विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 3/7/2021

कल एक बहुत प्रिय मित्र को एकान्तवास में भेज दिया गया। उनका बेटा भी संग में, इस काल में ग्रसित हो गया। कल ही एक मित्र ने बताया कि मात्र 34 बरस का एक युवा यहाँ भर्ती कर लिया गया है। भोपाल में एक मित्र के माता-पिता अकेले रहते हैं। दिन-रात समाचारों की आँधी से भड़भड़ाकर वे मान बैठे हैं कि काल उनके दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है। चलते-फिरते उन्हें लगता है कि कोई कह दे, यह घोषित कर दे कि वे अब ज़्यादा समय रह नहीं पाएँगे। एक मित्र आशंका में अपना सब कुछ खोलकर बैठ गए। बही खातों से लेकर कपड़े और जेवरात भी। घर मे उपस्थित लोगों को बाँट रहे हैं। हाथ की अँगूठी और गले से चेन निकालकर दे दी। निर्मोही हो गए। सारा दिन बरामदे में लटके झूले पर बैठे रहते हैं कि मौत आए और अपने पंजो में दबोचकर ले जाए।

अभी एक सब्जी वाला निकला है, भरी धूप में। उसके ठेले पर सिर्फ आलू हैं। वह अपने जीवन को दाँव पर लगाकर बाहर निकलता है। कहता है, “क्या है बाबूजी, जब तक जीना, तब तक सीना। मेरे बूढ़े माँ बाप, एक विकलांग बच्चा और मूक पत्नी। उनके लिए ही तो करना है सब। यदि इस समय में नही किया तो फिर कब अपने आप से निगाह मिलाऊँगा। ज़िन्दा हूँ तो करना ही पड़ेगा सब और ना रहा ज़िन्दा तो फिर मुक्ति मिल ही जाएगी ना। गरुड़ पुराण में सुना है स्वर्ग होता है।” मैं कुछ नहीं कहता उससे। बस, दूर जाते हुए देखता हूँ। 

कितनी सारी कहानियाँ लिखना बाकी हैं अभी। पेशेवर काम की, अपनी, अनुभवों की, दुनिया जहान की, पर मन उचट गया है। सबको पूछता हूँ कि क्या हाल? ज़वाब आते हैं कि लिखने-पढ़ने में मन नहीं लगता। एक अपराध-बोध हावी होता जा रहा है। सुबह उठो, खाना बनाओ, खाओ, सुस्त से पड़े रहो। फिर शाम का इन्तज़ार और रात फिर जो कुछ डिब्बों में बचा है, उसे टटोलकर स्वांग करते हुए बेशर्मी से खा लो। नींद से दो-दो हाथ करते रात गुजरती है।

फोन पर बात करने की इच्छा नहीं होती अब। अपने एकांत को खुद चुना था, पर कल जब से मित्र का सुना तो सन्न रह गया हूँ। कबीर कहते हैं, “ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया”। पर इतना आसान है क्या? जन्म के समय ही मैली थी। मैल से ही जन्मे और मैल में ही लोट लगाते हुए जीवन को पखारा, निखारा, उजलेपन की तलाश में कालिख में धँसते गए। भोग, विलास, हवस, वासना, लालच, संचय, अनासक्ति और संसार के भँवरजाल में ऐसे उलझे कि चादर को गन्दला करते गए। जब लगा कि अब मुश्किल हो रही है, तो मुखौटे ओढ़ लिए और फिर तैयार हो गए। इस निर्लज्जता में एक दिन ऐसा आया कि सब कुछ बिसारकर निसंग हो गए। 

श्रद्धा और सबुरी सिर्फ़ कहीं लिखा हुआ नहीं था। बल्कि ये पढ़-समझकर हमने इसके विलोम में एक वितान रच लिया और मकड़ी की तरह जाला बुनते गए। अपने आपको वृहद् संजाल में पाकर ख़ुश हुए। पर यह भूल गए कि यहीं और ठीक इसी जगह हमें अपनी चादर छोड़नी होगी। सबको छोड़कर जाना होगा। 

कितने काम अभी शेष हैं। साधना की क़िताब टेबल पर पड़ी है। वर्षों का अथक श्रम बिखरा पड़ा है। इसे एक सूत्र में पिरोकर बाँधना है। चलने के पहले, अन्तिम यात्रा की कहानियाँ आरती के लिए पूरी करके देना है। संजीव की किताबों को पढ़ा है, मगर उन पर कुछ कर नहीं पाया था। दराज़ों से झाँकते ख़त मुकम्मल करने हैं। उन सभी शोकपत्रों को जवाब देने हैं, जो असमय काल के गाल में समाए हैं। अपने आपको रीतना है, कुछ यूँ खँगालते हुए कि सब कुछ शेष निःशेष हो जाए। 

चिड़ियाओं के लिए खुली छत पर दाना रखना है, जिन्होंने इन लम्बे दिनों और तप्त रातों में जागने का मौका दिया। गुलमोहर के पेड़ पर बैठे उस अनजान चमकदार पक्षी का शुक्रिया अदा करना है, जो भोर में शुक्र तारे के उदय तक मेरे साथ जगा और मेरे विचारों के प्रवाह को बाधित नहीं होने दिया। उन चींटियों के लिए कुछ शक्कर के दाने महफ़ूज़ रखने हैं, जो शरीर पर उस समय अथक कतार में रेंगती रहीं, जब लगा कि अब सब कुछ त्याग चुका हूँ। तिरोहित हो चुका हूँ। 

मैं सोचता हूँ, अभी क़ाया पर बोझ बहुत है। सांसारिक नहीं, पर अपने जाए दुखों का। बहुत से कन्फेशन (स्वीकारोक्ति) खुद से ही करने हैं। यह ज़िन्दा रहने का मोह नहीं, पर ज्यों की त्यों धरने से पहले दाग-धब्बे मिटाना हैं। इसके लिए तो कुछ क्षण चाहिए ही होंगे। लोग असल में गलतियों को माफ़ नहीं करते, जानबूझकर भूल जाते हैं। विस्मृति एक बड़ी नेमत है और मैं मुतमईन हूँ कि एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा। इस नश्वर देह के धरे का दंड भी यही है। 

” जगी असा सुखी कोण” और यही समझने में जीवन निकल गया समूचा। अब चादर बदलने की बेला आई है तो लगता है, रंगरेजा से जाकर पूछूँ कि कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला है।

इसलिए आज कबीर के साथ तुकाराम याद आते हैं, जो कहते थे…

‘ तुका म्हणे उभे राहवें 
जै जै हुई तै तै पाहवे ‘

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 17वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 
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इस श्रृंखला की पिछली  कड़ियाँ  ये रहीं : 

16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?

15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..

14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…

13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा

12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं

11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है

10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!

नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…

आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…

सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे

छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो 

पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!

चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा

तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!

दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…

पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

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