स्वच्छता अभियान पर गैर-राजनीतिक चर्चा!

ए. जयजीत, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 25/11/2021

दो अधेड़ और काफ़ी हद तक प्रबुद्ध सुअर, हाँ भाई सुअर ही, अपनी किसी राष्ट्रीय समस्या पर चर्चा कर रहे हैं। चूँकि दोनों प्रबुद्ध हैं तो सुअर होने की नियति से ऊपर उठकर चर्चा करना उनका नैतिक दायित्व है। वे इस समय देश में स्वच्छता की समस्या पर चर्चा कर रहे हैं। उनके लिए स्वच्छता ही समस्या है। चूँकि समस्या
गम्भीर है तो बीच-बीच में गम्भीरता का पुट भी कभी-कभार आ ही जाता है। बताओ, क्या ज़माना आ गया। पर ये तो आदमियों की भाषा है। सुअर कैसे सीख गए? भाई, आदमी जब सुअर की भाषा सीख सकते हैं, तब ये तो प्रबुद्ध सुअर हैं। सीख ही गए होंगे।

पहला सुअर – और बताओ, कैसी कट रही है!

दूसरा सुअर – बस कट रही है।

पहला – क्यों क्या हुआ? बड़े दुखी-से लग रहे हों?

दूसरा – दुखी! अरे फ्रस्टेशन में मरा जा रहा हूँ।

पहला – क्यों, ऐसा क्या हो गया?

दूसरा – अरे, वही हमारे पड़ोस में जो नाला बहता है न…

पहला – हाँ, तो क्या हुआ? किसी बिल्डर ने कब्ज़ा कर लिया? मानो, नाले बनाए ही इसलिए जाते हैं कि किसी दिन कोई बिल्डर कब्जा कर लें। 

दूसरा – अरे नहीं भाई। उसके पास पहले जो घूरे का डस्टबिन रखा रहता था न, उसे स्वच्छता अभियान के नाम पर नगर निगम के लोगों ने हटा दिया है। 

पहला – लो बताओ, क्या ज़माना आ गया।

दूसरा – और नहीं तो क्या। अब लोग सीधे नाले में ही कचरा फेंकने लगे हैं।

पहला – हाँ, अब नाले में स्साला मुँह मारने को कौन उतरेगा।

दूसरा – अरे उतर भी जाए, पर पास ही में जो गन्दी बस्ती है न, वहाँ के बच्चे भी तो उसी नाले से ताज़ी मछलियाँ पकड़ते हैं। वे हड़काते रहते हैं। इज्ज़त भी तो कुछ चीज है कि नहीं।

पहला – अच्छा, निर्मल पानी की स्वादिष्ट मछलियाँ। वाह! मैं तो उन बच्चों के बारे में सोच रहा हूँ। हाऊ लकी दे आर। और एक तरफ देखो हमारे बच्चे। अब घूरे भी नसीब नहीं हो रहे। यह तो एक वर्ग विशेष को साफ करने की पूरी साजिश है साजिश।

दूसरा – बताओ, सोचा था कभी कि ऐसे भी दिन आएँगे?

पहला – यही अच्छे दिन हैं? बड़े उछल रहे थे। अच्छे दिन आने वाले हैं।

दूसरा – अच्छे दिनों की बात हमें नहीं करनी है। यह तो सब इंसानों की मोह-माया है। वैसे भी अब यह नारा बहुत घिस-पिट गया है। हमें शोभा नहीं देता। लेट्स गो टु द नेक्स्ट लेवल…

पहला – बिल्कुल सही, आओ ख़राब दिनों की बात करते हैं।

दूसरा – हाँ, ख़राब दिनों की बात करने से हमें कोई पॉलिटिकली मोटिवेटेड नहीं कहेगा। 

पहला – मतलब, घूरे का वह डस्टबिन क्या हटा, तुम्हारे ख़राब दिन शुरू हो गए?

दूसरा – बिल्कुल, कांग्रेस जैसी औक़ात हो गई है। घूरे बचे नहीं तो कहाँ मुँह मारें। एक-एक करके सारे घूरे हटते जा रहे हैं। जो थोड़े-बहुत घूरे बचे हैं, लगता है आने वाले दिनों में वे भी हट जाएँगे।

पहला – नो पॉलिटिकल कमेंट प्लीज़। राजनीतिक बयानबाज़ियों से हम सुअरों को बचना चाहिए। इसके लिए आदमी बहुत है। 

दूसरा – करेक्ट, वैसे तुम जिस बस्ती से आते हो, मेरे ख्याल से वहाँ तो सब ठीक है न?

पहला – हाँ। फिलहाल तो बस्ती के बाजू में ही कूड़े-कचरे के ढेर पड़े रहते हैं। शायद वहाँ कोई सर्वे वाला नहीं आता होगा। या फिर वह घूरा किसी नेता, अफ़सर या किसी जज के बँगले के बाजू में नहीं है। गन्दी बस्ती के बाजू में है, इसलिए बेचारा बचा हुआ है। 

दूसरा – फिर तो बढ़िया है। ज़िन्दगी कट ही जाएगी न?

पहला – अरे नहीं। अब अफ़वाह है कि उसे साफ़ करके वहाँ कोई बड़ा अपार्टमेंट बनने वाला है। उसके बाजू से सिक्स लेन रोड भी निकलेगा। और जब उस एरिया का विकास होगा तो घूरे को भी वहाँ से हटाना ही पड़ेगा। 

दूसरा – पर ये तो बढ़िया है न। विकास हो रहा है।

पहला – पर इस विकास में उन बस्तीवालों का क्या होगा? वे कहाँ जाएँगे बेचारे?

दूसरा – उनकी चिन्ता करना छोड़ो। जब भी ऐसी बस्तियाँ हटती हैं, उन स्सालों को शहर के बाहर मकान तैयार मिलते हैं। ठाठ से रहेंगे वहाँ, और क्या!

पहला – शहर के बाहर ठाठ से कैसे रहेंगे? काम के लिए तो उन्हें दूर-दराज से शहर ही आना पड़ेगा।

दूसरा – आम धारणा तो यही है। जब आम धारणा यही है तो तुम अपनी खास धारणा क्यों फँसा रहे हो बीच में? 

पहला – जब बस्ती नहीं होगी तो घूरे के ढेर नहीं होंगे। घूरे के ढेर नहीं होंगे तो हम नहीं होंगे… 

दूसरा – आ गए न आदमी वाली पर? मुझे पता था कि बस्तीवालों को लेकर तुम्हारी चिन्ता केवल ढकोसला है। तुम्हें असली चिन्ता तो अपनी है। 

पहला – हाँ, तो क्या हमें अपनी चिन्ता नहीं करनी चाहिए? क्या हम सुअरों को इतिहास का हिस्सा बन जाने दें? कुछ तो करना होगा न? 

दूसरा – तो क्या करें? आओ मिलकर क्रान्ति करते हैं।

पहला – क्रान्ति तो नहीं, पर क्रान्ति की बातें तो कर सकते हैं न!

दूसरा – क्रान्ति की बातें करना तो इंसानी फितरत है। पर हम तो सुअर हैं। अगर कुछ ग़लत हो रहा है कि हमें सड़क पर उतरकर इसका विरोध करना चाहिए। 

पहला – पर हम प्रबुद्ध सुअर हैं, यह मत भूलिएगा।

दूसरा – अरे हाँ, यह तो मैं भूल ही गया था। दोनों ठहाका लगाते हैं

… फिलहाल के लिए चर्चा समाप्त।
—-
(ए. जयजीत देश के चर्चित ख़बरी व्यंग्यकार हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी के आग्रह पर ख़ास तौर पर अपने व्यंग्य लेख डायरी के पाठकों के उपलब्ध कराने पर सहमति दी है। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इसके लिए पूरी डायरी टीम उनकी आभारी है।)

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