संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 17/7/2021
अभी किसी से फोन पर बहुत लम्बी बात हुई। आवाज़ों के शोर के पीछे जो आँसुओं का दर्द था, वो मैं महसूस कर पा रहा था। हम दोनों में पिछले दशक से एक अबोला प्रेम था। निश्छल, अबोध और बगैर अपेक्षाओं वाला। हम व्यक्त करने में बहुत समय लेते हैं। इसलिए जब हम किसी को सुनते हैं, तो एकाग्र होकर सुनें और अपनी ओर से कुछ न जोड़ें। बल्कि यदि कहना भी हो तो इतना ही कि बस सामने वाले को लगे कोई है जो सुन-गुनकर मेरे साथ है।
बात संसार, स्मृतियों, अपेक्षाओं, उम्मीदों पर खरा उतरने और महात्वाकांक्षाएँ पूरी करने और किसी के लिए अपने को कुर्बान करते हुए साबित करने की थी। जब बात हो रही थी, तो मैं अपनी ओर से हूँ-हाँ कर रहा था। पर अपने भीतर ही भीतर मथ रहा था कि ऐसी ही झड़प मेरी जब किशोरावस्था में था, तो पिता से हुआ करती थी। भाई से, रिश्तेदारों और दोस्तों से हुआ करती थी। अपने शिक्षकों से भी उलझा रहता था। फिर एक समय बाद इश्क और कालान्तर में नौकरी में भी झड़प होना स्वाभाविक था।
पर आज इस एकांत में अपने इस गाढ़े नीले दीवार वाले कमरे में बैठा हूँ तो लगता है क्या बदला? पिता नहीं बदले। धीरे-धीरे उन्होंने बात करना कम कर दिया। इतना कि बस ज़रूरतों पर ही बात होती। जब वे अस्पताल में लम्बे-लम्बे समय रहते तो माँ से कहते, “उसे पूछ लो, कुछ चाहिए तो नहीं।” ऑपरेशन की आख़िरी रात को माँ ने भी सिर्फ़ इतना पूछा था, जब वे पूरे होश में थीं कि एक बात कहना थी…पर छोड़, घर आने पर बताऊँगी। वह कभी घर नहीं आ पाईं। मानो, उन्हें लगा कि मैं फिर झड़प करने बैठ जाऊँगा।
ऐसे ही, दोस्तों से भी कई बार बात करना छोड़ दिया कि रहने दो कोई मतलब नहीं। करीब 38 साल की नियमित नौकरियों में बहस करता रहा। फिर जब लगा कि अब सम्भावना नहीं है कोई, तो सब कुछ स्थगित कर छोड़ दिया। इस तरह से 12-15 नौकरियाँ कीं। अन्त में स्थाई रूप से निरापद हो गया। इधर आठ वर्षों से, जीने की अपनी समस्याएँ हैं। पर जुगाड़ हो जाता है रोते-झीकते।
लगता है, प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें। धीरे-धीरे एक श्रद्धा अपने-आपके प्रति उपजने लगती है। एक आस्था जन्मती है, अपने कहीं बहुत भीतर कि हम ठीक हैं। संसार में बहुत कुछ हो रहा है जो हमारे अनुकूल नहीं है। पर अन्त में सिर्फ़ यही कहकर हम हर बार ख़त्म कर देते हैं कि किया क्या जाए, अब ऐसा है तो है।
शायद यह अभी हमारी बातचीत में भी उभरा। हम जोर से हँस दिए थे दोनों और भीतर जो पिघल रहा था हम दोनों के, वह निकल आया। बहने लगा निर्बाध। यद्यपि भरोसा एक दूसरे पर हम अपने आप से भी ज़्यादा करते हैं। फिर भी बहुधा यह कहकर हम एक बार टटोल लेना चाहते हैं कि ‘यह बात हम दोनों तक ही रहे’, एक कोमल तन्तु से बँधे ये रिश्ते न, बहुत सख्त होते हैं। ये हल्की सी चोट से बिखर सकते हैं।
कई मौके जीवन में आए जब बिखरा, टूटा और संभला लेकिन हर बार विश्वास और आस्थाएँ थीं। झड़प और बहस ने ताकत दी, दृष्टि दी। इन्हीं से सीखा कि पूरा होना क्या होता है और इसी सबमें कब सम्पूर्णतावादी हो गया (Gestald Theory), पता नहीं चला। धीरे-धीरे यही ज़िद और अड़ियलपन कब मुझे विरक्त कर संसार से इस बियाबान में ले आया पता नहीं चला। पर जब यहाँ से उस भरे-पूरे संसार को देखता हूँ, तो हर शख़्स मुझे अमर बेल सा लगता है। किसी न किसी पर आश्रित। यह आश्रय नौकरी या आजीविका का नहीं, परन्तु विचार, अभिव्यक्ति, भावनाओं के सन्तुलन और आस्थाओं का है।
लम्बी-लम्बी बातचीत में हर बार, सब ठीक है और मिलते हैं, के साथ एक विराम लग जाता है। लगाना ही पड़ता है क्योंकि किया क्या जा सकता है। हम सबके अपने ट्रैक (रास्ते) हैं। अपनी-अपनी कांस्टीट्यूएन्सी (क्षेत्र) है। इसमें किसी और का दख़ल हमें पसन्द नहीं होता, पर हमेशा से ये जरूर लगता रहा है कि हम मुक्त ही पैदा हुए हैं और सदैव मुक्त रहते हैं। बन्धन हम पर पहले थोपे जाते हैं, फिर हम खुद ओढ़ते हैं और अन्त में उनमें ही रहने की आदत पड़ जाती है हमें।
प्रकृति जैसा हमें गढ़ना चाहती है, गढ़ ही लेती है और हम निराकार उस साँचे में ढलकर एकनिष्ठ हो जाते हैं। यही जीवन है, यही सार है, इसलिए झड़प होना, बहस होना, मतभेद होते रहना यानि ये सब जीवन को हिमांक पर ले जाने के चरण हैं। यही है, जो आस्था और विश्वास के तागे से जोड़ता है और अन्त में उस रूप में ले आता है, जिस रूप में प्रकृति हमें वापस चाहती है।
हम जब इस रूप में आते हैं तो खत्म हो चुके होते हैं। मेरे जानने वालों में कई जौहरी, सुनार, कपड़े पहचानने वाले, चाय का स्वाद पहचानने वाले, मसालों की खुशबू से पहचान करने वाले लोग थे। वे अपने हुनर के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचते- पहुँचते इतने बूढ़े और निस्पृह हो गए कि ख़ुद को भी पहचान नहीं पाए।
संगीत के कई उस्तादों को जानता हूँ, जो आरोह-अवरोह की धार में से आलाप लगा पाते, तब तक उनकी स्वर लहरियाँ ही बिखर गईं। कच्ची उम्र से तबले और पेटी पर हाथ साधते कलाकारों को देखा है। जब तक माध्यम उनके बस में आता वे विलोपित हो गए। पता नहीं क्यों हर अच्छे गोताखोर को डूबकर मरते देखा है। अच्छे डॉक्टर को तड़पकर मरते देखा है। अच्छे इंसान को लाचारी में मरते देखा है।
एकांत हमें सोचने का मौका देता है कि हमें जब प्रकृति ने जन्म दिया था, तब हम कैसे थे। पिछले वर्षों में हम कैसे-कैसे रास्तों से गुजरे हैं और अब प्रकृति हमें कैसे वापस लेना चाहती है। क्या हम तैयार हैं इसके लिए? और क्या भरोसा, आस्था और प्यार के रस में पगी हुई वो चाहत हम में अभी धड़कती हो?
एक क्षण विचार करें कि प्रकृति हमें कैसे वापस लेना चाहती है और हम में वह देख पाने की क्षमता है या नहीं?
मैं अपने को देखता हूँ तो बस लगता है जितना सरल और पारदर्शी हो सकूँ, वही पर्याप्त है। हाथ खाली है, दिमाग का बोझ रीत ही रहा है। मोह के धागे कभी नहीं थे। सो, अकुलाहट और लालच कुछ नहीं है। बस, शनै:-शनै: तिरोहित हो रहा है, सबकुछ। एक भरपूर जीवन का प्रतिफल और क्या होना चाहिए इससे बेहतर?
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 19वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!
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