सिर्फ तीन शख्सियतों ने गैस पीड़ितों के प्रति मानवीय संवेदनशीलता दिखाई

विजय मनोहर तिवारी की पुस्तक, ‘भोपाल गैस त्रासदी: आधी रात का सच’ से, 28/7/2022

भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक हैं अब्दुल जब्बार (उनका नवंबर 2019 में देहांत हो चुका है)। देश-दुनिया में एक जाना माना नाम। … वे हादसे की अंधेरी धुंध भरी भोपाल की उस भयानक रात के भी किरदार हैं। सुनिए, उस रात क्या मंजर था?

जब गैस हादसा हुआ तो उस रात मेरे साथ पिता अब्दुल सत्तार व भाई अब्दुल शमीम और काजी कैंप में बहन परवीन थी। उनके दो छोटे बच्चे थे, जिन्हें लेकर मैं कस्तूरबा अस्पताल गया। गैस से बचने की भागमभाग के हजारों किरदारों में एक मैं भी था। तब ट्यूब वेल बोरिंग का काम करता था। गैस हादसे को इतना करीब से देखकर और उसके प्रभावितों से घिरा पाने के बाद भीतर ही उपजे स्वाभाविक गुस्से ने इसी दिशा में प्रेरित किया। इसी काम में पूर्णकालिक तौर पर जुड़े अब 25 साल बीत गए।

पहले हमारा एक ही संगठन था ‘जहरीली गैस कांड संघर्ष मोर्चा’। यह साल भर में ही कुछ विशेष बातों तक केन्द्रित होकर रह गया। तब सरकार ने अपना उदार चेहरा दिखाने के लिए सिलाई केंद्र शुरू किए थे, जो 12 महीने में ही बंद हो गए। हमने आंदोलन किया। इसके साथ ही जनवरी 1986 में हमारे संगठन का जन्म हुआ। उन्हीं दिनों सरकार की तरफ से बतौर राहत पांच लाख गैस पीड़ित परिवारों को हर महीने राशन दिया जाता था। इसके लिए लंबी कतार लगती थी। यह तरीका खैरात बांटने जैसा असहनीय और अपमानजनक था। हमने कहा कि खैरात नहीं, रोजगार दो। सिर्फ दो सौ महिलाओं का यह आंदोलन धीरे-धीरे बीस हजार सक्रिय सदस्यों में तब्दील हो गया। आधी से ज्यादा महिलाएं मुस्लिम थीं। इनका बुरके में सड़कों पर निकलना एक मजहबी मामला बन गया। हम काजी साहब से मिले। उन्होंने मिसाल दी कि हक की खातिर लड़ाई में ऐसी आपत्ति सही नहीं है।

संघर्ष के इस लंबे सफर में हम दिल्ली में पांच सौ और भोपाल में पांच हजार प्रदर्शन कर चुके हैं। दो सौ दफा गिरफ्तारियां हुई। लेकिन हादसे के शिकार लोगों को भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल नसीब हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने इलाज की सरकारी विफलता पर दो कमेटियां बना दी। फरवरी 1989 में जब सरकार और यूनियन कार्बाइड के बीच समझौता हुआ तो देश के न्यायिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ भोपाल से तीन हजार पीड़ित अपने दिल की आहें लेकर दिल्ली की सड़कों पर उतरे। देश के 120 सांसदों ने हमारी मांग के समर्थन में दस्तखत किए और संसद में मामला गरमाया।

… यह संगठन के दबाव से ही मुमकिन था कि 1992 से बंद पड़े सिलाई केंद्र फिर से शुरू हुए। 1998 में पीड़ितों के आर्थिक पुनर्वास के लिए स्वाभिमान महिला प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की। कई स्तरों पर सालों लंबी अदालती कोशिशों, फैसलों, याचिकाओं, राजी नाराजी के इस सिलसिले के बीच आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में यह एक कारगर पहल साबित हुई। 1999-2000 में एक और अहम कानूनी पहल यह हुई कि हम कुछ संगठनों ने मिलकर यूएस की अदालत में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ भोपाल में पर्यावरणिक क्षति का मुकदमा दायर किया। इसके बाद ही पर्यावरण को लेकर सुनवाई के हक को स्वीकार किया गया।

इस लंबी लड़ाई में सिर्फ तीन शख्सियतों ने ही पीड़ितों के प्रति मानवीय संवेदनशीलता दिखाई। एक तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरामन, जिन्होंने राजभवन में मुलाकात के समय सुझाया कि जीवनपर्यंत पेंशन की बात कीजिए। मुआवजे के नतीजे आप जानते हैं। वे दो बार हमसे मिले। दूसरे तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह, जिन्होंने समझौते के खिलाफ अपनी राय जाहिर की और अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी को दिशा-निर्देश दिए। तीसरे थे-वित्त मंत्री मधु दंडवते, जिन्होंने एकमुश्त 310 करोड़ रुपए की अंतरिम राहत मंजूर की। उनके दरवाजे हमेशा गैस पीड़ितों के लिए खुले रहते थे। इनके अलावा मध्यप्रदेश में सिर्फ तत्कालीन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा ही हैं, जिनके समय गैस पीड़ितों के लिए तमाम महत्वपूर्ण निर्माण कार्य हुए। आकाशवाणी के समक्ष होने वाले धरना-प्रदर्शनों के दौरान वोराजी अपने स्टाफ को भेजकर हमारी तकलीफों पर ध्यान देते थे। वे हफ्ते में एक बार यूनियन कार्बाइड के आसपास की प्रभावित बस्तियों में खुद जाते थे। ऐसा करने वाले वे पहले और आखिरी मुख्यमंत्री थे। इन चंद नामों के अलावा पिछले 25 सालों में कोई राजनेता और कोई नौकरशाह ऐसा नजर नहीं आया, जिसने हजारों बेकसूर पीड़ितों के दर्द को इतने करीब से इतनी गहरी संवेदनशीलता से समझने की कोशिश की हो।

…गैस ने मेरी मां, भाई और मेरे फेफड़ों पर बुरा असर किया। मां और भाई का इंतकाल हो गया। मुझे श्वांस की दिक्कतें हैं। अपनी जिंदगी में गरीबी के दौर में मैंने हाथ ठेला चलाया और ईंट भट्टों पर दो रुपए में एक हजार ईंटें ढोंईं। अपने फायदे के लिए दुनिया काम करती है, लेकिन मैंने कारोबार जमाने की बजाय अपनी क्षमताओं से समाज के इसी तबके के बीच काम करने का फैसला उस वक्त लिया। इनकी तादाद हजारों-लाखों में है। ये हमसे अलग नहीं हैं। हमारा फर्ज है कि हम इनके लिए एकजुट हों। इस संघर्ष का यही सबक है। आज स्थानीय जनाधार वाला यह संगठन जनता से जुड़े सवालों पर स्थानीय आर्थिक मदद के सहारे ही अपने सबक पर काम कर रहा।
(जारी….)
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(नोट : विजय मनोहर तिवारी जी, मध्य प्रदेश के सूचना आयुक्त, वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। उन्हें हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार ने 2020 का शरद जोशी सम्मान भी दिया है। उनकी पूर्व-अनुमति और पुस्तक के प्रकाशक ‘बेंतेन बुक्स’ के सान्निध्य अग्रवाल की सहमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर यह विशेष श्रृंखला चलाई जा रही है। इसके पीछे डायरी की अभिरुचि सिर्फ अपने सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकार तक सीमित है। इस श्रृंखला में पुस्तक की सामग्री अक्षरश: नहीं, बल्कि संपादित अंश के रूप में प्रकाशित की जा रही है। इसका कॉपीराइट पूरी तरह लेखक विजय मनोहर जी और बेंतेन बुक्स के पास सुरक्षित है। उनकी पूर्व अनुमति के बिना सामग्री का किसी भी रूप में इस्तेमाल कानूनी कार्यवाही का कारण बन सकता है।)
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श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  
45. सरकार स्वर्णिम मध्यप्रदेश का नारा दे रही है, मुझे हंसी आती है
44. सियासत हमसे सीखिए, ज़िद नहीं समझौता कीजिए!
43 . सरकार घबराई हुई थी, साफतौर पर उसकी साठगांठ यूनियन कार्बाइड से थी!
42. लेकिन अर्जुनसिंह वादे पर कायम नहीं रहे और राव पर उंगली उठा दी
41. इस मुद्दे को यहीं क्यों थम जाना चाहिए?
40. अर्जुनसिंह ने राजीव गांधी को क्लीन चिट देकर राजनीतिक वफादारी का सबूत पेश कर दिया!
39. यह सात जून के फैसले के अस्तित्व पर सवाल है! 
38. विलंब से हुआ न्याय अन्याय है तात् 
37. यूनियन कार्बाइड इंडिया उर्फ एवर रेडी इंडिया! 
36. कचरे का क्या….. अब तक पड़ा हुआ है 
35. जल्दी करो भई, मंत्रियों को वर्ल्ड कप फुटबॉल देखने जाना है! 
34. अब हर चूक दुरुस्त करेंगे…पर हुजूर अब तक हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे थे? 
33. और ये हैं जिनकी वजह से केस कमजोर होता गया… 
32. उन्होंने आकाओं के इशारों पर काम में जुटना अपनी बेहतरी के लिए ‘विधिसम्मत’ समझा
31. जानिए…एंडरसरन की रिहाई में तब के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की क्या भूमिका थी?
30. पढ़िए…एंडरसरन की रिहाई के लिए कौन, किसके दबाव में था?
29. यह अमेरिका में कुछ खास लोगों के लिए भी बड़ी खबर थी
28. सरकारें हादसे की बदबूदार बिछात पर गंदी गोटियां ही चलती नज़र आ रही हैं!
27. केंद्र ने सीबीआई को अपने अधिकारी अमेरिका या हांगकांग भेजने की अनुमति नहीं दी
26.एंडरसन सात दिसंबर को क्या भोपाल के लोगों की मदद के लिए आया था?
25.भोपाल गैस त्रासदी के समय बड़े पदों पर रहे कुछ अफसरों के साक्षात्कार… 
24. वह तरबूज चबाते हुए कह रहे थे- सात दिसंबर और भोपाल को भूल जाइए
23. गैस हादसा भोपाल के इतिहास में अकेली त्रासदी नहीं है
22. ये जनता के धन पर पलने वाले घृणित परजीवी..
21. कुंवर साहब उस रोज बंगले से निकले, 10 जनपथ गए और फिर चुप हो रहे!
20. आप क्या सोचते हैं? क्या नाइंसाफियां सिर्फ हादसे के वक्त ही हुई?
19. सिफारिशें मानने में क्या है, मान लेते हैं…
18. उन्होंने सीबीआई के साथ गैस पीड़तों को भी बकरा बनाया
17. इन्हें ज़िन्दा रहने की ज़रूरत क्या है?
16. पहले हम जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं… गुलाम, ढुलमुल और लापरवाह! 
15. किसी को उम्मीद नहीं थी कि अदालत का फैसला पुराना रायता ऐसा फैला देगा
14. अर्जुन सिंह ने कहा था- उनकी मंशा एंडरसन को तंग करने की नहीं थी
13. एंडरसन की रिहाई ही नहीं, गिरफ्तारी भी ‘बड़ा घोटाला’ थी
12. जो शक्तिशाली हैं, संभवतः उनका यही चरित्र है…दोहरा!
11. भोपाल गैस त्रासदी घृणित विश्वासघात की कहानी है
10. वे निशाने पर आने लगे, वे दामन बचाने लगे!
9. एंडरसन को सरकारी विमान से दिल्ली ले जाने का आदेश अर्जुन सिंह के निवास से मिला था
8.प्लांट की सुरक्षा के लिए सब लापरवाह, बस, एंडरसन के लिए दिखाई परवाह
7.केंद्र के साफ निर्देश थे कि वॉरेन एंडरसन को भारत लाने की कोशिश न की जाए!
6. कानून मंत्री भूल गए…इंसाफ दफन करने के इंतजाम उन्हीं की पार्टी ने किए थे!
5. एंडरसन को जब फैसले की जानकारी मिली होगी तो उसकी प्रतिक्रिया कैसी रही होगी?
4. हादसे के जिम्मेदारों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए थी, जो मिसाल बनती, लेकिन…
3. फैसला आते ही आरोपियों को जमानत और पिछले दरवाज़े से रिहाई
2. फैसला, जिसमें देर भी गजब की और अंधेर भी जबर्दस्त!
1. गैस त्रासदी…जिसने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों को सरे बाजार नंगा किया! 

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Neelesh Dwivedi

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