मेरो मन, मेरो वृन्दावन : सियाराममय सब जग जानीं…

समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल, मध्यप्रदेश

वृन्दावन को यदि हम निखालिस भौतिकता की दृष्टि से देखें तो वह उतना ही पाँचभौतिक है, जितना कोई और वन, गाँव, कस्बा या नगर। वही मिट्‌टी, नदी, रेत, पर्वत, वनस्पति, जीव-जन्तु और मानव। सब कमोबेश समान होते हैं। लेकिन आज हम यह जानते हैं कि भौतिकता एक बेहद संकीर्ण प्रस्थान है। आधुनिक क्वांटम फिजिक्स ने पदार्थ और चेतना, माइंड और मैटर के मिलनस्थल का अध्ययन कर हमें जिन निष्कर्षों पर पहुँचाया है, उससे भौतिकवाद की जड़ें हिल ही जाती हैं। विशेषकर तब, जब हम किसी चीज को समग्रता में देखने की इच्छा रखते हैं। तब हमारे लिए नेचुरल साइंस का आग्रह रखना संभव नहीं है। हमारी अंतर्मन और नज़रिया हमारी दृष्टि तथा भौतिक दृश्यमान विश्व को प्रभावित व नियंत्रित करता है। विज्ञान के इस पायदान से आध्यात्म की यात्रा शुरू होती है।

आध्यात्म में प्रेम के साधन और साध्य के प्रयोग का सबसे ऊँचा उदाहरण बृज की रसोपासना है। श्री वृन्दावन राधागोविन्द की प्रेमाभक्ति का सर्वोच्च शिखर है। यद्यपि मथुरा सप्तपुरी में गिनी जाती है किन्तु यह कोई धाम नहीं। फिर भी इस पुरी से लगे वृन्दावन को ‘श्रीधाम’ कहा गया है। यह अड़सठ तीर्थ, सप्तपुरी, चार धाम से परे यह ‘बृज का हृदय’ निराला है। इस निरालेपन की वजह है प्रेम के विशुद्ध स्वरूप का आध्यात्मिक साधना के रूप में रूढ़ हो जाना। भक्ति की पताका मानी गई गोपिकाओं का जीवन यहाँ आदर्श है। भक्त अपने इष्ट से सिर्फ उसके नाम, लीला, रूप और धाम की याचना करता है। और यह चारों अभिन्न होते हैं, कुछ ऐसे कि किसी एक को साध लेने पर अन्य सब अपने आप आ जाते हैं।

वृन्दावन धाम की महिमा इस मायने में सबसे अलग है कि यह भगवान का प्रेममय विग्रह ‘बृज का हृदय’ कहलाता है। यमुना महारानी के रूप में राधामाधव का प्रेम ही तरंगमान हिलोरें लेता है। बृज या वृन्दावन एक भाव है। इस भाव में बृज के जीव-जन्तु और वनस्पति राधमाधव के संगी-सखी हैं। और बृजवासी भगवान के भी इष्ट है।

प्राकृत भौतिकता की सहज दृष्टि से कवियों की भावुकता और कल्पना मान सकते है। लेकिन वृन्दावन की जो गवेषणा हमारा विषय है, उसके लिए इसे अप्राकृत प्रेम की भावदृष्टि से देखना ही इष्ट है। बृज वृन्दावन की रज, जीव-जन्तु, वनस्पति आदि को राधामाधव के परिकर मानना, वह आरंभिक ईकाई है, जिसे मानकर ही धाम के रहस्य में प्रवेश पाया जा सकता है।

कई बार निष्पक्षता से आचार-विचार, मन-विचारणा के मापदंड पर बृजवासी और अपने खुद को परखा तो पाया कि ये बृजवासी प्रेम के एक अलग और विरल स्तर पर रहते हैं। यह हमारे लिए सहज नहीं। नंदनंदन और वृषभानुलली से सम्बन्ध की इनकी ठसक एकदम अलग होती है। हर लौकिक और पारलौकिक कामना प्रेमास्पद की प्रीति के अधीन हो जाती है। बृज में राधामाधव से जो सहज, अप्राकृत प्रेम है, वह यहाँ के वासियों को अनुभूति की अलग क्षमता देता है।

इस बार श्रीधाम की कार्तिकी यात्रा में इसी अनुभव की प्रतीति हुई। वृन्दावन में पुरानी रहनी-सहनी से चल रहे कुछ आश्रम आज भी विद्यमान हैं। ऐसे कि आश्रम की पुरानी चहारदीवारी के ठीक बाहर आधुनिक सुख-सुविधा और सम्पन्नता के तमाम दंद-फंद का बाजार है। और भीतर प्रवेश करते ही मिलती है, परमआश्रयदाता रज, लता-पता, गायें, बंदर और कुछ निष्किंचन नाम-जापक साधु-सन्त। वहाँ न चकाचक गाड़ी-वाहन हैं, न आलीशान इमारतें।

इस बार घूमते-घूमते आलौकिक ही कहें, एक ऐसे आश्रम के दर्शन का सौभाग्य जागृत हुआ। दोपहर का समय हो गया था। एक परिकर ने मुझे देखते ही पंगत पाने के लिए कहा। उनकी वाणी के साधिकार- प्रेम का कुछ ऐसा भाव था कि उसने मेरे अजनबीपन और झिझक को हवा में उड़ा दिया। नामनिष्ठ साधकों के इस स्थान पर एक ऐसी अंतर्मुखता की अनुभूति हुई, जो आप अपनी स्मृति स्वयं बन गई।

प्रसाद लेकर कुछ समय ठहर कर वहाँ से अपने ठहरने के स्थान पर आया। जिस स्थान पर ठहरने का सौभाग्य मिला वह वृन्दावन ही नहीं, देश भर में सेवा के लिए प्रसिद्ध एक महान भगवद्प्रेमी सन्त की कृपा प्रसाद के रूप में जाना जाता है। सुदामाकुटी। सेवा के सहज स्वरूप की अनुपम छवि यहाँ आकर ही समझी जा सकती है। ग्रामीण अंचल से आने वाले हजारों भक्त का रेला। लोग आते हैं, छत के नीचे, खुले में, जहाँ जैसी जगह मिलती है, रूक जाते हैं। धाम का दर्शन करते है और फिर लौट जाते है।

बन्दरों के उत्पात के बीच भगवद् प्रसाद की निरंतर पंगत और प्रसाद का दौर। मजे की बात यह दिखी कि बन्दरों को भी सिर्फ भगाया ही जा रहा था, तात्कालिक रूप से। उनको दूर रखने करने के लिए जाली जैसा कोई पक्का इंतजाम नहीं रखा गया था। पंगत के बाद बची प्रसादी में उनका भाग होता ही है। यहाँ बड़े, बूढ़े, जवान, पढ़े-लिखे और अशिक्षित दीखने वाले संत सफाई, रसोई और अन्यान्य सेवा कार्य करते रहते हैं। मन्दिर में अत्यंत भावमय त्रिकाल आरती, दोपहर में रासलीला और प्रवचन। हालाँकि भले यह अपात्र मन कुछ ग्रहण न कर पाया लेकिन बुद्धि से यह सिद्धान्त तो समझ आया कि इस भावपूर्ण सेवा का दर्शन, “सियाराममय सब जग जानी” से कुछ कम नहीं।
——– 
(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ भी लिखा लिया करते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)

सोशल मीडिया पर शेयर करें
From Visitor

Share
Published by
From Visitor

Recent Posts

बेटी के नाम नौवीं पाती : मुझमें और अधिक मनुष्यता भरने के लिए शुक्रिया मेरी गिलहरी

प्रिय मुनिया मेरी लाडो! मैं तुम्हें यह पत्र तब लिख रहा हूँ, जब लगभग माहभर… Read More

2 days ago

ऑपरेशन सिन्दूर : भारत ‘इतिहास’ बदलने पर आमादा है और पाकिस्तान ख़ुद ‘अपना भूगोल’!

भारत का इतिहास रहा है, सौम्यता का प्रदर्शन। उनके साथ भी बड़ा दिल दिखाना, जो… Read More

2 days ago

ऑपरेशन सिन्दूर : आतंकी ठिकानों पर ‘हमले अच्छे हैं’, लेकिन प्रतिशोध अधूरा है अभी!

‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के तहत पूर्वी पंजाब में इस्लामवादी दरिन्दों के ठिकानों पर हमला महत्त्वपूर्ण और… Read More

4 days ago

माँ-बहनों का सिन्दूर उजाड़ने का ज़वाब है ‘ऑपरेशन सिन्दूर’, महँगा पड़ेगा पाकिस्तान को!

वे 22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम आए। वहाँ घूमते-फिरते, हँसते-खेलते सैलानियों को घुटनों के… Read More

4 days ago

तैयार रहिए, जंग के मैदान में पाकिस्तान को ‘पानी-पानी करने’ का वक़्त आने ही वाला है!

‘पानी-पानी करना’ एक कहावत है। इसका मतलब है, किसी को उसकी ग़लती के लिए इतना… Read More

5 days ago

मेरे प्यारे गाँव, शहर की सड़क के पिघलते डामर से चिपकी चली आई तुम्हारी याद

मेरे प्यारे गाँव  मैने पहले भी तुम्हें लिखा था कि तुम रूह में धँसी हुई… Read More

6 days ago