत्मा, जीव, अन्तःकरण चतुष्टय आदि व उनके अन्तर्सम्बन्ध का सुदीर्घ समग्र चिन्तन का अभाव है। पात्रता के अभाव में शास्त्र की लोक में क्या गति होती है, सम्भवत: यह उसका उदाहरण है। नास्तिक तर्कणा एक प्राकृत भौतिकतावाद के इर्द-गिर्द घूमती रहती है, और यही इसे बहुसंख्य लोगों के लिए सहज-सुलभ बनाती है।

विदेशी विचारों को भारतीय दार्शनिक प्रस्थान में घुसने के लिए नास्तिक मत एक बेहतर सोपान उपलब्ध करता है। भारत की स्वतंत्रता के लिए जो दुरभि सन्धि हुई, उसके अन्तर्गत तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्त्व ने जनता के विवेक और उस पर आश्रित निर्णय शक्ति का परित्याग कर सस्ती बाजारू कानूनी नैतिकता को अंगीकार कर लिया। यह तत्कालीन राजनेताओं के लिए औपनिवेशिक भारत की जनता को नए गणराज्य के नियंत्रित नागरिक बनाने का सहज और सरल मार्ग था। अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों के लिए भी यह उपयोगी था।

सम्भवत: यह बात गाँधीजी जैसे तीक्ष्णदृष्टि सम्पन्न व्यक्ति से भी छिपी नहीं थी। इसीलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के दिन वे दिल्ली से दूर कलकत्ते में थे। दिल्ली और शहरों से दूर हिंसा की चपेट में आए बंगाल के गाँवों में घूमना उनका अरण्यरोदन ही था। अहिंसा का यह नवीन स्वरूप जिसे संविधान द्वारा रूढ़ किया गया, उसमें मानव के विवेक आधारित निर्णय का कोई स्थान नहीं रह गया। यह भारतीयों को स्वविवेक प्रेरित से किताब प्रेरित करने की यात्रा थी। धर्म, गाय, समाज, जाति, परिवार और अबलाओं की रक्षा के लिए हँसते-हँसते प्राण न्योछावर करने वाले भारतीयों की सन्तान आज कहाँ खड़ी है, यह जानने के लिए हमें किसी दर्पण की आवश्यकता नहीं।

शेष, फिर कभी…। 
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(नोट: समीर #अपनीडिजिटलडायरी के साथ शुरुआत से जुड़े हुए हैं। लगातार डायरी के पन्नों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं और भोपाल में नौकरी करते हैं। पढ़ने-लिखने में स्वाभाविक रुचि है।) 
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उपनिवेशी भड़िहाई की पिछली कड़ी  

1. चारित्रिक रूप से हर किस्म का उपनिवेशवाद भड़िहाई ही है!

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