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मेरे प्यारे गाँव! मैं अपनी चिता भस्म से तुम्हारी बूढ़ी काया का श्रृंगार करूँगा

दीपक गौतम, सतना मध्य प्रदेश

मेरे प्यारे गाँव 

तुम्हारी सौंधी मिट्टी की सुगन्ध से गुँथा हुआ तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारा हर शब्द मेरी आत्मा के चिथड़ जाने का गवाह है। ये पत्र पढ़कर मैं आत्मग्लानि से भर गया हूँ। अब इस चिथड़न को सिलने का कोई रास्ता मुझे सूझ नहीं रहा है। मेरी स्मृतियों के संसार में तुमने हाहाकार मचा दिया है। मैं यह सोचकर ही गर्त में धँसा जा रहा हूँ कि अब अमराई के कुछ बिरबा ही शेष रह गए हैं। मुझे बेहद अफसोस है कि मेरी पीढ़ी ने तुम्हारे बाग-बगीचे, नदी, तालाब और प्राकृतिक जल स्त्रोतों का ध्यान नहीं रखा। आज वो अपने मूल स्वरूप में नहीं हैं। उनका सौंदर्य खो गया है।

मेरे प्यारे गाँव

मैं यकीनन तुम्हारे हर लफ़्ज़ से इत्तेफ़ाक रखता हूँ। मुझे तुम्हारी बेरुखी से भी इश्क है। तुम मेरे अस्तित्व का भान हो। तुम मेरी रूह की बेचैनियों का घर हो। तुम्हें जितनी शिद्दत से हमने चाहा है, उतना इसक (इश्क) तो माशूक से भी नहीं किया। गोया ये और है कि इसक हमारा कोई समझे न समझे, हमने जो भी किया बस रूहानी ही किया है। हमें तो सड़े-गले जिस्मों से नहीं रूहानियत से तरबतर रूहों से ही इसक हुआ है। इश्क़ तो हमने ‘हबीबी’ नहीं ‘हकीकी’ ही जिया है। मैंने तुम्हें इस कदर ओढ़ रखा है कि तुम मेरी रूह का लबादा नज़र आते हो। ये जो मृतप्राय काया तुम्हें दिखाई देती है। असल में वो तुम्हारे इसक से लबरेज़ आत्मा की मैली चादर मात्र है। इसे मैं अपने पुरुषार्थ से धुलने में लगा हूँ। मेरा यकीन करो प्यारे एक दिन आएगा, जब इसका मैलापन चला जाएगा। मैं अपने जीते जी इसे साफ करके मानूँगा। मगर इसमें वक्त लगेगा। 

मेरे प्यारे गाँव

तुमने मेरे बचपन को अपने अन्दर जिस तरह से सहेज रखा है, उसका मैं कायल हूँ। बस ये समझ लो कि तुम्हारी स्मृतियों के संसार में टहलकर ही मेरी हर सुबह और शाम गुजरती है। लगभग दो दशक मैं तुमसे दूर रहा हूँ। कोई एक पल नहीं गुजरा जब मैंने तुम्हारे सूख चुके नदी-नालों, पहचान खो रहे तालाबों और बाग-बगीचों की फिक्र न की हो। मेरे पास कोई जादू की छड़ी तो नहीं है कि तुम्हारी तस्वीर बदल दूँ। मगर तुम्हारी खुदाई ने मुझे वो हुनर अता किया है कि मैं धीरे-धीरे ही सही तुम्हारी आत्मा के घावों पर अपने इसक का मरहम लगाता रहूँगा। बस, तुम भरोसे के महीन धागे को टूटने मत देना। मैं तुम्हारे लिए नहीं खुद के लिए लौट आया हूँ। क्योंकि तुम तक पहुँचने का रास्ता तुम्हीं से होकर जाता है। बस इसीलिए इस रहगुजर पर तुम्हारे अलावा कोई मेरे साथ नहीं हो सका है। ये बड़ी कठिन डगर है। मैं अभी इस पर सधे कदमों से चलने की कोशिश कर रहा हूँ। शहर के कांक्रीट भरे जंगलों के मायाजाल से होता हुआ तुम्हारे उजले सवेरे और हसीन चाँदनी रातों के लिए मैं लौट आया हूँ।

मेरे प्यारे गाँव

तुम अभी भूगोल देखोगे, तो पाओगे कि दूरियों को मैंने अपने सधे कदमों से नाप लिया है। अब सैकड़ों किलोमीटर नहीं तुमसे महज़ कुछ मील के फासले पर आकर मैं ठहर गया हूँ। तुम्हारी आत्मा के घाव सूख जाने तक मुझे यहाँ रुकना होगा प्यारे। मैंने तुम्हारे इसक के लबादे को ओढ़ रखा है। तुम फिक्रमन्द हो कि अमराई सूख रही है। मगर मैं तुम्हारे अस्तित्व को लेकर चिन्तित हूँ। विकास की आँधियों ने तुम तक पहुँचने वाली पगडंडी को सड़क का स्वरूप भले दे दिया हो, लेकिन इस प्रक्रिया ने पगडंडी के इर्द- गिर्द लगे कोई सौ-दो सौ पेड़ों को लील लिया है। तुमने मुझे सूख चुके उस झाड़ की तस्वीर अपने पत्र के साथ प्रेषित की थी, जो मेरे बचपन की स्मृतियों में रचा-बसा है। मैं तो तुम्हें चाहकर भी कुछ ऐसा साझा नहीं कर सकता, जो तुम्हें तकलीफ पहुँचाए।

मेरे प्यारे गाँव

मैं जहाँ आकर ठहरा हूँ। ये मेरी नई कर्मभूमि है। यहाँ मैं साधनरत हूँ ताकि तुम्हारी साधना करने में कोई व्यवधान न पैदा हो। हाँ मैं इसे साधना कह रहा हूँ, क्योंकि तुम्हारे लिए कुछ भी कर पाना ही वास्तव में मेरे लिए साधना है। मेरा यकीन करो प्यारे, मैं लौट आया हूँ। तुमसे उतना ही निकट हूँ, जितना तुम्हारे शिवालय के निकट वो जल कुण्ड है। अब क्या कहूँ कि उसकी भी प्रकृति छीनकर उसे कुएँ में तब्दील कर दिया गया है। कुछ भी पहले जैसा नहीं रह गया है। परिवर्तन ही संसार का नियम है। इसलिए कुछ सुखद तब्दीलियाँ तुम्हें जल्द मिल सकें, मैं इसकी कोशिश में हूँ। क्योंकि हम खुद से कहाँ तक भागेंगे? तुम ही अस्तित्व हो हमारा। हमारे वजूद की अमिट छाप हो। हमें लौटना ही होगा ताकि मुंडेरों पर पंछी चहचहाते रहें। खेतों में अन्न उगता रहे, बगीचों में फल फूलते रहें। ताजा बयार बहती रहे कि साँस लेने में दम नहीं फूले….। वास्तव में तुम तक पहुँचने की यात्रा प्रकृति को गले लगाने की यात्रा है। इसलिए तुम तक पहुँचना ही भोगवादी संस्कृति के बीच सन्तोष के साथ बेहतर जीवन जीने का सबसे सुखद विकल्प है। यह बात एक रोज़ सबको समझ आएगी कि खेत-खलिहानों से ही अन्न मिला करता है। कंक्रीट के जंगलों में पैसा भले उगता हो, मगर पेट अन्न से भरता है।

मेरे प्यारे गाँव

मैं तो तुम्हें अनवरत खोजता रहता हूँ अपने अन्दर। तुम से ही मेरी यात्रा शुरू हुई है और तुम तक पहुँचकर ही खत्म होगी। ये यात्रा कठिन और बेहद श्रमसाध्य है। तुमसे विलग होकर तो मैं अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकता। तुम्हारे पास लौटना ही असल में स्वयं के पास लौटना है। इसलिए मैं तुम तक पहुँचने को बेताब हूँ। मेरे प्यारे, बदलते वक्त के साथ तालमेल बिठाते हुए अपनी जरूरतों को सिकोड़कर मैं तुम्हारे पास बहुत खुशहाल जीवन जी सकता हूँ। इसके लिए मैं प्रयासरत हूँ। क्योंकि जब मन के अन्दर जीवन की किसी भी परिस्थिति को लेकर सन्तोष उत्पन्न हो जाता है, तब छद्म भोगवादी संस्कृति का मायाजाल ख़ुद-ब-खुद टूट जाता है। मैं इस मायाजाल से कब का बाहर आ गया हूँ। बस, तुम्हारे लिए कुछ करने की चाह लिए मैं प्रयासरत हूँ। असल में जिस साधन से तुम्हारी साधना सम्भव है, उसे कमाने में वक्त लगेगा। इसीलिए तुम मेरी राह देखते रहना प्यारे। मेरा यकीन करो, मैं तुम्हारी बयार में बहना चाहता हूँ। तुम्हारी सुगन्ध मेरे नथुनों से मरते दम तक नहीं जाएगी। मेरे फेफड़े तुम्हारी फ़िजा का ही आखिरी बार स्वाद चखें, मैं बस उसी इंतजाम में हूँ। मैं तुम्हारी बूढ़ी हो चली काया का अपनी चिता की भस्म से श्रृंगार करूंगा।

तुम मुझे पत्र लिखते रहना। तुमने लिखा था कि रंजिश ही सही दिल दुखाने के लिए आ…!! मैं कहता हूँ कि मैं वापस आऊँगा…मैं एक दिन आऊँगा..!! 

– तुम्हारा प्रेमी 

#आवाराकीडायरी #बेपतेकीचिट्ठियाँ #आवाराकीचिट्ठियाँ #गाँवकेनामपाती 

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पिछली चिटि्ठयाँ 

4- गाँव की दूसरी चिठ्ठी : रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ…!!
3- मेरे प्यारे गाँव, शहर की सड़क के पिघलते डामर से चिपकी चली आई तुम्हारी याद
2 – अपने गाँव को गाँव के प्रेमी का जवाब : मेरे प्यारे गाँव तुम मेरी रूह में धंसी हुई कील हो…!!
1- गाँव की प्रेम पाती…,गाँव के प्रेमियों के नाम : चले भी आओ कि मैं तुम्हारी छुअन चाहता हूँ! 

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(दीपक मध्यप्रदेश के सतना जिले के छोटे से गाँव जसो में जन्मे हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से 2007-09 में ‘मास्टर ऑफ जर्नलिज्म’ (एमजे) में स्नातकोत्तर किया। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में लगभग डेढ़ दशक तक राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, राज एक्सप्रेस और लोकमत जैसे संस्थानों में कार्यरत रहे। साथ में लगभग डेढ़ साल मध्यप्रदेश माध्यम के लिए रचनात्मक लेखन भी किया। इन दिनों स्वतंत्र लेखन करते हैं। बीते 15 सालों से शहर-दर-शहर भटकने के बाद फिलवक्त गाँव को जी रहे हैं। बस, वहीं अपनी अनुभूतियों को शब्दों के सहारे उकेर दिया करते हैं। उन उकेरी हुई अनुभूतियों काे #अपनीडिजिटलडायरी के साथ साझा करते हैं, ताकि वे #डायरी के पाठकों तक भी पहुँचें। यह श्रृंखला उन्हीं प्रयासों का हिस्सा है।)

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