बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से
सह्याद्रि के माथे और तलहटी में फैला मावल का आँचल उफनते नदी-नालों तथा तुकाराम महाराज की तेजस्वी अभंगवाणी से सिंचित था। गुलामी एवं गँवारपन के कारण सच्चे धर्म का लोप हो गया था। तुकाराम महाराज आस्था और लगन से धर्म का सच्चा स्वरूप लोगों को समझा रहे थे। ढोंग और ढकोसले की कठोर भर्त्सना कर रहे थे। वेदान्त का सार सरल लोकभाषा में उड़ेल रहे थे। वह हँसी-मजाक में ही वेदशास्त्रों की तोतारटन्त करने वाले धर्म के ठेकेदारों, दलालों एवं सद्धर्म का द्रोह करने वाले शास्त्री पंडितों के कान खींच रहे थे, “अर्थ वेदों का मालूम हमीं को, बोझा ढोने वाले वैसे हैं कई।”
तुकोबा के कथा-कीर्तनों में लोगों का जमघट लग रहा था। लोग भक्तिगीत, प्रभु का नाम एकतानता से सुन रहे थे। जनता के अन्तर्मन में ज्ञान की नन्हीं सी लौ जलने लगी थी। सिर कटे या शरीर ही गिरे, हम तो प्रभु नाम के संकीर्तन में डूबे रहेंगे, ऐसी धर्मनिष्ठा जगने लगी थी।
परमार्थ की हाट का यह बनिया चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि दृढ़ निश्चय का फल मीठा होता है। वीणा, करताल के नाद पर वह कभी विठ्ठल जी की, सद्धर्म की महिमा बखानते तो कभी विठ्ठल जी के सामने तख्तनशीं सुल्तान के पापों की शिकायतें करने लगते, “पहन ताज, करे खाने को मोहताज। कहे तुका, भगवन्! अब तो नींद से जागो।” वह मन्दिर में सोए भगवान को ही नहीं, बल्कि लोगों के मन में छिपे भगवान को भी पुकार रहे थे।
उधर, समर्थ रामदास भी रामसेवा का, रुद्रसेवा का सन्देश दे रहे थे। सामूहिक भक्ति का आवेश बढ़ रहा था।। तुकाराम और रामदास दोनों ही शक्ति के पुंज थे। और भी कई सन्त, सदाचार, सद्विचार और ईश-सेवा के बीजों की बुवाई के लिए लोगों के मनों को तैयार कर रहे थे। मन की मिट्टी में बोए बीजों पर समर्थ प्रयत्नवाद का पानी छिड़क रहे थे। उनका कहना था कि ओ “कहाँ जाएगा भाग्य? यत्न की राह तक रहा है वह। अन्तर में जान लो यत्न ही देव है। आग को जला लो, जलाने पर जलती है। करने से सब होता है। पहले कोशिश तो कर लो।”
मुस्लिम सुल्तानों ने धर्मप्राण हिन्दुओं के देवस्थान, देवताओं की मूर्तियाँ तोड़-फोड़कर उनके मन में स्वधर्म का नाम–ओ-निशान मिटाने को कोशिश की थी। उनका स्वत्व, स्वाभिमान, क्रूरता से कुचल डाला था। रामदास स्वामी एवं तुकाराम महाराज उसी पीड़ित जनता के स्वत्व को जगा रहे थे।
इधर, शिवाजी राजे और जिजाऊ साहब को शहाजी राजे ने पुणे जागीर का प्रबन्ध देखने पुणे भेजा। इस समय राजे सात साल के थे। (1637 ई. की पहली तिमाही) पुणे में मालोजी राजे की बनाई कोठियाँ थीं पहले। लेकिन आदिलशाही सेना ने 1630 में पुणे को तहस-नहस कर डाला। मारकाट, आगजनी से पुणे का सत्यानाश किया और जले पर नमक छिड़कने के लिए पुणे में गधे का हल चलावाया। सुन्दर पुणे को भयावह श्मशान में तब्दील किया।
छोटे से राजे को लेकर जिजाऊ साहब उजड़े पुणे में आईं। ऐसी वीरान जागीर का खर्चा सँभालने, पूँजी बढ़ाने के लिए साथ में दीवान के तौर पर भेजा गया था दादाजी कोंडदेव मलठनकर को। बुद्धिमान्, निष्ठावान्। अनुशासन के पक्के और तेजतर्रार। पर ममतालु भी बहुत। जिजाऊ साहब ने पुणे का भयावह रूप देखा तो उसकी बदसूरती मिटा देने का निश्चय किया। मदद के लिए दादाजी तैयार ही थे। श्रीगणेश करना था। भाग्य की बात। शुभारम्भ श्रीगणेशजी की सेवा से ही हुआ। पुणे में विनायक भट ठकार की हवेली में, ताक में गणेशजी बैठे थे। आँधी-पानी में बदन को सिकोड़कर, किसी तरह टिके हुए थे। जिजाऊ साहब ने यह सुना। श्री गणेशजी के दर्शन करने वे वहाँ गई और यहाँ से श्रीगणेश हुआ पुनर्निमाण के कार्य का। जिजाऊ साहब ने पन्त जी को गणपतिजी का मन्दिर बनाने का आदेश दिया।
पन्त दादाजी ने काम शुरू किया। शीघ्र ही गजानन मन्दिर तैयार हुआ। पक्के तराशे मजबूत पत्थरों का। केवल जिजाऊ साहब और शिवाजी राजे का ही नहीं, पूरे पुणे का यह आराध्य बन गया। यही है पुणे का कस्बा गणपति। जिजाऊ साहब ने इन गणेशजी की पूचा-अर्चना एवं भोग का अच्छा प्रबन्ध कर दिया। इस अर्थ के स्वयं उन्होंने आज्ञापत्र दिए। श्रीगणेश जी की सारी व्यवस्था उन्होंने वेदमूर्ति विनायक भट ठकारजी के कुल को सौंप दी। मंगल स्तोत्र और मंगल वाद्यों से मन्दिर का अहाता गूँजने लगा। और फिर सुल्तानी फौज के अत्याचारों, दसों दिशाओं में भटकने वाले परिवार और मवेशी श्रीगणेशजी और लाल-महाल की छत्रछाया में आने लगे।
जिजाऊ साहब और दादाजी पन्त ने खंडहर बने पुणे को फिर से बसाने का निश्चय किया। उसे सुन्दर बनाने के लिए पन्त ने कई योजनाएँ बनाईं। उन पर तुरन्त अमल भी किया। विघ्नहर्ता गणेशजी के आशीष से उदास पुणे फिर से हँसने-मुस्काने लगा। शिवाजी राजे के नाम का सिक्का बन गया। राजमुद्रा भी तैयार हुई। पुणे के लाल-महाल से राजमुद्रांकित आज्ञा-पत्र जारी होने लगे।
राजे की मुद्रा संस्कृत भाषा में बनाई गई थी। लिखा था, “प्रतिपच्चन्द्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववन्दिता। शाहसुनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्रामराजते॥” अर्थात् “शहाजी राजे के बेटे, शिवाजी राजे की यह मुद्रा लोककल्याण के लिए शोभा पा रही है। प्रतिपदा के चन्द्रमा की तरह इस मुद्रा में, यानि इस मुद्रा की सत्ता में, हमेशा बढ़ोत्तरी होगी। विश्ववंद्य चन्द्रमा की तरह यह मुद्रा सर्वमान्य होगी।”
आज्ञापत्रों के अन्त में अंकित होने वाला राजे का सिक्का (मुहर) भी विनम्र था। उसका मजमून था “मर्यादेयं विराजते।” शिवाजी राजे को बचपन से ही राजकाज की शिक्षा दी जा रही थी। राजपत्रों के माथे पर शिवमुद्रा राजतेज से दमकने लगी। साढ़े तीन सौ सालों की घोर अँधियारी अमावस के बाद महाराष्ट्र के गगन में प्रतिपदा की चन्द्रलेखा निकली थी। इस मुद्रा में स्वतंत्रता की शान थी। दिग्विजयी सीमोल्लंघन की महत्वाकांक्षा थी। आत्मतेज था, कपटी दैत्यों का नाश करने वाली भवानी माता का। प्रसन्नता से मुस्काती यह राजमुद्रा शरीफों को, स्वजनों को दिलासा दे रही थी। और नरसिंह की तरह आँखे फाड़, रौद्र गर्जनाकर शत्रु को चेतावनी दे रही थी।
शुरू से ही राजे संस्कृत भाषा के प्रेमी थे। उन्होंने उसे राजमुद्रा में स्थान दिया। बाद में उन्होंने संस्कृत के श्रेष्ठ पंडितों को राजाश्रय भी दिया। कवीन्द्र परमानन्द, केशव पंडित पुरोहित, धंडिराज व्यास, उमाजी पंडित आदि संस्कृत पंडितों ने शिवाजी के दरबार में मान्यता, प्रतिष्ठा पाई थी। संस्कृत भाषा भरतखण्ड का स्वत्व है और स्वत्व की महापूजा, शिवराज्य का व्रत ही था। किशोर शिवाजी का हिन्दवी स्वराज्य का सपना सच होने में अब ज्यादा देर नहीं थी। उनकी मुद्रा और सिक्का रामराज्य का सन्देश दे रहे थे।
—–
(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।)
—–
शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
8- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवबा ने सूरज, सूरज ने शिवबा को देखा…पता नहीं कौन चकाचौंध हुआ
7- शिवाजी ‘महाराज’ : रात के अंधियारे में शिवाजी का जन्म…. क्रान्ति हमेशा अँधेरे से अंकुरित होती है
6- शिवाजी ‘महाराज’ : मन की सनक और सुल्तान ने जिजाऊ साहब का मायका उजाड़ डाला
5- शिवाजी ‘महाराज’ : …जब एक हाथी के कारण रिश्तों में कभी न पटने वाली दरार आ गई
4- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठाओं को ख्याल भी नहीं था कि उनकी बगावत से सल्तनतें ढह जाएँगी
3- शिवाजी ‘महाराज’ : महज पखवाड़े भर की लड़ाई और मराठों का सूरमा राजा, पठाणों का मातहत हुआ
2- शिवाजी ‘महाराज’ : आक्रान्ताओं से पहले….. दुग्धधवल चाँदनी में नहाती थी महाराष्ट्र की राज्यश्री!
1- शिवाजी ‘महाराज’ : किहाँ किहाँ का प्रथम मधुर स्वर….
अभी इसी शुक्रवार, 13 दिसम्बर की बात है। केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी लोकसभा… Read More
देश में दो दिन के भीतर दो अनोख़े घटनाक्रम हुए। ऐसे, जो देशभर में पहले… Read More
सनातन धर्म के नाम पर आजकल अनगनित मनमुखी विचार प्रचलित और प्रचारित हो रहे हैं।… Read More
मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर को इन दिनों भिखारीमुक्त करने के लिए अभियान चलाया जा… Read More
इस शीर्षक के दो हिस्सों को एक-दूसरे का पूरक समझिए। इन दोनों हिस्सों के 10-11… Read More
आकाश रक्तिम हो रहा था। स्तब्ध ग्रामीणों पर किसी दु:स्वप्न की तरह छाया हुआ था।… Read More